गोस्वामी तुलसीदास भक्ति के क्षेत्र में जितने महान थे उतने ही कविता के क्षेत्र में भी ।
यद्यपि तुलसी के काव्य-सृजन का प्रधान उद्देश्य भक्ति-प्रतिपादन एवं ' रामचरित-मानस' का गायन है, जिसमें उनकी सफलता विस्मयकारी है, तथापि कला-पक्ष की दृष्टि से भी, वे सफलता प्राप्त करने में सक्षम सिद्ध हुए हैं । अनुभूति पक्ष की दृष्टि से संसार साहित्य का कोई महाकवि तुलसीदास से आगे नहीं है, किंतु तुलसी का अभिव्यक्ति-पक्ष ( कलापक्ष ) भी विलक्षण है जो व्यास, शेक्सपीयर से भी अधिक शब्द-संपन्न एवं अधिक अलंकृत है, जिसमें कविता की अधिकतम् विधाओं के दर्शन होते हैं। अवधी, संस्कृतनिष्ठ अवधी, ब्रज भाषा, संस्कृतनिष्ठ ब्रजभाषा, संस्कृत और भोजपुरी तक तुलसी का अभिव्यक्ति -लोकअतुलनीय है ।
तुलसी का अलंकार सामर्थ्य इतना सहज और भाव संपन्न है कि अलंकारवादी- चमत्कारवादी तक उनके पीछे पड़ जाते हैं। सूर केवल ब्रजभाषा का प्रयोग करते हैं, जायसी केवल अवधी का, जबकि तुलसी का दोनों पर समान अधिकार है। तुलसी कला के पीछे नहीं दौड़े, कला उनके पीछे दौड़ी है।
' हरिऔध ' के शब्दों में-
" कविता करके तुलसी न लसे
कविता लसी या तुलसी की कला ।"
( १ ) तुलसी की अतुलनीय भाषा - सामर्थ्य
संसार- साहित्य में तुलसी के भाषा- सामर्थ्य की कोई तुलना नहीं, अवधी एवं संस्कृत निष्ठ अवधी, ब्रजभाषा एवं संस्कृत निष्ठ ब्रजभाषा, संस्कृत एवं भोजपुरी का प्रसार अतुलनीय है। विश्व साहित्य के सीमांत शेक्सपीयर तक ने १३ हजार शब्दों का प्रयोग किया है, जो विलक्षण है, किंतु तुलसी- दास ने १६ हजार शब्दों का प्रयोग किया है। रसानुरूप भाषा के विलक्षण प्रयोग की दृष्टि से तुलसी की समता वाल्मीकि, व्यास , कालिदास , होमर, शेक्सपीयर जैसे महाकवि तक नहीं कर सकते ।
अवधी - ब्रजभाषा
तुलसीदास का शब्द- शिल्प अनूठा है। उन्होंने अपने ग्रंथों में सामान्यतः दो भाषाओं का प्रयोग किया है- अवधी और ब्रजभाषा। दोनों पर उनका समान अधिकार है। 'रामचरितमानस ' अवधी की प्रतिनिधि रचना है, और 'विनयपत्रिका' तथा 'कवितावली' ब्रजभाषा की।
ब्रजभाषा में 'हौं' शब्द 'मैं ' के अर्थ में प्रयुक्त होता है । 'कवितावली' में भी अनेक स्थानों पर ' हौं ' शब्द 'मैं' के अर्थ में आया है।
जैसे-
" बरु मारिए मोहिं, बिना पग धोए,
हौं नाथ न नाव चढाइहौं जू । "
' रामचरितमानस 'में भी ' सांवरो', 'को', 'हौं' ,'बेरो' आदि ब्रजी के प्रयोग मिल जाते हैं।
ब्रजभाषा में मेरो, तेरो , हमारो ,तिहारो का प्रयोग भी पारस्परिक व्यवहार के लिए बहुत होता है।इसका प्रयोग भी 'कवितावली' में हुआ है।
जैसे-
"जनक को सिया को हमारो तेरो तुलसी को"।
ब्रजभाषा की कृतियों में ' लुटैया ', ' मंह ', ' मैं ', ' तोर मोर ', 'नाऊं गाऊं' आदि अवधी प्रयोगों की बहुलता पाई जाती है।
'कवितावली' में भी अवधी का स्वरूप विद्यमान है। अवधी के अनेक शब्दों का प्रयोग 'कवितावली' में मिलता है। अवधी में " में " के लिए मांह, माहीं, मंह आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है।
एक उदाहरण देखिए-
" दूलह श्री रघुनाथ बने,
दूलही सिय सुंदर मंदिर मांही ।"
कुछ और उदाहरण देखिए-
घालि ( घलुआ ), घारि ( समूह- सेना ), से ( वे ), अकनि ( सुनकर ), अछत( रहते), पंवारो ( कीर्ति ) आदि ।
शब्द ज्ञान
तुलसी ने अपनी रचनाओं में संस्कृत के तत्सम और तद्भव दोनों प्रकार के शब्दों का प्रयोग किया है। शब्दों का रूप कहीं-कहीं पूर्णत: ब्रज का है और कहीं-कहीं संस्कृत व्याकरण से अनुशासित हैं। इससे तुलसी का शब्द-ज्ञान प्रकट होता है ।
तत्सम शब्दावली का एक उदाहरण देखिए -
"श्रीरामचंद्र कृपालु भजु मन हरण भवमय दारुणम् ।
नवकंज -लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद- कंजारुणं ।।"
( विनयपत्रिका )
इन पंक्तियों में राम के रूप का भक्ति भावना के साथ सुंदर चित्र अंकित कर सकने में तुलसी की भाषा पूर्णत: समर्थ है।
तुलसी के शब्द ज्ञान की विशदता का एक प्रमाण यह भी है कि उन्होंने अवधी, बुंदेल- खंडी ,भोजपुरी ,अरबी -फारसी की शब्दा- वली के साथ-साथ देशज शब्दों का भी प्रयोग किया है।
'भोजपुरी 'के प्रयोगों का एक उदाहरण देखिए-
" राम कहत चलु, राम कहत चलु ,
राम कहत चलु भाई रे ।
नाहिंन भव बेगारि महं परिहौं छूटत
अति कठिनाई रे ।।"
तुलसी का शब्द भंडार बड़ा विशाल है। इससे भी भाषा पर उनका आधिपत्य सूचित होता है-
अरबी के शब्द :
हलक, कहरी,गुलाम, हराम, निशान, सौदा, साहिब, गरीब, बाग, जहाज, मुकाम, फौज, खसम, सतरंज आदि ।
फारसी के शब्द :
दराज, कागर, दगाबाज, नेवाज, बाजार, दरबार, मजूरी, खजानो, बाजीगर, खूब, संयम आदि।
बुंदेलखंडी के शब्द :
खेरे, चारित, पनवाई , भांड जाना ( घूम-घूमकर देखना ) आदि।
देशज शब्द :
पेट, बिगारी, ठौर, निदरि आदि।
बघेली शब्द:
बागत ।
मराठी शब्द:
पोकट ।
अपभ्रंश शब्द:
मयन ,पब्बै, सायर
तुर्की शब्द:
बैरख ( बैरक - झंडा )
बंगला शब्द
सरकारे, संजोग ( सकाल - प्रातःकाल )
मारवाड़ी शब्द :
म्हाको
( २ ) तुलसी की भावानुगामिनी भाषा
तुलसी की साहित्यिक अवधी, साहित्यिक ब्रजभाषा तथा जनपदीय अवधी -आदि सभी भाषाएं भावों की अभिव्यक्ति में सहयोगी सिद्ध होती हैं। तुलसी चाहे जन- पदीय ब्रजभाषा लिखें, चाहे साहित्यिक भाषा, उनके प्रत्येक ग्रंथ में भाषा विषय के अनुसार कोमल और कठोर भावों की अनुगामिनी रहती है। ' लड़का ' के अर्थ में ब्रज भाषा में तीन शब्द हैं- बालक, लरिका और लला ।
एक उदाहरण देखिए-
" जल को गए लक्खन हैं लरिका,
परिखौ,फिर छांह धरीख ह्वै ठाढे। "
इस उदाहरण में 'लरिका 'के साथ 'लक्खन'
शब्द प्रेम और वात्सल्य की धारा को वेगवती बना रहा है। जब राम ने शिवजी के पिनाक ( धनुष )को तोड़ा, तब पृथ्वी, पाताल और आकाश में जो स्थिति उत्पन्न हुई , उसका वर्णन तुलसी ने कठोर ध्वनिवाले शब्दों के माध्यम से किया है-
" डिगति उर्बि अति गुर्बि,
सर्ब पब्बै समुद्र सर ।
ब्याघ बघिर तेहि काल,
बिकल दिगपाल चराचर ।"
( २ ) मुहावरे ,कहावतों और लोकोक्तियों का प्रयोग
तुलसीदास ने 'रामचरितमानस', 'विनय- पत्रिका 'एवं ' कवितावली' मैं अनेकानेक मुहावरों , कहावतों और लोकोक्तियों का प्रयोग करके भाषा -सौंदर्य में अभिवृद्धि की है।
मुहावरे
* होई न बांको बार
* दूध को जर्यो पियत फूंक-फूंक मह्यो है।
* तू हिये की आंखनि हेरि।
* बिनु मोल बिकाउं
* खीस जाना
* लसम के खसम
* बाप को राज बटाऊ की नाई आदि।
कहावतें
(१) पानी भरी खाल है
(२) चामकी चलाई है
(३) धोबी कैसो कूकर न घर को न घाटको
(४) मसक की पांसुरी पयोधि पाटियतु है
(५) मांगि के खैबो मसीत को सोइबो
लैबो को एक न दैबो को दोऊ "
लोकोक्ति
" घूत कहौ, अवधूत कहौ, राजपूत कहौ,
जुलाहा कहौ कोऊ
काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब
काहू की जाति बिगारौ न सोऊं "
इस अवतरण में लोकोक्तियां बड़े सहज रूप में आई हैं। मुहावरे, कहावतों के प्रयोग से तुलसी की भाषा अधिक सजीव और सशक्त बन गई है ।
( ४ ) तुलसीदास की वाक्य-पटुता
तुलसीदास की वाक्य - योजना में भी पर्याप्त पटुता का प्रमाण मिलता है ।उन्होंने वाक्यों का गठन तथा प्रयोग भावों के अनुकूल किया है ।एक उदाहरण देखिए -
"कबहुंक अम्ब अवसर पाइ।
मेरिऔ सुधि धाइबी, कछु करुन- कथा
चलाइ ।।"
( ५ ) अर्थ-गौरव
विनयपत्रिका 'की भाषा - शैली की एक विशेषता यह निर्दिष्ट की जा सकती है कि उसमें अर्थ गौरव का सम्यक् निर्वाह किया गया है । कवि का मूल उद्देश्य ऐसी भाषा का प्रयोग करना है जो कि भाव सौंदर्य और अर्थ गौरव का पूर्ण निर्वाह कर सकें। इसी प्रकार विनय- भाव की व्यंजना के लिए कवि की अभिव्यंजना सीधे सरल हृदय से सहज रूप में स्फूर्त हुई है।
एक उदाहरण देखिए-
"केसव ! कहि न जाइ का कहिये
देखत तव रचना विचित्र हरि!
समुझि मनहिं मन रहिये ।।"
उपर्युक्त पद की अर्थ गौरव की दृष्टि से जितनी भी प्रशंसा की जाए ,वह कम है।
उक्ति वैचित्र्य की दृष्टि से भी 'विनयपत्रिका' एक प्रशंसनीय काव्य कृति है। विनय के अनेक पदों में तुलसी की भावुकता अपना बांध तोड़कर वैचित्र्य की सीमा में प्रवेश कर गई है। एक उदाहरण देखिए-
"बावरो रावरो नाह भवानी ।
दानि बड़ो दिन देत दए बिनु वेद बड़ाई
भानी ।।"
( ६ ) अलंकार विधान
तुलसी की अलंकार प्रियता स्थान -स्थान पर दर्शनीय हैं। उनका काव्य अलंकारों का अनंत रत्नाकर है। अलंकार सम्राट तुलसीदास अलंकारों के पीछे नहीं पड़े, अलंकार स्वयं उनके पीछे पड़े हैं । उनके गौरव ग्रंथों की एक भी पंक्ति अलंकारहीन नहीं है- अनुप्रास, यमक, श्लेष, वक्रोक्ति, उपमा, रूपक ,उत्प्रेक्षा, दृष्टांत, विभावना आदि लोकप्रिय अलंकारों के असंख्य उदा- हरण उनके ग्रंथों में अनायास ही मिल जाते हैं ।
रूपक के सम्राट
तुलसीदास का सर्वप्रिय अलंकार रूपक है। रूपक के प्रयोग में उनकी समता संसार- साहित्य में दुर्लभ है । 'रामचरितमानस 'के बालकाण्ड का विशदतम मानक-रूपक, लंकाकाण्ड का रथ-रूपक तथा उत्तरकाण्ड का ज्ञानदीप- रूपक ही तुलसीदास को राजाधिराज घोषित करने के लिए पर्याप्त है। किंतु 'रामचरितमानस', 'विनयपत्रिका', एवं 'कवितावली' के अन्य अनेक रूपक भी उच्चस्तरीय हैं। यहां वानगी के तौर पर कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
रूपक अलंकार
( १) उदित उदयगिरि मंच पर रघुवर बाल
पतंग ।
बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन
भृंग ।।"
( २ ) रावन सो राजरोग बाढत विराट- उर
दिन दिन विकल सकल सुख -रांक सो।
( ३ ) बंदउं गुरु पद पदुभ परागा ।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
( ४ ) श्रीहरि, गुरु -पद कमल भजहु मन
तजि अभिमान ।
अनुप्रास अलंकार
( १ ) राम राम रटु, राम राम रटु ,
राम राम जपु जीहा ।
उपर्युक्त पंक्ति में ' र ' वर्ण की आवृत्ति दर्शनीय है ।
( २ ) राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे।
उपर्युक्त पंक्ति में ' र ' वर्ण की आवृत्ति दर्शनीय है।
( ३ ) मुदित महीपति मंदिर आये
उपर्युक्त पंक्ति में ' म ' वर्ण की आवृत्ति दर्शनीय है।
( ४ ) छोनी में के छोनी पति छाजै जिन्हैं
छत्रछाया ,
छोनी छोनी छाए छिति आए निमिराज
के ।"
उपर्युक्त पंक्ति में ' छ ' वर्ण की आवृत्ति दर्शनीय है ।
उपमा अलंकार
( १ ) राम कबहुं प्रिय लागि हौ,
जैसे नीर मीन को ।
( २ ) तुलसी मनरंजन रंजित- अंजन
नैन सुखंजन जातक से ।
सजनी ससि में समीर उभै
नवनील सरोरुह से बिकसे।"
( ३ ) कीरति भनिति भूति भलि सोई
सुरसरि सम सब कहं हित होई।।
उत्प्रेक्षा अलंकार
( १ ) तुलसी मुदित -मन जनक नगर -जन,
झांकती झरोखे लागीं सोभा रानी पार्वती।
मनहुं चकोरी चारु बैठी निज निज नीड़,
चंद की किरन पीवैं पलकैं न लावती ।।
( २ ) सुनत जुगल कर माल उठाई,
प्रेम बिबस पहराई न जाई ।
सोहत जनु जुग जलज सनाला ,
ससिहि सभीत देत जयमाला।।
विभावना अलंकार
( १ ) बिनु पद चलै सुनै बिनु काना।
कर बिनु करम करै विधि नाना।
( २ ) केसव ! कहि न जाइ का कहिये
देखत तव रचना विचित्र हरि!
श्रीसमुझि मनहिं मन रहिए ।।
( ३ ) वसत गढ लंक लंकेस - नायक अछत
लंक नहिं खात कोउ भात रांध्यो ।
यमक अलंकार
" हरि सब आरती - आरती राम की ।"
यहां पर आरती - आरती में यमक है।
दृष्टांत अलंकार
" बड़े को ही ओट, बलि, बांचि,आए छोटे हैं,
चलत खरे के संग ,जहां-तहां खोटे हैं ।"
इस पद में भाव यह है कि बड़े व्यक्तियों के कर्मों से छोटा व्यक्ति भी तर जाता है।
परिकर अलंकार
रावन की रानी जातुधानी बिलखानी
हा! हा! कोऊ कहै बीसबाहु दस माथ सौ
भ्रांतिमान अलंकार
"मनि मुख मेलि डारी कपि देही।"
विरोधाभास अलंकार
"बिंध्य के वासी उदासी,
तपो व्रतधारी महा, बिनु नारि दुखारे।
गौतमतीय तरी तुलसी,
सो कथा सुनि कै मुनिवृंद सुखारे।"
इस प्रकार तुलसी के गौरव ग्रंथों में अनेक अलंकार भरे पड़े हैं। जहां तक 'रामचरित- मानस' का संबंध है, वह अलंकारों का विश्वकोश ही है।
( ७ ) छंद विधान
तुलसीदास नवरस की घोषणा भी करते हैं, निर्वाह भी। वे " आखर अरथ अलंकृति नाना" की घोषणा भी करते हैं, निर्वाह भी। इसी प्रकार में विविध -छन्द रचना की घोषणा भी करते हैं, निर्वाह भी । उनका सबसे अधिक प्रिय छंद चौपाई है, उसके बाद दोहा। 'रामचरितमानस' में चौपाई के बाद दोहा उनके द्वारा सर्वाधिक प्रयुक्त हुआ है।
चौपाई
" बंदउ गुरु पद पदुभ परागा ।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा ।।
दोहा
"श्री गुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु
सुधरि ।
बरनऊं रघुवर बिमल जसु जो दायकु फल
चारि ।।"
'कवितावली ' की रचना भाटों और बंदी जनों के लिए हुई है इसमें प्रयुक्त छंद हैं - कवित्त, सवैया, मनहरण ,झूलना , छप्पय आदि। कुछ उदाहरण देखिए-
कवित्व
"छोनी में के छोनीपति छाजै जिन्हें
छत्रछाया,
छोनी- छोनी छाए छिति आए
निमिराज के।"
सवैया
"कवितावली' में दुर्मिल एवं मत्तगयंद सवैया का प्रयोग किया गया है।
दुर्मिल सवैया ( आठ सगण )
"तुलसी मनरंजन रंजित- अंजन
नैन सुखंजन जातक से ।
सजनी ससि में समीर उभै
नवनील सरोरुह से बिकसे।"
मत्तगयंद सवैया
"दूलह श्री रघुनाथ बने,
दूलही सिय सुंदर मंदिर माहीं ।
गावतिं गीत सबै मिलि सुंदरी,
बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं।"
झूलना छंद
' कवितावली ' में झूलना छंद का प्रयोग लंकाकांड तथा उत्तरकांड में हुआ है।
जैसे-
"कनकगिरि सृंग चढि, देखि मर्कट-कटक,
बदति मंदोदरी,परम भीत ।"
इस प्रकार तुलसीदास के ग्रंथों की छंद -योजना में छंदों का वैविध्य तो है ही, साथ ही इनका प्रसंग एवं रस के अनुकूल प्रयोग हुआ है। इसी कारण छंद योजना सफल रही है।
उपसंहार
सारांश यह है कि तुलसी साहित्य में सर्वत्र ही काव्य -कला की रमणीयता पाई जाती है। 'हरिऔध' की निम्नलिखित उक्ति 'रामचरितमानस' के साथ ही उनके अन्य गौरव ग्रंथों की काव्य कला पर भी खरी उतरती है।
" कविता करके तुलसी न लसे
कविता लसी या तुलसी की कला ।
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