हिंदी साहित्य का इतिहास | Hindi Sahitya Ka Itihas
सामान्यत: 'इतिहात' शब्द से राजनितिक व सांस्कृतिक इतिहास का ही बोध होता है, किंतु वास्तविकता यह है कि सृष्टि की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसका इतिहास से सम्बंध न हो। अत: साहित्य भी इतिहास से असम्बद्ध नहीं है। साहित्य के इतिहास में हम प्राकृतिक घटनाओं व मानवीय क्रिया-कलापों के स्थान पर साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से करते हैं। वैसे देखा जाए तो साहित्यिक रचनाएं भी मानवीय क्रिया-कलापों से भिन्न नहीं है; अपितु वे विशेष वर्ग के मनुष्यों की विशिष्ट क्रियाओं की सूचक हैं। दूसरे शब्दों में,साहित्यिक रचनाएं साहित्यकारों की सर्जनात्मक क्रियाओं और प्रवृत्तियों की सूचक होती हैं। अतः उनके इतिहास को समझने के लिए उनके रचयिताओं तथा उनसे सम्बंधित स्थितियों, परिस्थितियों और परंपराओं को समझना भी आवश्यक है।हिंदी साहित्य के काल विभाजन का लक्ष्य अंततः इतिहास की विभिन्न परि- स्थितियों के संदर्भ में उसकी घटनाओं एवं प्रवृत्तियों के विकास क्रम को स्पष्ट करना होता है। हिंदी साहित्य के इतिहास को इसलिए विद्वानों ने विभिन्न काल खंडों में विभाजित करके ही अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है।
गार्सा द तॉसी
हिंदी साहित्य का इतिहास सर्वप्रथम लिखने का श्रेय एक फ्रेंच विद्वान गार्सा द तॉसी को दिया जाता है। इन्होंने फ्रेंच भाषा में ' इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी ' ग्रंथ लिखा , जिसमें अंग्रेजी वर्ण क्रमानुसार हिंदी और उर्दू भाषा के अनेक कवियों का परिचय दिया गया है। परंतु उन्होंने काल विभाजन और नामकरण की ओर ध्यान नहीं दिया था।
शिवसिंह सेंगर
तॉसी की परंपरा को आगे बढ़ाने का श्रेय शिवसिंह सेंगर को है। इनका महत्वपूर्ण ग्रंथ ' शिवसिंह सरोज 'है। इसमें लगभग एक सहस्र भाषा - कवियों का जीवन चरित उनकी कविताओं के उदाहरण सहित प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, किंतु काल विभाजन का इसमें कोई संकेत नहीं है।
काल विभाजन एवं नामकरण | Kaal Vibhajan & Namkaran
जॉज ग्रियर्सन का काल विभाजन
हिंदी साहित्य का काल विभाजन करने का सर्वप्रथम प्रयास जॉर्ज ग्रियर्सन ने किया। इन्होंने अपनी पुस्तक 'द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिट्रेचर ऑफ हिंदुस्तान ' में 11 अध्यायों में हिंदी साहित्य का काल विभाजन किया है। साथ ही इन्होंने कवियों और लेखकों की प्रवृत्तियों को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है।
1. चारण काल(७०० ई.से१३००ई.तक)
2.पन्द्रहवीं शती का धार्मिक पुनजागरण
3. जायसी की प्रेम कविता
4. ब्रज का कृष्ण संप्रदाय (१५००-१६०० ई.)
5. मुगल दरबार
6. तुलसीदास
7. रीतिकाव्य (१५८०-१६९२ ई.)
8. तुलसी के अन्य परवर्ती (१६००-१७०० ई.)
9. अट्ठारहवीं शताब्दी
10.कम्पनी के शासन में हिंदुस्तान (१८००-१८५७ ई.)
11. महारानी विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान एवं विविध
डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन के विभाजन में असंगतियां, न्यूनता एवं त्रुटियां होते हुए भी प्रथम प्रयास होने के कारण इसका अपना विशेष महत्व है।
मिश्र बंधुओं का काल विभाजन एवं नामकरण मिश्र बंधुओं ने ' मिश्रबंधु- विनोद ' में काल विभाजन का नूतन प्रयास किया है जो ग्रियर्सन के प्रयास से प्रौढ़ एवं अधिक विकसित है। मिश्र बंधु के साहित्य इतिहास को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने बड़ा भारी कवि वृत्त संग्रह कहा है। इनका विभाजन इस प्रकार है-
1. आरम्भिक काल
(क) पूर्वारम्भिक काल (७०० वि.से १३४३ वि. तक)
(ख) उत्तरारम्भिक काल (१३४४ वि.से १४४४ वि. तक)
2. माध्यमिक काल
(क) पूर्व माध्यमिक काल (१४४५ वि.से १५६० वि. तक)
(ख) प्रौढ़ माध्यमिक काल (१५६१ वि. से १६८० वि. तक)
3. अलंकृत काल
(क) पूर्व अलंकृत काल (१६८१ वि.से १७९० वि. तक)
(ख) उत्तर अलंकृत काल (१७९१ वि. से १८८९ वि. तक)
4. परिवर्तन काल (१८९० वि. से १९२५ तक)
5. वर्तमान काल (१९२६ वि. से अब तक)
इतिहास-लेखन की पूर्व परंपरा को आगे बढ़ाने में इसका महत्वपूर्ण योगदान है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने स्वयं स्वीकार किया है -
" कवियों के परिचयात्मक विवरण मैंने प्राय: 'मिश्रबंधु- विनोद' से ही लिए है।" परवर्ती इतिहासकारों के लिए भी यह आधार ग्रंथ रहा है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का काल विभाजन एवं नामकरण
हिंदी -साहित्य इतिहास की परंपरा में सर्वोच्च स्थान आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा रचित 'हिंदी साहित्य का इतिहास'( १९२९ ) को प्राप्त है । जो मूलत: नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ' हिंदी शब्द सागर ' की भूमिका के रूप में लिखा गया था तथा जिसे आगे परिवर्द्धित एवं विस्तृत करके स्वतंत्र पुस्तक का रूप दे दिया गया। इसके आरंभ में ही आचार्य शुक्ल ने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए उद्- घोषित bकिया है-
" प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियो की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना है ' साहित्य का इतिहास ' कहलाता है ।जनता की चित्तवृत्ति बहुत कुछ राजनीतिक, सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थिति के अनुसार होती है।"
उन्होंने युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में साहित्यिक प्रवृत्तियों के विकास की बात कही, वह अत्यंत महत्वपूर्ण है। उन्होंने साहित्य इतिहास को साहित्यालोचना से पृथक रूप में ग्रहण करते हुए विकास- वादी और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय दिया। उन्होंने हिंदी साहित्य के ९०० वर्षों के इतिहास को चार कालों में विभक्तकर नया नामकरण दिया, जो इस प्रकार है।
1. वीरगाथा काल (आदिकाल)
(वि.सं. १०५० से १३७५ तक )
2. भक्तिकाल ( पूर्व मध्यकाल )
( वि. सं. १३७५ से १७०० तक )
3. रीतिकाल ( उत्तर मध्यकाल )
( वि. सं. १७०० से १९०० तक )
4. गद्यकाल ( आधुनिक काल )
( वि.सं. १९०० से अब तक )
आचार्य शुक्ल के इतिहास की एक अन्य विशेषता है- पूरे भक्तिकाल को चार भागों या शाखाओं में बांटकर उसे शुद्ध दार्शनिक एवं धार्मिक आधार पर प्रतिष्ठित कर देना । उन्होंने भक्तिकाल के समस्त साहित्य को पहले निर्गुण- धारा और सगुण -धारा में और फिर प्रत्येक को दो- दो शाखाओं- ज्ञानाश्रयी शाखा एवं प्रेमाश्रयी शाखा तथा राम- भक्ति शाखा एवं कृष्णभक्ति शाखा - में विभक्त करके न केवल साहित्यिक आलोचकों के लिए, अपितु दार्शनिक तथा धार्मिक दृष्टि से साहित्यानुसंधान करनेवालों के लिए भी एक अत्यंत सरल एवं सीधा मार्ग तैयार कर दिया।
भक्तिकाल की चार शाखाएं
निर्गुण साहित्य-
(क) ज्ञानमार्गी शाखा
(ख) प्रेममार्गी शाखा
सगुण साहित्य-
(ग) रामभक्ति शाखा
(घ) कृष्णभक्ति शाखा
आधुनिक काल को शुक्ल जी ने तीन चरणों में विभक्त किया है, जो इस प्रकार है-
1. प्रथम उत्थान
2. द्वितीय उत्थान
3. तृतीय उत्थान
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का काल विभाजन और नामकरण
आचार्य शुक्ल के इतिहास- लेखन के लगभग एक शताब्दी बाद आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी इस क्षेत्र में अवतरित हुए। उनकी 'हिंदी साहित्य की भूमिका ' क्रम और पद्धति की दृष्टि से इतिहास के रूप में प्रस्तुत नहीं है, किंतु उसमें प्रस्तुत विभिन्न स्वतंत्र लेखों में कुछ ऐसे तथ्यों और निष्कर्षों का प्रतिपादन किया गया है जो हिंदी- साहित्य के इतिहास लेखन के लिए नयी दृष्टि, नयी सामग्री और नयी व्याख्या प्रदान करते हैं।आचार्य हजारी- प्रसाद द्विवेदी ने अपने साहित्य इतिहास के नामकरण व काल विभाजन का आधार संवत् के स्थान पर ईसवी प्रयोग किया है। इनका काल विभाजन इस प्रकार है-
1. आदिकाल
(सन् १००० से १४०० ई. तक )
2. भक्तिकाल
( सन् १४०० ई. से १७०० ई.तक)
3. रीतिकाल
( सन् १७०० ई. से १९०० ई. तक )
4. आधुनिक काल
( सन् १९०० से अब तक )
डॉ. रामकुमार वर्मा का काल विभाजन एवं नामकरण
डॉ. रामकुमार वर्मा ने 'हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ' ग्रंथ की रचना की है । संपूर्ण ग्रंथ को 7 प्रकरणों में विभक्त किया है। इन्होंने सामान्यतः आचार्य रामचंद्र शुक्ल के ही वर्गीकरण का अनुसरण किया है। इन्होंने केवल 'वीरगाथा काल' के स्थान पर 'चारण- काल' एवं 'संधिकाल' नाम देकर अपना नयापन स्थापित किया है । अंतिम तीन काल विभाजन आचार्य शुक्ला जी के ही विभाजन के अनुरूप हैं। इनका काल विभाजन इस प्रकार है-
1. संधिकाल
(संवत् ७०० से १००० तक)
2. चारणकाल
(संवत् १००० से १३७५ तक )
3. भक्तिकाल
(संवत् १३७५ से १७०० तक )
4. रीतिकाल
(संवत् १७०० से १९०० तक)
5. आधुनिक काल
(संवत् १९०० से अब तक )
श्यामसुंदर दास का काल विभाजन एवं नामकरण
इस परंपरा में बाबू श्यामसुंदर दास द्वारा किया हुआ काल विभाजन भी उल्लेखनीय है, जो इस प्रकार है-
1. वीरगाथा युग
( संवत् १०५० से १४०० तक)
2. भक्तियुग
( संवत् १४०० से १६०० तक )
3. रीतियुग
( संवत् १६०० से १९०० तक )
4. नवीन विकास युग
( संवत् १९०० से अब तक )
डॉ. गणपति चंद्र गुप्त का काल विभाजन एवं नामकरण
डॉ. गणपति चंद्रगुप्त ने ' हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास' की रचना की है। गुप्तजी ने सांस्कृतिक परंपराओं तथा ब्राह्य परिस्थितियों के क्षेत्र में रचनाओं एवं काव्य परंपरा को सम्मिलित करते हुए निम्नलिखित रुप में काल विभाजन किया है।
1. प्रारंभिक काल या उन्मेष काल
(सन् ११८४ से १३५० तक)
(क) धार्मिक रास काव्य परंपरा (जैन कवियों के काव्य का उल्लेख)
(ख) संत काव्य (संत कवियों के काव्य का उल्लेख)
2. मध्यकाल या विकास काल
( सन् १३५० से १८५७ तक )
(क) पूर्व मध्यकाल या उत्कर्ष काल
( सन् १३५० से १५०० तक)
(ख) मध्यकाल या चरमोत्कर्ष काल
(सन् १५०० से १६०० तक )
(ग) उत्तर मध्यकाल या अपकर्ष काल
( सन् १६०० से १८५७ तक )
3. आधुनिक काल
( सन् १८५७ से अब तक )
आधुनिक काल के विभाजन में गुप्त जी ने परंपरा का ही पालन किया है -
(क) भारतेंदु युग
(सन् १८७५ ई . से १९०० ई. तक)
(ख) द्विवेदी युग
( सन् १९००ई. से १९२० ई. तक )
(ग) छायावाद युग
( सन् १९२० ई. से १९३७ ई. तक)
(घ) प्रगतिवादी युग
( सन् १९३७ ई. से १९४५ ई. तक)
(ङ) प्रयोगवाद युग
( सन् १९४५ ई. से १९६५ ई. तक)
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र का काल विभाजन एवं नामकरण
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने ' हिंदी साहित्य का अतीत ' ग्रंथ की रचना की है। इन्होंने रीतिकाल के नामकरण एवं अंतर्विभाजन के क्षेत्र में नवीन प्रयास करते हुए भी शेष बातों में परंपरा का ही निर्वाह किया है। इनका काल विभाजन इस प्रकार है-
1. आदिकाल
( सं. १००० से १४०० तक)
2. पूर्व मध्यकाल या भक्तिकाल
( सं. १४०० से १७०० तक )
3. श्रृंगार काल
(सं. १७०० से १९०० तक)
4. आधुनिक काल
(सं. १९०० से अब तक)
डॉ. रामखेलावन का काल विभाजन एवं नामकरण
1. संक्रमण काल
( १००० से १४०० ई. तक )
2. संयोजन काल
( १४०१ से १६०० ई. तक )
3. संवर्धन काल
( १६०१ से १८०० ई. तक )
4. संचयन काल
( १८०१ से १९०० ई. तक )
5. संबोधित काल
( १९०१ से १९४७ ई. तक )
6. संचरण काल
( १८४७ के आगे )
डॉ. नगेंद्र का काल विभाजन एवं नामकरण
इस परंपरा में डॉ. नगेंद्र का नाम भी उल्लेखनीय है। उन्होंने हिंदी साहित्य का काल विभाजन तथा नामकरण इस प्रकार किया है-
1. आदिकाल
( ७ वीं शती के मध्य से १४ वीं शती के मध्य तक )
2. भक्तिकाल
( १४ वीं शती के मध्य से १७ वीं शती के मध्य तक )
3. रीतिकाल
( १७ वीं शती के मध्य से १९ वीं शती के मध्य तक )
4. आधुनिक काल
( १९ वीं शती के मध्य से अब तक )
(क) पुनर्जागरण काल ( भारतेंदु काल)
( सं. १८७७ से १९०० ई तक)
( ख) जागरण -सुधार काल
( द्विवेदी काल )
( सं.१९०० से १९१८ ई.तक )
( ग) छायावाद काल
( सं.१९१८ से १९३८ ई. तक )
( घ) छायावादोत्तर काल
* प्रगति -प्रयोग काल
( सं. १९३८ से १९५३ ई. तक )
* नवलेखन काल
( सं.१९५३ ई. से अब तक )
रामस्वरूप चतुर्वेदी का काल विभाजन एवं नामकरण
1. वीरगाथा काल
( १००० से १३५० ई. तक )
2. भक्तिकाल
( १३५० से १६५० ई. तक )
3. रीतिकाल
( १६५० से १८५० ई. तक )
4.गद्यकाल
( १८५० ई. से आगे )
डॉ .मोहन अवस्थी का काल विभाग एवं नामकरण
डॉ. मोहन अवस्थी ने 'हिंदी साहित्य का अध्यापन इतिहास' में काल विभाजन एवं नामकरण इस प्रकार किया है।
1. आधार काल
( सन् ७०० से १४०० तक )
2. भक्ति काल
( सन् १४०० से १६०० तक )
3. रीतिकाल
( सन् १६०० से १८७५ तक )
4. विद्रोह काल
( सन् १८५७ से अब तक )
निष्कर्ष:
इस प्रकार हिंदी साहित्य इतिहास के काल विभाजन और नामकरण के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न मतों और प्रयासों के बाद निष्कर्ष यह निकलता है कि कोई नाम एकदम से पूर्ण और उपयुक्त नहीं है कुछ नामकरण तो सर्वथा भ्रामक हैं।
उपर्युक्त सभी विद्वानों के काल विभाजन में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का काल विभाजन ही सर्वसम्मत एवं उपर्युक्त माना गया है ।
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