आइए तुलसी की भक्ति-भावना पर प्रकाश डालते हैं-
भक्ति आंदोलन का युग
तुलसी का युग भक्ति-आंदोलनों का युग था। शताब्दियों पूर्व भक्ति का जो प्रवाह दक्षिण भारत से चल रहा था वह धीरे-धीरे संपूर्ण भारत में फैल गया। उसके दो अन्य- तम् प्रचारक- रामानन्द और वल्लभाचार्य हुए। तुलसी के समय में सारा देश विभिन्न प्रकार की भक्तिधाराओं में डूबा हुआ था। असंख्य मंदिर, मठ, अखाड़े आदि उनके केंद्र थे । काशी से राम-भक्ति का और वृंदावन से कृष्ण-भक्ति का प्रसार हुआ, जिससे संपूर्ण उत्तर भारत आंदोलित हो गया। इस आंदोलन को लोगव्यापी बनाने में भक्त कवियों ने विशेष महत्वपूर्ण योगदान दिया।
सृजनीय के स्वरूप, भक्ति साधना आदि की दृष्टि से भक्ति धारा की दो धाराएं थीं -
निर्गुण भक्ति धारा और सगुण भक्ति धारा। एक में निर्गुण निराकार ईश्वर की भक्ति पर बल दिया गया और दूसरी में सगुण साकार भगवान की भक्ति पर।
रामानंद द्वारा प्रवर्तित राम भक्ति धारा के दो रूप थे- निर्गुण रामभक्ति और सगुन राम भक्ति। रामानंद के शिष्य कबीर ने निर्गुण भक्ति का प्रचार किया। उन निर्गुण संतो ने वर्ण- धर्म, वेद शास्त्र , अवतारवाद आदि का का खण्डन किया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल लिखते हैं-
"लोक- मर्यादा का उल्लंघन, समाज की व्यवस्था का तिरस्कार, अनाधिकार चर्चा, भक्ति और साधुता का मिथ्या दंभ, मूर्खता छिपाने के लिए वेद शास्त्र की निंदा, ये सब बातें ऐसी थीं जिनसे गोस्वामीजी की अंत- रात्मा बहुत व्यथित हुई ।"
निर्गुण- निराकार राम से जनता का कल्याण नहीं हो सकता था। अतः तुलसी ने भक्तों की पुकार पर अवतीर्ण होकर अधम असुरों का संहार करनेवाले लोक रक्षक राम की भक्ति का उपस्थापन किया । मर्यादापुरुषो- त्तम और लोक धर्म -संस्थापक राम का रंजनकारी चित्र अंकित करके सामाजिक उत्कर्ष का मार्ग प्रशस्त किया । सगुण राम- भक्ति की भी दो विधाएं थीं- माधुर्य विशिष्ट और मर्यादा विशिष्ट। कांत-कांता -भाव की माधुर्य विशिष्ट रसिक -भक्ति श्रृंगारिकता से ओतप्रोत थी । वह तुलसी की मनोवृत्ति के प्रतिकूल थी । वह समाज का उन्नयन नहीं कर सकती थी।इसलिए उन्होंने सेव्य- सेवक भाव की मर्यादावादी भक्ति का प्रतिपादन किया ।
गोस्वामी तुलसीदास की भक्ति पद्धति
भक्त कवि तुलसीदास भक्ति साहित्य के क्षेत्र में कलानिधि चंद्रमावत रामामृत की धारा को प्रवाहित कर गए, जिसको पीकर जनता आज तक आभारी है और युग-युग तक रहेगी। उन्होंने भक्त-भ्रमरों के लिये भाव-कलिकाओं द्वारा भक्ति -पराग को नि:सृत किया, जिसका पानकर जनता आज तक अपने सौभाग्य क्षणों की प्रशंसा करती है। उन्होंने अपने साहित्य के मंथन द्वारा 'रामचरित चिंतामणि ' का पुनरुद्धार किया और रामत्व का मंत्र दिया ।
गोस्वामी तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' के प्रारंभिक मंगलाचरण में गुरु की वंदना की है यह 'गुरु -वंदना' भक्ति का बीज है। उन्होंने कहा है-
" वंदे बोधमयं नित्यं, गुरु शंकर रूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोडपि चंद्र सर्वत्र वन्द्यते।।"
नित्यबोधमय गुरु शंकर के समान हैं और यदि उसकी कृपा प्राप्त हो सके तो वक्र और कुटिल व्यक्ति भी उसी प्रकार महत्व प्राप्त कर सकता है, जिस प्रकार शंकर के मस्तक पर द्वितीया का चंद्रमा, जो वक्र होता हुआ भी वंदनीय हो गया है । यहां पर उन्होंने गुरु के महात्म्य को चंद्रमा की उक्ति से स्पष्ट किया है ।
गुरु का स्मरण इसीलिए किया जाता है कि वह ज्ञान का प्रतीक है। ज्ञान का स्मरण इच्छा का परिणाम है। ज्ञान की इच्छा का परिणाम ज्ञान है और ज्ञान का परिणाम क्रिया । अतः इच्छा ,ज्ञान और क्रिया का समन्वय प्रदान करने वाला गुरु का ध्यान भक्ति का प्रथम पदन्यास है। इसीलिए गोस्वामी जी ने ईश्वर के स्मरण के साथ गुरु का स्मरण किया है। उनका कहना है कि जिस प्रकार भगवत्कृपा और भागवतकृपा उस ज्ञान की प्राप्ति के लिए आवश्यक है, जिससे भवसागर पार हो जाता है उसी प्रकार गुरुकृपा भी आवश्यक है।
" तुलसीदास हरि गुरु करुना बिनु विमल
विवेक न होई ।
बिनु विवेक संसार घोर निधि पार न पावै
कोई ।।"
भक्ति ईश्वर के प्रति अनुरक्ति है। ईश्वर के प्रति अनुराग का तात्पर्य लोक -बंधन से मुक्ति है और यह मुक्ति विरक्ति से प्राप्त होती है। तुलसी का सिद्धांत है-
" श्रुति संमत हरि भक्ति पथ,
संयुत विरति विवेक।"
ऐसी स्थिति में हरि-भक्ति मार्ग पर चलते हुए लोक की मुक्ति समर्पण भाव से होती है। आसक्ति भाव से नहीं ।
भक्ति भावना के लिए जिस व्यक्तिगत ईश्वर की आवश्यकता थी,तुलसी ने उसे दाशरथि राम में पा लिया था।
" जड़ चेतन जग जीव जत ,
सकल राममय जानि ।"-
कहकर तुलसी ने इसी भाव को प्रकट किया है कि राम सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त हैं। वे घट घट वासी हैं। वस्तुत: गोस्वामी जी रामानुजाचार्य की परंपरा में श्रीरामानंद के सिद्धांतानुयायी थे; जिन्होंने कबीर को राम नाम का मंत्र दिया था और जिसके आधार पर कबीर ने ' निर्गुण सगुण से परे अपने राम ' की कल्पना की थी । तुलसी के राम भी" विधि- हरि शंभु नचावन हारा " और 'दशरथ सुत' होकर भी परब्रह्म हैं। तुलसी के राम भी ब्रह्म हैं, उनकी दृष्टि में निर्गुण और सगुण ब्रह्म एक ही है। ' निर्गुण ' ब्रह्म ही भक्तों के प्रेम के कारण ' सगुण ' हो जाता है। बालकांड में शंकर कहते हैं-
" अगुनहि सगुनहि नहिं कछु भेदा ।
गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा ।।
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
जो गुन रहित सगुन सोई कैसें।
जलु हिम उपल बिलख नहिं जैसैं ।।
इस प्रकार निर्गुण और सगुण एक ही ब्रह्म है। जैसे जल वायु के भीतर बाष्प में अदृश्य रूप में रहता है ,वैसे ही निर्गुण ब्रह्म भी । जिस प्रकार वह अदृश्य बाष्प बादलों का रूप धारण करती है ,फिर जल का और वही ठोस उपल ( बरफ ) का रूप धारण करती है; उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म भी सगुण रूप धारण करता है ।
निर्गुण और सगुण- दो प्रकार के ब्रह्म का निरूपण एक और प्रकार से तुलसीदास ने किया है। वे कहते हैं-
" एक दारुगत देखियत एक ।
पावक सम जुग ब्रह्म विवेकू ।।"
तुलसी ने जो कहीं-कहीं विराट रूप का वर्णन किया है, वही इसी साकार ब्रह्म की व्यापक कल्पना है। जीवन के क्लेश राम भक्ति के बिना उसी प्रकार नहीं मिट सकते जिस प्रकार बिना सूर्य के तम का विनाश नहीं होता। जिस प्रकार सूर्योदय होने से संसार भर के अंधकार का नाश हो जाता है ,उसी प्रकार हृदय गुफा में 'रामनाम' का उदय होने मात्र से ही अज्ञान और मोह का अंधकार मिट जाता है । अग्नि जिस प्रकार सृष्टि के समस्त पंचभौतिक पदार्थों को भस्म कर देती है, उसी प्रकार 'रामनाम' समस्त शुभाशुभ कर्मों को भस्म कर देता है ।' नाम 'के उदय होते ही हृदय के समस्त ताप -संताप का निवारण हो जाता है और जिय जरनि शांत हो जाती हैं। समस्त साधनों के परिणाम स्वरूप राम भक्ति के बिना वास्तविक मोक्ष किसी को प्राप्त नहीं । मोक्ष भी रामभक्ति के बिना उसी प्रकार नहीं टिक सकता, जिस प्रकार जल बिना भूमि के नहीं टिकता। इस कलिकाल में सद्गति का एक ही साधन है वह है रामभक्ति । तुलसीदास ने समस्त संसार को 'सियाराममय' जानकर उसको प्रणाम किया है। और भक्ति को ही अपना कर 'सेव्य सेवक' भाव से 'रामनाम' की महिमा का गान करते हुए उनकी याचना की है। वे अपने परम स्नेही को भी त्यागने का उपदेश देते हैं, यदि उसको राम और वैदेही प्रिय ना हो-
" जाके प्रिय न राम वैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम जद्यपि परम
सनेही । "
इस अनन्य भक्ति के कारण ही सच्चे भक्त के सम्मान उनके हृदय से अनेक प्रकार की भक्ति से आप्लावित भावनाएं प्रस्फुटित हो गईं, जिनमें दैन्य,आशा ,आत्मसमर्पण, आत्मग्लानि, अनुताप और आत्मा- निवेदन की भावनाएं प्रमुख रूप से नि:सृत हुईं।
भगवान की अनुकंपा पर दृढ़ विश्वास होने के कारण वे आत्मसमर्पण करते हैं ।उन्हें विश्वास है कि प्रभु क्षण मात्र में ही सारी कलुष- कालिमा को छोड़ालेंगे, क्योंकि उन्होंने जटायु, अहिल्या, अजामिल आदि को भी मुक्त कर दिया था। इसीलिए वे विनती करते हैं-
" काहे ते हरि मोहि बिसारो ।
जानत निज महिमा, मेरे अध,
तदपि न नाथ संभारो ।। "
रामनाम की महिमा का गान करते हुए, दीनता , दुर्बलता ,दैन्य आदि स्वीकार करने पर ही और मन के विकारों को त्यागने पर ही राम की भक्ति रूपी पवित्र गंगा की धारा में डुबकियां लगा सकते हैं । इसी कारण उन्होंने 'रामनाम 'की महिमा का गान किया है। तुलसीदास के लिए तो यह ' नाम' ही 'भाई ,बाप ,गुरु, स्वामी'- सब कुछ है और 'तप, तीरथ, मख दान, नेम, उपवास' आदि सभी से बढ़कर है-
" ब्रह्म तू, हौं जीव,तू ठाकुर , हौं चेरौ ।
तात मात सखा गुरु तू,सब विधि हितु
मेरो ।।"
'राम 'का नाम मात्र लेने से अधमाधम भी मुक्ति पा लेता है। इतना ही नहीं "नाम लेत भव -सिंधु सुखाहिं " और फिर उसे तैरना नहीं पड़ता । राम का 'नाम' तो कल्पवृक्ष के समान है, जो स्मरण करते ही कलियुग के दु:ख -द्वंद्व को नाश कर देता है ।
भगवत् कृपा से ही सांसारिक क्लेषों का दमन किया जा सकता है। भगवत् कृपा की प्राप्ति के लिए तुलसीदास ने अनेक साधन बताएं हैं। राम की 'भक्ति मणि' को प्राप्त करने के लिए भक्तों को केवल 'नाम स्मरण' करना पड़ता है यही सर्वप्रधान साधन है-
" सब साधन- फल कूप सरित सर,
सागर सलिल निरासा ।
राम-नाम- रति स्वाति-सुधा- सुभ-सीकर
प्रेमपियासा ।।"
इसीलिए तो भक्त श्रेष्ठ तुलसीदास ने कहा है-
" राम-राम रटु, राम राम रटु,
राम राम जपु जीहा ।
राम नाम नव नेह-मेह को मन,
हठि होहि पपीहा ।।"
'राम नाम ' स्मरण करने से तो भव-ताप शांत हो ही जाते हैं, परंतु 'राम' शब्द को विपरीत रूप में रखने से भी मृत्युलोक गोपद बन जाता है । भक्त जब राम का नाम स्मरण करते -करते प्रभु के महत्व का अनुभव करने लगता है तो उसे स्वत: ही अपने लघुत्व का भी आभास होने लगता है। जिस प्रकार प्रभु का महत्व वर्णन करने में अलौकिक आनंदानुभूति होती है, उसी प्रकार अपना लघुत्व वर्णन करने में भी-प्रभु की अनंत शक्ति के प्रकाश में, अनंत शील और सौंदर्य के दिव्यालोकमें उसे अपना असामर्थ्य ,अपनी दीन दशा, यहां तक कि हृदयान्तर्गत विकारों का स्पष्ट आभास होने लगता है और वह समस्त ब्रह्मांड में अपने को दीन-हीन पाता है । इस दृश्य के क्षोभ में भक्त तुलसी की आत्मा पुकार उठती है-
"तू दयाल, दीन हौं तू दानि, हौं भिखारी ।
हौं प्रसिद्ध पातकी ,तू पाप पुंजहारी।।"
इसीलिए तो अन्य सब आशाओं को छोड़कर भक्त राम की शरण में जाते हैं और उनके प्रति अपना दासत्व भाव स्वीकार करते हैं। वे राम के आदर्श भक्त और अनन्य सेवक हैं। उन्होंने राम की भक्ति को 'सेवक सेव्य भाव 'में स्वीकार किया है। यदि राम स्वामी हैं तो तुलसी गुलाम और दास हैं। उनके अनुसार " सेवक सेव्य भाव बिनु , भव न तरिय उरगारि " यही सेवक -सेव्य भाव उनकी भक्ति साधना की प्रधान विशेषता है।
भगवान के प्रति आत्मसमर्पण करने पर अब वही तो आश्रय दाता है, इसीलिए तुलसी अपने हठी मन को समझाते हैं कि- वह मृग- तृष्णा का पीछा छोड़कर भगवान की भक्ति रूपी गंगा में अवगाहन करें। इसीलिए तो तुलसी याचना करते हैं-
" काहे ते हरि मोहि बिसारो ?
जानत निज महिमा, मेरे अंध,
तदपिन नाथ संभारो ? "
+ + + +
" मैं हरि पतित पावन सुने ।
मैं पतित, तुम पतित पावन, दोउ बानक बने ।।"
तुलसी ने' राम भक्ति 'में चातक- प्रेम का ही ज्वलंत उदाहरण देकर अपने काव्य की सुषमा को उद्दीप्त किया है। तुलसी के शब्दों में चातक प्रेम की अनन्यता पराकाष्ठा को पहुंच गई है। उनका राम के प्रति वही अनन्य प्रेम है ,जो चातक का स्वाति -नक्षत्र के मेघ के प्रति होता है और चकोर का चंद्र के प्रति।
उन्होंने कहा भी है-
" रामचंद्र चन्द्र तू ।
चकोर मोहि कीजै ।"
चातक बधिक से मारा गया, वह गंगा के पावन जल में पड़ा है ,किंतु अपनी चोंच अपने प्रियतम घन के प्रिय दर्शनों की ओर ही रखकर प्राणों का विसर्जन करता है। वास्तव में चातक प्रेम ही भक्ति का प्रतीक है। इस अनन्य प्रेम की कितनी सुंदर व्यंजना कवि ने निम्न पदों में की है-
"चरग-चंगु-गत चातकहिं, नेम प्रेम की पीर तुलसी परवस हाड़ पर, परि है सुरभी नीर।।
बंध्यो बधिक परयौ गंगाजल, उलटि उठाई चोंच ।
तुलसी चातक प्रेम- पट,मरतजलगि न खोंच। ।"
मरते समय विवश होकर भी चातक यही चाहता है कि मरने पर भी उसके शरीर का सम्पर्क स्वाति नक्षत्र के जल को छोड़कर और किसी जल से ना हो। प्रेम की कितनी अनन्य तथा अलौकिक व्यंजना है। चातक का यह अनन्य अलौकिक प्रेम वास्तव में सराहनीय है। यही दशा सच्चे भक्त तुलसी की भी होती है। उनका मन राम को छोड़कर और किसी का आश्रय नहीं चाहता। सांसारिक ऐश्वर्य तथा वैभव उनके लिए बेकार निरर्थक हो जाते हैं । राम ही उनके लिए सब कुछ है। वे ही उनके आश्रय विश्वास और आशा है । अतः राम भक्त तुलसी राम-भक्ति रूपी सुरसरिता को छोड़- कर सांसारिक बिभवरूपी ओसकणों से अपनी तृषा बुझाने की आशा नहीं रखते।
तुलसी ने अपने इष्टदेव में शील, शक्ति और सौंदर्य -तीनों का समन्वय किया है। वे राजा होने के साथ-साथ भगवान हैं। समस्त सृष्टि त्रिगुणमयी है और समय-समय पर जीव सत्व, रज और तम की ओर आकृष्ट होता है। जीव त्रिगुण की ओर आकृष्ट होता है, अत: त्रिगुणात्मक इष्टदेव भक्त को अधिक आक- र्षित कर सकते हैं । इसी अभिप्राय से तुलसी ने त्रिगुणात्मक स्वरूप की कल्पना की । रज का प्रतीक सौंदर्य, तम का प्रभाव शक्ति और सत्य का प्रतीक शील है। इस प्रकार तुलसी के इष्टदेव इन तीनों लोकोत्तर गुणों से युक्त हैं ।
तुलसी ने अपने को पूर्णत: राम को अर्पित कर दिया है। यह आत्मसमर्पण इसलिए किया है कि भगवान दीननायक और भक्तवत्सल है।राम की उदारता और भक्त- वत्सलता का ज्वलंत उदाहरण इस बात का साक्षी है कि तुलसी की उनके प्रति कितनी असीम श्रद्धा और विश्वास था-
" ऐसो को उदार जग माहीं।
बिनु सेवा जो द्रवे दिन पर राम सरिस
कोउ नाहीं ।।"
राम ने शबरी को नवधा भक्ति का उपदेश दिया था। सीतान्वेषण करते हुए श्री राम जब शबरी के यहां आतिथ्य ग्रहण करने के लिए उसके आश्रम में गये तो उन्होंने उसे नवधाभक्ति का उपदेश दिया। जिससे गोस्वामीजी ने यह प्रदर्शित किया है कि भक्त अपना आत्मिकविकास कैसे कर सकता है।
" श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पाद सेवनं ।
अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम ।।"
रामभक्ति का प्रादुर्भाव मुख्य रूप से राम के चरित्र- श्रवण, मनन तथा कीर्तन से होता है। राम के शील स्वभाव से परिचय प्राप्त करने से उनकी भक्ति तो अनायास ही प्राप्त हो जाती है । इस विकासोन्मुकख भक्तिवाद को ही तुलसीदास जी ने महत्वपूर्ण स्थान दिया है और वे स्वयं भी इसी प्रकार विकासोन्मुख रहे हैं। यह नवधाभक्ति भगवान के चरम पद पर पहुंचने का उत्तम साधन है। इस भक्तिमार्ग की एक और विशेषता है, वह यह कि इसमें भोग और आनंद यहीं, इसी जीवन में प्राप्त होता है ।
मृत्यु के उपरांत किसी कल्पित जीवन के आनंद की संदिग्ध आशा का रूप इसमें नहीं है। उनका निश्चित मत है कि भक्ति से युक्त जीवन व्यतीत करने में लोक और परलोक दोनों ही सुधरते हैं। उनका यह विश्वास है कि भक्ति का अव- लम्बन लिए बिना मनुष्य का उद्धार नहीं हो सकता । यही वह साधन है ,जिसके सहारे संसार में रहते हुए भी मनुष्य ,लोकानन्दों में भाग लेकर भी मलिन नहीं होता और बंधनों में नहीं बंधता । वह स्वतंत्रता का अनुभव करता है। यह जीवन की एक आदर्श स्थिति है ,इसीलिए भक्त गोस्वामीजी के लिए ' जीवन दर्शन या फिलासफी ऑफ लाइफ ' है । तुलसीदास ने कहा है-
" राम कहत चलु, राम कहत चलु,
राम कहत चलु भाई रे ।
नाहिं त भव बेगार मह परिहै छूटत
अति कठिनाई रे।। "
इसका तात्पर्य यह नहीं कि इस जीवन के बाद दूसरे जन्म में बेगार करनी पड़ेगी,वरन इसका अभिप्राय है कि राम कहते चलो अर्थात् भक्ति करते हुए संसार के कार्य करो, तो स्वतंत्र होकर रह सकते हो। इस जीवन में भी मुक्त रहकर संसार का सुख भोग सकते हो। यदि भक्ति न की तो, इसी जीवन में वह काम करना पड़ेगा जो बंधन में बांधने- वाला है और इस प्रकार जो बेगार है। यदि राम कहते हुए जीवन यापन करोगे, तो बेगार नहीं करनी पड़ेगी, वरन् वह काम करने का सुयोग तुम्हें प्राप्त होगा जो तुम करना चाहोगे, जिसमें तुम्हें बंधन नहीं, वरन मुक्ति का अनुभव प्राप्त होगा। इस प्रकार मुक्ति के बाद भक्ति और भक्ति से सदैव मुक्ति की अवस्था प्राप्त रहती है। यही मुक्ति और भुक्ति दोनों की ही अवस्थाओं का एक साथ अनुभव ही भक्ति की दशा है। गोस्वामी जी के विचार से भगवान की कृपा और करुणा ही भक्ति के विकास के लिए आवश्यक है।
उपसंहार
इस विवेचन से यह बात पूर्णतया स्पष्ट हो जाती है कि गोस्वामीजी द्वारा प्रतिपादित भक्ति भावना का विकास उनके गंभीर भक्ति रुपी जीवन -दर्शन का आधार प्राप्त किए हुए है। भक्ति भावना के साथ संसार का स्वरूप ही एकदम बदल जाता है।
यदि भक्ति है तो संसार के सभी साधन महत्त्व के हो जाते हैं अन्यथा उनमें आशा- निराशा बराबर झूलती रहती है। इस प्रकार तुलसी ने भक्ति रस से छलकते हुए 'मानस 'में समस्त भक्तों को अवगाहन कराया और समग्र लोक का आभ्यांतर मल दूर हुआ और राम भक्ति का प्रसार हुआ। राम भक्ति के इस समन्वित रूप को जनता ने सरलता,सुबोधता और सुगमता से अपना लिया, जिससे देश की द्वेषमयी अग्नि शांत हुई ।इसका श्रेय भक्त शिरोमणि तुलसीदास को है।
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