तुलसी के नारी संबंधी विचार इतने ज्यादा विवादास्पद रहे है कि समीक्षा के क्षेत्र में दो वर्ग स्पष्टत: अलग-अलग दिखाई देने लगे। एक वर्ग वह है जो यह मानता हैं कि तुलसी दास ने नारी की भूरी- भूरी प्रशंसा की है और दूसरा वर्ग यह मानता हैं कि तुलसी- दास घोर नारी निंदक थे ।
तुलसी की नारी भावना (नारी चेतना) के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत
आचार्य रामचंद्र शुक्ल और रामकुमार वर्मा जैसे समीक्षकों ने तुलसी को नारी प्रशंसक बताया है।
आचार्य शुक्लजी का यह मत है कि-
" युग व्यापक विराग और तप की भावना के कारण तुलसी ने नारी के उस रूप का विरोध किया है जो तप और निवृत्ति में बाधक है।"
इसी प्रकार रामकुमार वर्मा कहते हैं-
" तुलसीदास ने नारी जाति के लिए बहुत आदर भाव प्रकट किया है। पार्वती,अनुसूया, कौशल्या ,सीता ,ग्रामवधू आदि की चरित्र- रेखा पवित्र और धर्मपूर्ण विचारों से निर्मित हुई है ।"
दूसरे पक्ष के हिमायती अर्थात् तुलसी को नारी निंदक माननेवाले समीक्षकों में मिश्रबंधुओं का नाम सबसे ज्यादा लिया जाता है।
इसी तरह माताप्रसाद गुप्त कहते हैं-
" प्रत्येक युग के कलाकार नारी-चित्रण में प्रायः उदार पाए जाते हैं, किंतु नारी- चित्रण में तुलसीदास बेहद अनुदार हैं। यद्यपि उनकी इस अनुदारता का कारण अब तक रहस्य के गर्भ में छिपा हुआ है, पर नारी- विषयक उनकी अनुदारता एक ऐसा तथ्य है जिसको अस्वीकृत नहीं किया जा सकता।"
उपर्युक्त दोनों अवधारणाओं के अनेक कारण हैं। वास्तव में तुलसी की नारी भावना को परखने के लिए मोटे तौर पर चार शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है।
(१) इष्ट से संबंधित नारी
(२) नारी का आदर्श रूप
(३) नारी का परंपरागत सामाजिक रूप
(४) परंपरागत नारी निंदा
( १ ) इष्ट से संबंधित नारी
तुलसी ने समस्त विश्व को सियाराममय कह- कर विश्व के तमाम संबंधों को राम और सीता के साथ जोड़ने का प्रयास किया है-
" सियाराममय सब जग जानी।
करौं प्रनाम जोरि जुग पानी ।।"
इस रूप में वे तमाम नारीपात्र जो गोस्वामी तुलसीदास के इष्ट( राम ) के साथ जुड़े हैं, उन सभी के प्रति तुलसी का रागात्मक संबंध है। सबसे पहले राम की माता कौशल्या के प्रति तुलसी के मन में सर्वाधिक पूज्यभाव है-
" बंदौ कौसल्या दिसि प्राची ।
कीरति जासु सकल जग मांची ।"
इसी प्रकार भगवान राम की सहधर्मिणी सीता तुलसी की निगाह में जगत्जननी है-
" सुमिरत राम तजहिं जन तृन सम विषय बिलासु।
रामप्रिया जगजननी सिया कछु न आचरजु तासु ।।"
लक्ष्मण -जननी सुमित्रा के लक्ष्मण को विदा देते समय के कथन में तुलसीदास का भक्त हृदय ही प्रकट होता है-
" पुत्रवती जुवती जग सोई ।
रघुपति भगतु जासु सुत होई ।।"
इस प्रकार कौशल्या, सीता ,सुमित्रा आदि नारी पात्रों के प्रति तुलसी के मन में अहो- भाव हैं।
सामान्यतः मर्यादापालन एवं पतिव्रत को तुलसीदास सर्वाधिक महत्व देते हैं। मर्यादा का अतिक्रमण उन्हें क्षम्य नहीं है। परंतु इष्ट की भक्ति करने वाली धर्मोपासना के क्षेत्र में अग्रसर होने वाली नारी के प्रति त्याग को भी वे श्लाघ्य मानते हैं। कृष्ण प्रेम में मतवाली गोपियों के परित्याग को कल्याण और सुख का आवाहक बतलाते हैं -
" बलि गुरु तज्यौ कंत ब्रज,
बनितनि भए मुदमंगलकारी ।"
भगवद्भक्ति के कारण अपने परमपूज्य पति को कटु वचन कहने वाली नारी मंदोदरी उनके दृष्टिकोण के अनुसार प्रशंसनीय है। हरिभक्तिमय नारी अथवा नर राम को अत्यंत प्रिय है ,अतः शबरी को भी योगिवृंद- दुर्लभ गति मिलती है । तुलसी रामभक्ति में संलग्न नर अथवा नारी दोनों को ही परम गति के अधिकारी मानते हैं।
( २ ) नारी का आदर्श रूप
'रामचरितमानस' में सीता,कौशल्या, पार्वती, सुमित्रा ,अनसूया तथा मंदोदरी आदि के चरित्रों में नारी का आदर्श-रूप प्रतिफलित देखा जा सकता है । सीता आदर्श पत्नी हैं और साथ ही मर्यादा- शीला कुलवधू भी हैं। हृदय पति के साथ वन जाने को उत्सुक है, पर पति यहीं अयोध्या में रुकने का उपदेश देते हैं।पतिव्रता ह्रदय क्षोभ से व्याकुल हो उठता है, किंतु पारिवारिक जीवन की सात्विक मर्यादा का उल्लंघन न कर ,सास के चरण स्पर्श कर ,उनके समक्ष पति से भाषण करने की अविनय के लिए क्षमा -प्रार्थना कर लेती है-
" बरबस रोकि बिलोचन बारी।
धरि धीरज उर अवनिकुमारी।
लागि सासु पग कह कर जोरी।
छमबि देवि बड़ि अबिनय मोरी।"
भगवती सीता के चरित्र में तुलसी की उदात्त नारी भावना मुखरित हुई है। सीता को लेकर तो गोस्वामी तुलसीदास ने भारतीय नारी का आदर्श रूप चित्रित किया है एक प्रतिव्रता नारी के तमाम गुण तुलसीदास ने सीता के चरित्र में अंकित किये हैं।
कौशल्या का हृदय मंदाकिनी की वह शीतल धारा है जो पात्र -अपात्र, ऊंच-नीच का विचार किए बिना सबको समभाव से शीतलता और स्निग्धता का पवित्र दान देती है । उनके स्नेहपूर्ण हृदय में पुत्रवधू के प्रति भी अपरिसीम ममता है, जिसे वे जीवनमूल के समान स्नेह-जल से पालती रहती हैं।
"कलप बेलि जिमि बहु बिधि लाली ।
सीचि सनेह सलिल प्रतिपाली ।"
अनसूया के मुख से सीताजी को जो उपदेश तुलसी ने दिलाया है, वह वस्तुत: सारी नारी जाति के लिए आदेश है-
" एकै धर्म एक व्रत नेमा ।
काय बचन मन प्रति पद प्रेमा ।।"
सुमित्रा आदर्श माता हैं, जिनके लिए कर्तव्य ही प्रधान है। बड़े भाई तथा प्रभु दोनों रूपों में आदरणीय राम की सेवा को ही वे श्रेयस्कर बताती हैं-
" सिय रघुवीर की सेवा सुचि
ह्वै हैं तो जनिहौं सही सुत मोरे ।"
भगवती पार्वती अपने चल पतिव्रत, दृढ़ अनुरक्ति से शिव को पति रूप में प्राप्त करती हैं और प्रतिव्रताओं की शिरोमणि कही जाती हैं।
"उर धरि उमा प्रानपति चरना ।
जाइ बिपिन लागी तपु करना ।।"
इन पात्रों के अतिरिक्त शबरी का पात्र भी तुलसी की दृष्टि में महान है।
( ३ ) नारी का परंपरागत सामाजिक रूप
तुलसीदास के युग में नारी अपनी विशिष्टता तथा मान से वंचित हो चुकी थी। उनके समय में नारी की प्रतिष्ठा पर बड़ा भारी कुठाराघात था ।उसका जीवन परतंत्रता का दुखद इतिहास था। विवशता और आत्मा-दमन, बलिदान और दासता में उसका जीवन व्यतीत होता था। नारी चारों ओर से बंदिनी थी ।वह इसलिए कि नारी को भोग्या समझा जाने लगा था । अर्थात् नारी उपभोग की वस्तु है ।शिक्षा, ज्ञान और सम्मान से वंचित नारी जड़ और मूर्ख समझी जाती थी। उसे खरीदा और बेचा जा सकता था। पुरुष उसे पैर की जूती की तरह समझता था। उस युग में नारी भी धन और यश के प्रलोभन में अपने पति का त्यागकर किसी अन्य पुरुष के साथ चले जाने में हिचकिचाहट अनुभव नहीं करती थी और तभी से पर्दाप्रथा का श्रीगणेश हुआ। गौरवमयी नारी अपनी गरिमा से अलग होकर वासना प्रेरित प्रणय शिक्षा मांगती फिरती थी। सूर्पनखा के रूप में तुलसी नारी के इसी अभिसारिका रूप की ओर संकेत करते है। इसीलिए तुलसी उसको ढोल, गंवार ,शूद्र और पशुओं में गणना करके उसे ताड़ना का अधिकारी मानते हैं-
" ढोल गंवार सूद्र पसु नारी ।
ये सब ताउन के अधिकारी ।। "
( ४ ) परंपरागत नारी निंदा
नारी की निंदा साधु-संतो, भक्तो, विरक्तों ने जहां की है, उसका एकमात्र कारण है कि परमात्म- प्राप्ति में वह बाधक बन जाती है साधारण जनता को भी वे सचेत करते हैं कबीर ने नारी निंदा कम नहीं की है-
" नारी की झांई परत , अंधा होत भुज़ग ।
कबीरा तिनकी कौन गति, नित नारी के संग।।"
शास्त्रों ने नारी के तीन रूप माने हैं- कन्या, पत्नी तथा माता। तुलसीदास ने तीनों रूपों में नारी की महानता यत्र -तत्र प्रकट की है। नारी के विविध रूपों की ओर तुलसी ने संकेत किया है। एक ओर तो उन्होंने 'सपनेहुं आन पुरुष जग नाहीं' लिखकर नारी के उच्चादर्श ,त्याग और गौरव का अभिनंदन किया है तो दूसरी ओर 'पुरुष मनोहर निरखहिं नारी 'रूपकी घोर निंदा भी की है। नारी निंदा की प्रवृत्ति में तुलसी संतों के ही समान है ।संतों के समान वे भी नारी को त्रिगुणों ( तीन गुणों ) को नष्ट करनेवाली, तप संयम की विरोध और साधना की शत्रु मानते हैं। वास्तव में वे नारी को अनिश्चित मनोवृत्तिवाली, सहज ,अपावन और मूढ़ समझते हैं ।उसके छलप्रवंचनाम हृदय के रहस्य को समझने में विधाता तक असमर्थन है।
" विधिहु न नारी हृदय गति जानी।
सकल कपट अध अवगुन खानी ।"
मंदोदरी द्वारा रावण को बार-बार राम को सीता लौटाकर हरिभजन करने की शिक्षा देने पर रावण समस्त नारी जाति के स्वभाव पर साहस , झूठ, चंचलता, माया, भय, अविवेक आदि आठ अवगुणों का आरोप कर देता है -
" नारी सुभाउ सत्य कवि कहहीं।
अवगुन आठ सदा उर रहहीं ।।
साहस अनृत चपलता माया।
भय अविवेक असौच अदाया ।।"
इसी प्रवृत्ति के स्पष्टीकरण में समुद्र ने उसकी (नारी की) ढोल ,गंवार ,शुद्र और पशु में गणना करके उसे ताड़ना का अधिकारी माना है ।
मिश्र बंधुओं ने तुलसीदास को नारी निंदक कहा है। उनके मतानुसार -
"तुलसी ने कौशल्या आदि के चरित्रों को इसीलिए सुंदर और पवित्र बताया है कि वे राम से संबंधित हैं। शेष नारियों को सहज, जड़,अपावन तथा स्वतंत्र होने के योग्य माना है। "
निष्कर्ष:
तुलसीदास पर स्त्रियों की निंदा का आक्षेप किया जाता है, किंतु यह कथन स्वीकार नहीं किया जा सकता। उन्होंने भक्ति की प्राप्ति के लिए नारी की निंदा की है; क्योंकि विषय वासना का प्रबल साधन है नारी। पर सर्वत्र और सभी रूपों में उन्होंने नारी की निंदा नहीं की है। यह तथ्य तुलसीदास द्वारा रचित ' रामचरितमानस 'में नारी चरित्रों के पर्यवेक्षण से स्पष्ट है ।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी अपनी पुस्तक 'गोस्वामी तुलसीदास ' में लिखा है -
" सब रूपों में स्त्रियों की निंदा उन्होंने नहीं की है। केवल प्रेमदाया कामिनी रूप में, दाम्पत्य रति के आलंबन रूप में की है- माता, पुत्री, भगिनी आदि के रूप में नहीं।"
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