कबीर के दार्शनिक विचार | Kabir Das - Darshnik Vichar
कबीर के दार्शनिक विचार पर विभिन्न विद्वानों के मत
आचार्य क्षितिमोहन सेन के अनुसार-
"कबीर की आध्यात्मिक क्षुधा और आकांक्षा विश्वग्राही है । यह कुछ भी छोड़ना नहीं चाहती ,इसलिए वह ग्रहण शील है, वर्जनशील नहीं। इसीलिए उन्होंने हिंदू, मुसलमान , सूफी, वैष्णव, योगी ,प्रभृत्ति सब साधनाओं को जोर से पकड़ रखा है। "
उक्त उदाहरण से स्पष्ट है कि कबीर ने अपनी वाणी में सिद्धांत और साधना के तत्वों का निरूपण किसी सीमित क्षेत्र के अंतर्गत रहकर नहीं किया । अधिकतर विद्वानों का यह मत है कि आपका ब्रह्म निरूपण वैदिक ढंग पर होते हुए भी अपने अंदर अनेक धर्मों के प्रचलित ब्रह्म निरूपण की भावना को सम्मान के साथ अंगीकार करके चलता है।इनके ब्रह्म पर उपनिषदों , योगियों के विलक्षणवाद, बौद्धों,सिद्धों और योगियों के शून्यवाद सभी की छाया न्यूनाधिक रूप से मिलती है । इन पर सहजवादियों,सहज- ब्रह्मवाद का भी प्रभाव है। इस्लामी एकेश्वरवाद, सूफियों के इश्क इत्यादि से बचना भी उनके लिए कठिन था।
इस प्रकार कबीर के दार्शनिक विचारों और साधना पद्धति को समझने के लिए बहुत ही व्यापक दृष्टिकोण से आगे बढ़ने की आवश्यकता है।
दार्शनिक विचारधारा के तत्व
( १ ) ब्रह्म विचार
" नहिं निरगुन, नहिं सरगुन भाई,
नहिं सूछम अस्थूल ।
नहिं अक्षर, नहिं अविगत भाई,
ये सब जग की भूल ।।"
+ + + + +
"साहब मेरा एक है, दूजा कहा ना जाय,
दूजा साहब को कहूं , साहब खरा
रिसाय ।। "
वह एक ईश्वर संसार में सर्वत्र व्याप्त है। उसका पता लगाना कठिन है। यदि कोई हिमालय पर पहुंचकर हिमालय का पता पूछे तो उसे कोई क्या बता सकता है-
१. "मोकों कहां ढूंढे बंदे,
मैं तो तेरे पास। "
२. "कस्तूरी कुंडली बसै,
मृग ढूंढे बन मांहि।
ऐसै घटि घटि राम हैं,
दुनिया देखै नाहिं।।"
३. तेरा साईं तुज्झ में ,
ज्यों पुहुपन में बा
कस्तूरी का मिरग ज्यों,
फिरि फिरि ढूंढे घ
अगर कोई कबीर से पूछे कि आखिर वह ईश्वर है कैसा ? तो उसके उत्तर में वे कहते हैं-
" भारी कहूं तो बहू डरूं,
हलका कहूं तो झूठ ।
मैं का जानू राम को,
नयान कबहूं न दीप।।"
" वह तो गूंगे गूर है भाई ।"
" कोई ध्यावे निराकार हो,
कोई ध्यावे साकार ।
वह तो इन दोउन तैं न्यारा,
जाने जान न हारा ।।"
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी लिखते हैं -
" आपात दृष्टि से ऐसा जान पड़ता है कि यह बात एकदम असंगत है कि एक ही वस्तु एक ही साथ सगुण भी हो और निर्गुण भी, साकार भी हो और निराकार भी, सविशेष भी हो और निर्विशेष भी, सोपाधि भी हो और निरुपाधि भी । इसके उत्तर में वेदांती लोग कहते हैं कि ब्रह्म अपने -आप में तो निर्गुण,निराकार, निर्विशेष और निरुपाधि ही है , परंतु अविद्या या गलतफहमी के कारण ,या उपासना के लिए हम उसमें उपाधियों या सीमाओं का आरोप करते हैं।............उसे श्रुतियां बार-बार इस प्रकार प्रकट करती हैं, वह मोटा भी नहीं, पतला भी नहीं, छोटा भी नहीं,बड़ा भी नहीं,लोहित भी नहीं, स्नेह भी नहीं, छायायुक्त भी नहीं, अंधकार भी नहीं, वायु भी नहीं, आकाश भी नहीं........।"
इस प्रकार कबीर ने प्रधान रूप से निर्गुण ब्रह्म का ही अपनी रचनाओं में बखान किया है । कबीर में हमें पूर्ण रूप से आध्यात्मिक ब्रह्म की भावना के दर्शन होते है।
" सूरज चंद्र का एक ही उजियारा।
सब महि पसरा ब्रह्म पसारा ।।"
ब्रह्म के विविध नाम
इस संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं-
" परंतु यह राम या हरि कौन है ? पर ब्रह्म, अपर ब्रह्म, ईश्वर या और कुछ ? इसमें तो कोई संदेह नहीं कि हरि, विष्णु, गोविंद, राम ,केशव ,माधव इत्यादि पौराणिक नामों का कबीरदास क्वचित् कदाचित ही सगुण अवतार के अर्थ में व्यवहार करते हैं । एकदम नहीं करते, ऐसा नहीं कहा जा सकता। पर जब वह अपने परम उपास्य को इन नामों से पुकारते हैं तो सगुण अवतारों से उनका मतलब नहीं होता ।"
इस प्रकार ब्रह्म के सभी गुणों का समावेश कबीर ने विभिन्न नामों के अंतर्गत किया है और अपनी मान्यता सभी धर्मों में इष्टदेव में स्थापित की है। कबीर ने ब्रह्म के सभी विविध नामों को अपनाया और एक समन्वयवादी भावना से काम लेने का प्रयत्न किया।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कबीर के ब्रह्म विचार के संबंध में लिखते हैं-
" वह किसी भी दार्शनिकवाद के मानदंड से परे है, तार्किक बहस से ऊपर है ,पुस्तकी विधा से अगम्य है, पर प्रेम से प्राप्य है, अनुभूति का विषय है सहज भावना से भावित है।"
कबीर ने अवतारवाद का डटकर विरोध किया है। वे कहते हैं कि ईश्वर ने नहीं दशरथ के घर जन्म लिया, न देवकी के गर्भ में पैदा हुए, न यशोदा की गोद में खेले।
ब्रह्म का साकार व्यक्त स्वरूप
भक्ति के क्षेत्र में साकार ब्रह्म की उपासना ही संभव है, निर्गुण ब्रह्म की नहीं। इसीलिए भक्ति मार्गी आचार्यों ने सगुण साधना पर ही बल दिया है। भक्ति हृदय की सात्विक ईश्वरा सक्ति का ही दूसरा नाम है, और यह आसक्ति कभी भी निर्गुण के प्रति संभव नहीं। भक्ति के लिए श्रद्धा और प्रेम का हृदय में जागृत होना आवश्यक है। प्रेम और श्रद्धा को उत्पन्न करने के लिए ईश्वर में आकर्षण होने की नितान्त आवश्यकता है । इसके लिए उसमें सौंदर्य ,सरलता ,सौम्य, माधुर्य और ज्ञान की आवश्यकता है।
प्रेम और श्रद्धा को उत्पन्न करने के लिए आश्रय की आवश्यकता है और आश्रय तीन प्रकार का हो सकता है-
१. भावनात्मक ( भावना प्रधान )
२. ज्ञानात्मक (बुद्धि प्रधान )
३. प्रतीकात्मक ( मूर्ति रुप )
१. भावनात्मक
भक्ति के क्षेत्र में भावना से प्रेरित होकर आत्मा भगवान के सामने आत्मसमर्पण करती है। कबीर ने इस विषय में लिखा है-
" मेरा मुझमें कुछ नहीं,
जो कुछ है सो तेरा ।
तेरा तुझको सौंपता,
क्या लगता है मेरा।। "
प्रेम की भावना में बहकर कबीर प्रेम की महिमा का इस प्रकार बखान करते हैं-
" कबीर प्रेम न चाखिया,
चाखि न लिया साव ।
सूने घर का पाहुगा,
ज्यूं आया त्यूं जाय ।।
यह तो घर है प्रेम का,
खाला का घर नाहिं ।"
प्रेम का बादल तो कबीर के आंगन में हर समय छाया रहता है-
" कबीर बादल प्रेम का,
हम पर बरस्यो आई ।
अंतर भीगी आत्मा,
हरी-भरी बनराई ।।"
( २ ) ज्ञानात्मक
कबीर के ज्ञान तत्व के विषय में डॉ. त्रिगुणायत लिखते हैं -
" बुद्धि विनिर्मित साकार विग्रह का वर्णन सबसे प्रथम ऋग्वेद के पुरुष सूत्र में मिलता है। गीता और उपनिषदों में भी उसी की महिमा वर्णित है ।...अर्थात् उस विराट पुरुष के सहस्र मस्तक, सहस्र नेत्र,तथा सहस्र चरण थे । इस प्रकार के विराट रूप का वर्णन कभी में भी मिलता है ।
( ३ ) प्रतीकात्मक
ब्रह्म का सगुण साकार रूप इसी प्रकार के चित्रणों में अधिक निखार के साथ सामने आता है।
" कहु कबीर को जाने मेव
मन मधुसूदन त्रिभुवन देव ।। "
ब्रह्म का अव्यक्त स्वरूप
कबीर ने अव्यक्त ब्रह्म का वर्णन सगुण, निर्गुण, सगुण- निर्गुण, अद्वैत विलक्षण और नेति नेति के रूप में किया है।
* सगुण अव्यक्त
जहां तक सगुण रूप का संबंध है कबीर ने ब्रह्म में एकता, आनंद और सरसता का समावेश किया है-
" हम तो एक एक करि जाना ।"
* निर्गुण अव्यक्त
कबीर ने ने प्रधान रूप से निर्गुण ब्रह्म का ही अपनी रचनाओं में प्रतिपादन किया है इस संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की लिखते हैं-
" कबीरदास के निर्गुण ब्रह्म में 'गुण' का अर्थ सत्व ,रज आदि गुण हैं,इसलिए 'निर्गुण ब्रह्म' का अर्थ वे निराकार ,निस्सीम आदि समझते हैं निर्विषय नहीं ।"
" साधो, शब्द साधना कीजै ।
जे ही शब्द ते प्रगट भये सब,
सोई शब्द गहि लीजै ।।"
* सगुण-निर्गुण
भावना के आवेश में आकर..
"गुण में निर्गुण, निर्गुण में गुण है ।'
विलक्षण नेति-नेति अव्यक्त
कबीर के परात्परवाद में हमें सभी वादों की छाया मिल जाती है । बौद्धों के अनिवर्चनीयतावाद और रहस्यवादी भक्तोंके अद्भुतवाद की स्पष्ट छाया हमें कबीर के अव्यक्त ब्रह्म पर दिखाई देती है ।
( २ ) आत्मा संबंधी विचार
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के मातानुसार-
"कबीरदास की साखियों और पदों को देखकर हमें मालूम होता है कि उन्होंने आत्मविचार को विशेष महत्व दिया है।"
आत्मा को कबीर सच्चिदानंद के रूप में ही निरखते हैं । कबीर ने आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर ही बल दिया है। यही अद्वैतवाद का प्रधान विचार है। आत्मा का वर्णन कबीर ने भावनात्मक और विचारा- त्मक दोनों प्रकार से किया है।
कबीर आत्मा को समस्त संसार में व्याप्त मानते हैं और इस संसार व्याप्त आत्मा का नाम विश्वात्मा है ।आत्मा और परमात्मा एक ही शक्ति के दो भाग हैं, जिन्हें माया के परदे ने अलग कर दिया है-
"जल में कुंभ कुंभ में जल है,
बाहर भीतरि पानि ।
फूटा कुम्भ जल जल ही समाना,
यह तथ कह्यो ज्ञानी ।"
आत्मा का जीव निरूपण
कबीर ने जहां भी अद्वैत की भावना को लिया है , वहां आत्मा और परमात्मा का एकीकरण कर दिया है। परंतु द्वैत की भावना का विचार भी आपने प्रकट किया है-
"पांच तत्त का पूतरा, जुगति रची मैं कवि।
मैं तोहि पूछों पंडिता,सब्द बड़ा की जीव।।"
कबीर ने आत्मा और परमात्मा की बूंद और समुद्र से भी उपमा की है-
" हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराइ।
समंद समाना बूंद में सो कत हेरया जाय।
हेरत हेरत हे सखी रह्या कबीर हिराइ।
बूंद समानी समंद में सो कत हेरी जाइ ।"
आत्मा का सुरति निरूपण
डॉ. त्रिगुणायत ने कबीर के विचार से आत्मा के दो रूप ज्ञाता या ज्ञेय, दृष्टा या दृश्य के रूप में उपनिषदों के आधार पर माने हैं और कबीर द्वारा प्रयुक्त 'सुरति' तथा 'निरति'का प्रयोग आत्मा के इन्हीं दोनों रूपों के विषय में समझा है। आत्मा जब निरति की स्थिति को प्राप्त हो जाती है, तो अद्वैत की भावना स्पष्ट हो जाती है-
" सुरति समानी निरति में,
निरति रही निरधार ।
सुरति निरति परचा भया,
तब खूले स्तम्भ दुवार ।। "
'निरति' का प्रयोग ब्रह्म के रूप में-
" सुरति निरत सों मेला करके अनहद नाद बजावै "
आत्मा और ब्रह्म की अद्वैत भावना का उदाहरण देखिए-
साधो ,सहजै काया साधो ।
जैसे बट का बीज ताहि में,
पत्र - फूल -फल छाया ।
काया मद्धे बीज बिराजे,
बीजा मद्धे काया ।
अग्नि- पवन- पानी- पिरथी-नभ,
ता-बिन मिलै नाहीं ।
+ + + + +
आपा -मद्धे आपै बोलै, आपै सिरजनहारा।"
आत्मा का प्राण निरूपण
कबीर ने आत्मा या जीव के लिए 'प्राण' शब्द का भी प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है-
"प्राण प्यण्ड को तजि चले,
मुआ कहे सब कोई । "
( ३ ) जीव और ब्रह्म का संबंध
कबीर अद्वैतवाद के समर्थक हैं। उनके अनुसार जीवन और ब्रह्म में कोई भेद नहीं है ।
" जल में कुंभ कुंभ में जल है,
बाहर भीतरि पानि ।
फूटा कुम्भ जल जल ही समाना,
यह तथ कह्यो ज्ञानी ।"
" जो ब्रह्म मण्डे सोई पिण्डे,
जो खोजे साई पावे ।"
वे जीव को ब्रह्म का अंश मानते हैं। उन्होंने स्पष्ट घोषित किया है -
"कहु कबीर यहु राम को अंश जस कागद
पर मिटै न मंसु । "
एक स्थल पर उन्होंने दोनों के संबंध को बिंदु और समुंद्र के दृष्टांत से भी स्पष्ट किया है-
" हेरत हेरत हे सखी......."
+ + + +
"आपहि बीज,वृच्छ अंकूरा ।
आप फूल फल छाया ।।
आपहि सूर ,किरन, परकासा ।
आप ब्रह्म जिव माया ।। "
कबीर को अद्वैतवादी सिद्ध करने के लिए
उपर्युक्त पंक्तियां बहुत सुंदर उदाहरण हैं।
विद्वानों ने कबीर को अद्वैतवादी ही कहा
है ।इस विषय में कहे हुए डॉ. पीतांबरदत्त
वडथ्वाल के निम्नलिखित विचार दृष्टव्य हैं-
" संत संप्रदाय के इन अद्वैती संतों ने इस सत्य को स्वयं अपने जीवन में अनुभूत कर दिया था। कबीर ने इस संबंध में अपने भाव बड़ी दृढ़ता और स्पष्टता के साथ व्यक्त किए हैं ।आत्मा और परमात्मा की एकता में उनका अटल विश्वास था। इन दोनों में इतना भी भेद नहीं कि हम उन्हें एक ही वस्तु के दो पक्ष कह सकें। पूर्ण ब्रह्म के दो पक्ष हो ही नहीं सकते। दोनों सर्वथा एक है।"
जीव और ब्रह्म का तादात्म्य
जीव और ब्रह्म का तादात्म्य तीन प्रकार का हो सकता है-
१. भावात्मक २. ज्ञानात्मक ३. यौगिक ४. मोक्ष विचार
कबीर ने मुक्ति के पश्चात आत्मा को जन्म-मरण के बंधनों से मुक्त माना है। उन्होंने कई स्थलों पर मोक्ष का वर्णन कैवल्यभाव से किया है। कार्य गुणों का कारण गुणों में लीन होने का संकेत उन्होंने एक स्थल पर स्पष्ट रूप से किया है-
" कहे कबीर मन मनहि मिलावा ।"
कबीर का मोक्ष निरूपण वेदांत पर आधारित है। कबीर ने मुक्ति की अवस्था को ब्रह्म- कारता की अवस्था माना है। उनका मत यह है कि जीव ब्रह्म स्वरूप होकर उसीके समान सत्,चित् और आनंद रूप हो जाता है।एक स्थल पर वे कहते हैं -
" अमर भए सुख सागर पावा ।"
( ५ ) माया का निरूपण
'माया' शब्द का प्रयोग वेदों में वेश बदलने के अर्थ में ,उपनिषदों में नाम-रूप के अर्थ में हुआ है। शंकराचार्य ने माया को भ्रम रूप माना है। कबीर ने भी माया को भ्रम रूप माना है। उसके लिए पत्थर में भगवान की कल्पना करने के भ्रम का उदाहरण उन्होंने दिया है-
" पाहन केरा पूतला, करि पूजै करतार।
इही भरोसे जे रहे, तो बूडै कालीधार।।"
कबीर ने माया को ' भावमयभ्रम ' माना है। यह भावरूप भ्रान्ति कबीर के मायावाद में वेदांत का स्पष्ट प्रभाव है। वेदांत ने माया को अनिर्वचनीयत्तावाद के अंतर्गत रखा है। कबीर ने इसी विचारधारा के अंतर्गत माया को सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में देखा है-
"मीठी मीठी माया तजी नहिं जाई।
अग्यानी पुरुष को भोलि-भोलि खाई।।
निर्गुण सगुण नारी संसार पियारी ।
लखमणि त्यागी गोरख निवारी ।।"
माया के कारण ही जीव और ब्रह्म में भेद है। जिस प्रकार मकड़ी अपने जाल में स्वयं बंदी बन जाती है, उसी प्रकार माया ने भी ब्रह्म से ही जन्म पाकर उसे बंदी बना लिया है ।आचार्य शंकराचार्य ने आत्मा और परमात्मा को एक ही सत्ता बताया है, परंतु माया के कारण भेद जान पड़ता है। माया का आवरण दूर होने पर जीव और ब्रह्म एक हो जाते हैं । "जल में कुंभ कुंभ में जल...." सर्वत्र माया का ही साम्राज्य है-
" केसव के कमलालै बैठी,
सिव के भवन भवानी ।
जोगी के जोगिन व्है बैठी,
राजा के घर रानी।।
भक्तन के भक्तिन व्है बैठी,
ब्रह्मा के ब्रह्मानी ।
कहे कबीर सुनो हो संतो,
यह सब अकथ कहानी ।। "
माया का क्षेत्र व्यापक है, चतुर्दिक है। माया के फंदे में पड़ा हुआ जीव ब्रह्म को प्राप्त नहीं कर सकता । वह सत,रज,तम की रस्सियों का फांसा लेकर , मीठे वचन बोलकर ,सबको ठगती है । कबीर ने इसीलिए माया को महाठगिनी कहा है क्योंकि और ठग तो एक दो या सौ दो सौ मनुष्य को ठग सकते हैं ,परंतु माया ने सारे संसार को छल से अपने वश में कर लिया है-
"माया महा ठगिनि हम जानी।
तिरगुन फांस लिए कर डोलै बोलै मधुरी बानी ।।"
कबीर के माया संबंधी विचार शास्त्र सम्मत हैं । शास्त्रों में माया को त्रिगुणात्मिका और प्रसव धर्मिणी कहा गया है। माया त्रिगुणा- त्मिका है। ऐसा कबीर ने इस पंक्ति में कहा है-
" रजगुण तमगुण सतगुण कहिए यह सब तेरी माया ।"
माया को कबीर ने प्रसव धर्मिणी भी कहा है-
" एक विमानी रचा विमान,
सब आपन सो आपे जान ।
सत रज तम ये कीन्हीं माया ,
वारी सानि विस्तार उपाय ।।"
शंकराचार्य ने माया को परिवर्तनशील कहां है । कबीर ने भी माया को परिवर्तनशील कहा है-
" कबीर माया डोलनी, पवन बहै हिवधार।"
कबीर ने माया को ' पापिणी ', ' मोहिनी ' ' 'डाकणी ' ,' सांपिनी ', ' विश्वास घातिनी' आदि रूपों में संबोधित किया है-
१. कबीर माया पापड़ी, हरी सूं करै हराम।
२. कबीर माया डाकणी, सब किस ही कौ खाइ ।
दांत उपाणौं पापड़ी,जे संतों नेडी जाइ।।"
३. माया जग सांपिन भई ,विषलै बैठी पास।
सब जग फंदे फंदिया,चले कबीर उदास।।
४. एक डायन मेरे मन में बसे,
नित उठ मेरे मन को डसे ।
तो डायन के लर का पांच रे "
कबीर की माया बड़ी मोहिनी एवं मधुर है-
"कबीर माया मोहनी, जैसी मीठी खांड। सतगुरु की कृपा भई,नहीं तो करती भाड।।"
माया के भेद-
इस संबंध में कबीर का स्पष्ट सिद्धांत नहीं है। एक स्थान पर उन्होंने मोटी और झीनी दो भेद और दूसरे स्थान पर तुलसी की भांति विद्या और अविद्या दो भेद किये हैं।
(६) कबीर का जगत वर्णन
जगत सत्ता के संबंध में दार्शनिकों के विविध मत प्रचलित हैं।
तुलसीदास के शब्दों में-
"कोउ कह सत्य झूठ कह कोउ,
युगल प्रवल कर माने "
कबीर भी सृष्टि को झूठ कहनेवालों की श्रेणी में आते हैं । उन्होंने संसार को सर्वत्र नश्वर, क्षणभंगुर ,मिथ्या एवं स्वप्नवत् ही कहा है-
" समझ विचार जीव जब देखा।
यहु संसार सुपिन कर लेखा ।।"
कबीर की विचारधारा पर हमें पूर्ण रूप से शंकर के मायावाद का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। बौद्धों के मायावाद का नहीं। बौद्धों ने जहां संसार को एकदम स्वप्नवत् कहा है, वहां शंकराचार्य ने उसे केवल आत्मा की तुलना में स्वप्नवत कहा है ।
( १ ) कबीर पूर्ण आस्तिक थे। वे सब कुछ ब्रह्ममय ही मानते थे । वे " सर्व खलविदम्ब्रह्म" के पूर्ण अनुयायी थे। वे स्पष्ट घोषित करते हैं-
" जो तुम देखो सो पट नाहीं।
यह पद अगम अगोचर माहीं।।"
( २ ) कबीर ने जगत को सेमर के फूल के समान कहा है-
" यों ऐसा संसार है, जैसा सेंबल फूल।"
जगत क्षणभंगुर है, नश्वर है, मिथ्या है, ये तत्व कबीर ने शंकराचार्य से ग्रहण किए थे-
१. माटी कहे कुम्हार को.......तोइ ।।
२. पानी केरा बुदबुदा अस मानस की जात।
देखत ही छिप जायगा,ज्यों तारा परभात।।
३. रहना नहिं देश बिराना है
यह संसार कागद की पुड़िया,
पानी पड़े घुल जाना है ।। "
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