समन्वयवाद | Tulsidas ka Samanyavad
समन्वयवाद भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। इस देश में समय-समय पर कितनी ही संस्कृतियों का आगमन और आविर्भाव हुआ, परंतु वे घुल-मिलकर एक हो गयीं। महाकवि तुलसी ऐसे समय में अवतरित हुए, जब धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक सभी क्षेत्रों में एक विचित्र-सी अव्यवस्था फैली हुई थी। सभी ओर उथल-पुथल और हलचल व्याप रही थी। रूढ़ियों ,अंधविश्वास,बाह्याचारों आदि का बोलबाला था । कहने का तात्पर्य यही है कि संगठन और समन्वय के स्थान पर विघटनकारी प्रवृत्तियों को पूरा प्रोत्सा- हन मिल रहा था ।
तुलसी ने जीवन के इस विराट किंतु अत्यंत सूक्ष्म सत्य को अनुभव किया है। तुलसी के काव्य-लोक में विशेषत: 'रामचरितमानस' में हमें कवि की 'समन्वय की विराट-चेष्टा' के दर्शन उपलब्ध होते हैं । कहना न होगा कि इसी कारण तुलसी को बुद्ध के बाद भारत का दूसरा लोकनायक माना गया है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-
"लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय समाज में नाना भांति की परस्पर विरोधीनी संस्कृतियां, साधनाएं ,विचार और धर्म सिद्धांत प्रचलित रहते हैं । बुद्धदेव समन्वयकारी थे, गीता में समन्वय की चेष्टा की गई है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे। "
तुलसी की समन्वयवादी विचारधारा
बुद्ध भगवान ने किसी नवीन धर्म का प्रतिपादन नहीं किया था । उनकी महिमा की आधार भूमि ' मध्यमा प्रतिपदा ' समन्वय का ही मार्ग है। महात्मा बुध के समान तुलसी भी लोक रक्षक धर्म का पालन करने वाले थे। 'रामचरितमानस' के रूप में तुलसी में समन्वय का आदर्श रूप प्रस्तुत किया। संक्षेप में तुलसी के समन्वयवादी विचार इस प्रकार हैं -
( १ ) निर्गुण और सगुण का समन्वय
तुलसीदास के युग में ब्रह्म को लेकर विभिन्न मतभेद थे । निर्गुण और सगुण का विवाद दो क्षेत्रों में था - दर्शनशास्त्र के क्षेत्र में और भक्ति के क्षेत्र में । कोई उसके निर्गुण रूप का निरूपण करता था तो कोई सगुण रूप की वंदना करता था। तुलसी को भगवान के दोनों रूपों में अटूट विश्वास था। उन्होंने कट्टर सगुणमार्गी होते हुए भी भगवान के निर्गुण रूप में भी अपना विश्वास रखा। उनके अनुसार निर्गुण ब्रह्म ही सगुण रूप धारण कर विपत्तियों का नाश करता है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों को ही ब्रह्म के दो रूप माने हैं-
" अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा ।
अकथ अगाध अनादि अनुपा ।।"
उनके विचार से ब्रह्म के निर्गुण और सगुण रूप में कोई भेद नहीं। अपने तर्कपूर्ण कथनों द्वारा वे स्पष्ट करते हैं कि
"अगुनहि सगुनहि नहिं कछु भेदा ।
गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा ।।
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
जो गुन रहित सगुन सोई कैसें।
जलु हिम उपल बिलख नहिं जैसैं ।।"
वस्तुत:राम एक है। वे ही निर्गुण और सगुण, निराकार और साकार ,अव्यक्त और व्यक्त, गुणातीत और गुणाश्रय है। निर्गुण राम ही भक्तों के प्रेम-वश सगुण रूप में प्रकट होते हैं ।
( २ ) शैवों और वैष्णवों का समन्वय
निर्गुण तथा सगुण की भांति ही तुलसी के युग में शिव तथा विष्णु को अपना आराध्य देव मानकर शैवों और वैष्णवों के दो वर्ग बन गए थे। दोनों के बीच मतभेद बढ़ते गये , किंतु तुलसी ने 'रामचरितमानस' में शैवों तथा वैष्णवों के बीच की इस गहरी खाई को पाटने का प्रयास किया । यद्यपि वे वैष्णव भक्त थे, परंतु 'रामचरितमानस 'के प्रारंभ में उन्होंने शिवजी तथा पार्वती की वंदना की है-
" भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।"
तुलसीदास जी ने 'रामचरितमानस' में स्थान- स्थान पर शिव और राम के संबंध को स्पष्ट किया। राम शंकर को स्वयं बड़ा महत्व देते हैं-
" सिवद्रोही मम दास कहावा ।
सो नर सपनेहु मोहि न भावा ।
+ + + +
संकर प्रिय मम द्रोही, सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि,घोर नरक महुं वास ।।"
स्वयं राम शंकर की पूजा करते हैं और शंकर राम के उपासक हैं।तुलसीदास ने शंकर की वंदना करते हुए लिखा है-
" सेवक स्वामि सखा सियपी के।"
इस प्रकार तुलसी ने शिव के मुख से राम की स्तुति तथा राम के मुंह से शिव का महत्व निरूपण कर शैवों और वैष्णवों के मध्य अंतर मिटाकर समन्वय स्थापित करने की चेष्टा की है। इसके अतिरिक्त सीता के वियोग में राम को और राम के वियोग में सीता को क्रमश: शिव और पार्वती ढ़ाढस बंधाते हैं । शिवधनु के भंग के समय पहले राम उसे नमन करते हैं तथा लंका में जाने से पूर्व वे शिवमूर्ति की स्थापना करते हैं । शंकर राम के सखा भी हैं, स्वामी भी और सेवक भी। इस प्रकार शिव और राम में कोई विरोधभाव नहीं, तो उनके उपासकों में विरोध की क्या आवश्यकता है ? कवि ने राम के मुंह से शिव के प्रति अपनी सहज आत्मीयता को इस प्रकार स्पष्ट करवाया है-
" संकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही पर मम दास ।
ते नर करहिं कलप भरि,घोर नरक महुं बास ।"
इसी प्रकार इनके अन्य ग्रंथों में शिव का बड़ा महत्व स्थापित किया गया है। यत्र -तत्र गंगा गौरी की स्तुति से भी शिव की ही स्तुति व्यंजित होती है ।
निम्न उद्धरण में राम और शिव की स्तुति प्राय: समान शब्दों में ही की गई है-
" तुम्ह समरूप ब्रह्म अविनासी ।
सदा एक रस सहज उदासी ।।
अकल अगुन अज अनध अनामय।
अजित अमोघशक्ति करुनामय ।।"
'रामचरितमानस' में तुलसी ने 'राम -स्तोत्र' के साथ ही 'शिव-स्तोत्र' की रचना भी की है। और तत्कालीन शैव-वैष्णव विरोध को मिटाने का सफल प्रयास किया है।
( ३ ) अद्वैतवाद तथा विशिष्टाद्वैतवाद का समन्वय
दर्शन के क्षेत्र भी तुलसी ने समन्वय की नीति अपनाई है। तुलसी से पूर्व सभी आचार्यो ने शंकर के अद्वैतवाद का खंडन करके अपने-अपने मत की स्थापना की थी। रामानुजाचार्य ने शंकर के अद्वैतवाद का विरोध करके अपने विशिष्टाद्वैतवाद का प्रचार किया,मध्वाचार्य ने द्वैतवाद का प्रचार किया,विष्णुस्वामी ने शुद्धाद्वैत का प्रतिपादन किया और निम्बार्काचार्य ने द्वैताद्वैतवाद प्रचार किया था। यद्यपि गोस्वामी जी रामानुजाचार्य के मतानुयायी होने के कारण विशिष्टाद्वैतवादी थे और इसी कारण उन्होंने जीव को ब्रह्म का अंश बतलाया-
" ईश्वर अंस जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ।।
सो माया बस भएउ गोसाई ।
बंध्यो कीर मर्कट की नाई ।।
'रामचरितमानस 'के उत्तराखंड में उन्होंने द्वैत-अद्वैत का समन्वय करते हुए इस प्रकार कहा है -
"ज्ञान अखंड एक सीताबर।
मायाबस्य जीव सचराचर।।
जौं सब के रह ज्ञान एकरस ।
ईश्वर जीवहि भेद कहहु कस ।।
मायाबस्य जीव अभिमानी ।
ईसबस्य माया गुणखानी ।।
परबस जीव स्वबस भगवन्ता।
जीवन अनेक एक श्रीकंता ।।"
द्वैत और अद्वैत धारणा का समन्वय ही गोस्वामीजी के अवतारवाद का आधार है।
( ४ ) ज्ञान और भक्ति का समन्वय
ज्ञान और भक्ति का समन्वय उस युग के लिए एक आवश्यक बात थी । तुलसी का ज्ञान और भक्ति का समन्वय स्वयं उनके द्वारा प्रतिपादित भक्ति का स्वरूप है ।अर्थात् भक्ति और ज्ञान का जो स्वरूप उनके समय में प्रचलित था उसका समन्वय करके उन्होंने अपनी भक्ति का स्वरूप खड़ा किया था जो इस प्रकार है -
" श्रुति सम्मत हरि भक्ति पथ संयुत विरति विवेक ।"
इस हरिभक्ति में वैराग्य और ज्ञान दोनों का ही समावेश है।इस प्रकार तुलसी का भक्ति- मार्ग ज्ञानयुक्त भक्ति मार्ग है और जहां भी वे भक्ति की सर्वोपरि स्थापना करते हैं वहां इसी प्रकार की "बिरति बिबेक युत "भक्ति की स्थापना है ।उन्होंने स्पष्ट कहा है-
" धर्म तें बिरति जोग तें ज्ञाना।
ज्ञान मोक्षप्रद बेद बखाना ।।
जा ते बेगि द्रवउं मैं भाई ।
सो मम भगति भगत सुखदाई।।"
तुलसी ने ज्ञान को जिस प्रकार महत्व दिया,ठीक उसी प्रकार उन्होंने भक्ति की पावन त्रिवेणी भी प्रवाहित करने का सफल प्रयास किया। उन्होंने कुछ स्थलों पर "ज्ञान के पंथ कृपान कै धारा" कहकर ज्ञान की कठिनता का उल्लेख भी किया है। तुलसी ने ज्ञान और भक्ति के स्वरूपों को अलग-अलग समझाने के उपरांत दोनों की अभिन्नता बतलाते हुए, उनमें समन्वय स्थापित करने की चेष्टा की है।
" भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा ।
उभय हरहिं भब संभव खेदा ।। "
यहां स्पष्ट रूप से कवि ने इस बात को कह दिया है कि दोनों में वस्तुत: कोई भेद नहीं है, दोनों ही सांसारिकता की कठिनाइयों को मिटाने वाले दो मार्ग हैं ।
तुलसी ने अपने इस समन्वय के द्वारा तत्कालीन प्रचलित एकांगी भक्तिमार्ग की अपेक्षा अधिक सामाजिक कल्याण कार्य किया ,क्योंकि उस समय विशेष रूप से कृष्णभक्ति के अंतर्गत अनेक प्रकार के असामाजिक क्रिया -कलाप भी चालू हो गये थे । इसीलिए उनका ज्ञान और भक्ति का समन्वय समाज का उद्धारक है ।
( ५ ) नर और नारायण का समन्वय
तुलसी के पूर्व राम का का महत्व दशरथ के पुत्र के रूप में ही था। उन्हें कोई भी परात्पर ब्रह्म, अज तथा अविनाशी नहीं मानता था ।
परंतु तुलसी ने "भये प्रकट कृपाला दीन दयाला कौसल्या हितकारी" कहकर उन्हीं ब्रह्म को कौसल्या पुत्र या दशरथ सुत के रूप में अवतरित दिखाकर अपने इष्टदेव को साधारण मानव या नर से ऊपर उठाते हुए नारायण के ब्रह्म- पद पर आसीन कर दिया है-
" बिनु पद चलै सुनै बिनु काना ।
कर बिनु करम करै विधि नाना ।।"
इस प्रकार तुलसी ने राम के रूप में नर और नारायण का सुंदर समन्वय स्थापित किया है।
( ६ ) शील, शक्ति और सौंदर्य का समन्वय
शील, शक्ति और सौंदर्य- मनुष्य जीवन की ऐसी तीन विभूतियां हैं, जिनसे जीवन समुचित रूप धारण कर लेता है। शील के बिना जीवन नीरस, घृणास्पद और कटु हो जाता है। शक्ति के बिना वह दुर्बल, अशक्त और पंगु बन जाता है तथा सौंदर्य के बिना वह अनाकर्षक हो जाता है। भगवान राम के जीवन में ये तीन विभूतियां अक्षुण्ण रूप से पाई जाती हैं। राम के व्यक्तित्व के चित्रण में यह समन्वय बड़ा महत्वपूर्ण है। इन्हीं तीन विभूतियों के आधार पर राम एक मर्यादा वादी लोकनायक बनते हैं। राम की शक्ति और शील के चरम रूप का वर्णन हमें 'रामचरितमानस' तथा अन्य ग्रंथों में बराबर देखने को मिलता है। राम-वनगमन के समय कोल किरातों से संभाषण करते हुए उनके अद्भुत शील का परिचय मिलता है-
" सुनि सीतापति सील सुभाउ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउ।।"
शक्ति के तो राम साकार अवतार थे। जिनके स्पर्श से ही शंकर का गांडीव धनुष टूट गया जिन्होंने महाबली राक्षसों का बिना सेना के वध किया ,उसकी शक्ति स्वत: स्पष्ट है। राम की अंतिम विभूति थी उनकी अद्वितीय नैसर्गिक सुंदरता । राम का सौंदर्य करोड़ों कामदेवों को लजानेवाला था। इस शीलवान के सौंदर्य की एक झलक देखिए-
" दुलह राम सिय दुलही री !
रूप- रासि बिरची बिरचि मनो,
सिला लवनि रति -काम लही री ।"
इस प्रकार इन तीनों के समन्वय द्वारा राम के व्यक्तित्व का चरम विकास स्पष्ट करना तुलसी का ध्येय है।
तुलसी के विषय में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन है कि- "तुलसी के 'मानस' में जो शील- शक्ति- सौंदर्यमयी स्वच्छ धारा निकली, उसने जीवन की प्रत्येक स्थिति के भीतर पहुंचकर भगवान के स्वरूप को प्रतिबिंबित किया। रामचरित की इसी जीवन व्यापकता ने उनकी वाणी को राजा- रंक, धनी- दरिद्र, सबके हृदय और कंठ में चिरकाल के लिए सतत रूप से बसा लिया। गोस्वामीजी की वाणी में जो स्पर्श करने की शक्ति है, वह अन्यत्र दुर्लभ है ।"
( ७ ) पारिवारिक समन्वय
सामाजिक क्षेत्र में भी तुलसी की समन्वय भावना ही महत्वपूर्ण दिखलाई देती है। इसके अंतर्गत हम शास्त्र और लोक का समन्वय, आदर्श और यथार्थ का समन्वय, सत्य और प्रेम का समन्वय जैसी बातों को देख सकते हैं ।
तुलसी आर्य संस्कृति के परम भक्त थे। उसकी रक्षा उनके जीवन का सर्वोच्च ध्येय था। रामचरित के द्वारा उन्होंने उसका आदर्श स्वरूप खड़ा कर दिया है, जिसके सहारे हिंदू समाज आज भी आर्य बना हुआ है। मनुष्य -मनुष्य का ऐसा कोई संबंध नहीं, जिसका आदर्श तुलसी में स्थापित न किया हो। व्यक्ति, परिवार, समाज , राज्य- तुलसी ने सब का सामंजस्य-विधान हिंदू संस्कृति के अनुरूप किया है।
हिंदू सभ्यता की विशेषता उत्सर्ग की भावना है। व्यक्ति को परिवार, परिवार को समाज तथा समाज को राज्य के लिए उत्सर्ग करना पड़ता है- यही मानव धर्म है। तुलसी ने इस उत्सर्ग का आदर्श अपने काव्य में स्थापित किया है। तुलसी ने जो अयोध्या का राज परिवार चित्रित किया है उसमें हमें आदर्श से परिपूर्ण समन्वय के दर्शन होते है। पिता-पुत्र, माता पुत्र, पति-पत्नी, भाई-भाई, राजा- प्रजा, गुरु- शिष्य, स्वामी-सेवक के समन्वय की ओर कवि ने विभिन्न प्रसंगों में संकेत किया है।
तुलसी काव्य का प्रत्येक पात्र समाज के सम्मुख कोई न कोई आदर्श उपस्थित करता है। दशरथ सत्य प्रतिज्ञा का, राम पितृ भक्ति का, भरत भ्रातृ भक्ति का, लक्ष्मण अपूर्व सहनशक्ति का, कौशल्या प्रेममयी मां का तथा सीता पतिव्रता नारी का आदर्श उपस्थित करती है । इस रूप में पारिवारिक समन्वय के द्वारा तुलसी ने एक आदर्श परिवार की कल्पना की है ।
डॉ. श्यामसुंदरदास के शब्दों में-
" पारिवारिक संबंधों का मधुर आदर्श तथा उत्सर्ग की भावना संपूर्ण 'मानस' में बिखरी है।"
( ८ ) साहित्यिक क्षेत्र में समन्वय
कलापक्ष की दृष्टि से भी तुलसी ने साहि- त्यिक क्षेत्र में पर्याप्त समन्वय प्रस्तुत किया है। 'रामचरितमानस' में सभी प्रकार के रसों का सुंदर सम्मिश्रण इतना प्रभावशाली बन गया है जो युग युग तक अपने प्रभाव को बनाये रख सकेगा । मानस का अंगीरस भक्ति रस हैं।
शैली की दृष्टि से तुलसी ने महाकाव्य, मुक्तक काव्य तथा गीति काव्यों का सुंदर समन्वय किया है। भाषा के क्षेत्र में उन्होंने उस काल में प्रचलित ब्रज और अवधी दोनों ही भाषाओं में समन्वय स्थापित किया। तुलसी का 'रामचरितमानस' अवधी में लिखा गया है तो 'विनयपत्रिका' में ब्रज का परिपाक देखने को मिलता है। तुलसी ने अपने समय की सभी प्रचलित काव्य शैलियों को अपनाया है।
दोहा चौपाई पद्धति में 'रामचरितमानस 'का निर्माण किया, पद-पद्धति में 'विनयपत्रिका', 'गीतावली', 'कृष्णगीतावली' लिखी, दोहा-पद्धति में दोहावली, कवित्त- सवैया पद्धति में 'कवितावली' और बरवै-पद्धति में 'बरवै रामायण' की रचना की। निर्गुणी संत कवियों की साखी -पद्धति में 'वैराग्य संदीपपिनी', तथा 'रामाज्ञा प्रश्न' की रचना की।
लोक-गीतों की पद्धति हमें 'पार्वती मंगल', 'जानकी मंगल', 'रामललानहछू' में देखने को मिलती है इस प्रकार धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, और दार्शनिक सभी क्षेत्रों में तुलसी ने समन्वय किया है।
निष्कर्ष:
अतएव हम तुलसीदास जी के विविध क्षेत्रों में परिव्याप्त समन्वय का विश्लेषण करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इसके द्वारा उन्होंने तत्कालीन भारत में सांस्कृतिक एवं धार्मिक एकता स्थापित की। उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। लोक और शास्त्र का समन्वय, ग्राहस्थ्य और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का तथा भाषा और संस्कृति का समन्वय 'रामचरितमानस' में आदि से अंत तक मिलता है। इस रूप में तुलसी सच्चे अर्थों में लोकनायक के कर्तव्य का निर्वाह कर सकने में सफल हुए हैं इसमें कोई संदेह नहीं।
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