आदिकाल का नामकरण | Adikal Ka Namkaran - Hindi Sahitya
हिंदी साहित्य के आदिकाल के नामकरण के विषय में विद्वानों के विभिन्न मत हैं। भाषा की अस्पष्टता एवं प्रवृत्ति की विविधता के कारण आदिकाल के नामकरण की समस्या विवादाग्रस्त है। अब प्रश्न यह उठता है कि आदिकाल को किस नाम से पुकारा जाएं?
जहां तक विभिन्न विद्वानों के मतों का प्रश्न है, वे उसे चारण काल( ग्रियर्सन), प्रारंभिक काल( मिश्र बंधु), वीरगाथा काल( आचार्य रामचंद्र शुक्ल), आदिकाल (डॉ .हजारी प्रसाद द्विवेदी), संधि काल एवं चारण काल( डॉ .रामकुमार वर्मा), वीर काल (विश्वनाथ-प्रसाद मिश्र), बीजवपन काल( महावीर- प्रसाद द्विवेदी), सिद्ध सामंत युग( राहुल सांकृत्यायन ) , वीरगाथा युग (डॉ. श्याम- सुंदरदास) आदि कई नामों से पुकारते रहे हैं।
जार्ज ग्रियर्सन का मत
काल विभाजन करके नामकरण करने वाले प्रथम इतिहासकार डॉ. ग्रियर्सन ही है। उन्होंने हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल को 'चारण काल 'नाम दिया है। पर इस नाम के पक्ष में वे कोई ठोस तर्क नहीं दे पाये हैं। इस काल का समय तो वे ६४३ ई . तक पीछे ले गए हैं, किन्तु उस समय की किसी चारण रचना या प्रवृत्ति का उल्लेख उन्होंने नहीं किया है । वस्तुतः इस प्रकार की रचनाएं १०००ई. तक मिलती ही नहीं। इसलिए जार्ज ग्रियर्सन द्वारा दिया गया नाम उचित नहीं है।
मिश्रबंधुओं का मत
मिश्रबंधुओं ने अपने ' मिश्रबंधु विनोद' में ६४३ ई. से १३८७ ई. तक के काल को 'प्रारंभिक काल 'नाम दिया, जो एक सामान्य नाम है; उसके पीछे किसी प्रवृत्ति आदि का आधार नहीं है। यह नाम भी विद्वानों को स्वीकार्य नहीं है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मत
मिश्रबंधुओं के इतिहास के पश्चात आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी साहित्य के इतिहास क्षितिज पर आते हैं। इनके आगमन से ही हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन का वास्तविक युग प्रारंभ होता है। इन्होंने हिंदी साहित्य के प्रथम काल को 'वीरगाथा काल' नाम दिया है। इस नामकरण का आधार स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं-
" आदिकाल की इस दीर्घ परंपरा के बीच प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता है-
धर्म, नीति ,श्रृंगार वीर सब प्रकार की रचनाएं दोहों में मिलती है । इस अनिर्दिष्ट लोक- प्रवृत्ति के उपरांत जब से मुसलमानों की चढ़ाईयों का आरंभ होता है तब से हम हिंदी साहित्य की प्रवृत्ति एक विशेष रूप में बंधती हुई पाते हैं। राज्यश्रित कवि अपने आश्रय- दाता राजाओं के पराक्रम -पूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन करते थे । यही प्रबंध परंपरा रासों के नाम से पायी जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने 'वीरगाथा काल' कहां है।"
इस युग में राज्याश्रित कवि अपने आश्रय- दाता राजा की वीरता का यशोगान तथा उन्हें युद्धों के लिए उकसाने का काम करते थे। इसलिए उन रचनाओं को राजकीय पुस्तका- लय में रखा जाता था । इस सुरक्षित साहित्य के आधार पर 'वीरगाथा काल' नाम ही संगत प्रतीत होता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने जिन १२ रचनाओं के आधार पर इस काल का नाम 'वीरगाथा काल ' किया है, वे इस प्रकार हैं-
1. विजयपाल रासो --- नल्हसिंह
2. बीसलदेव रासो --- नरपति नाल्ह
3. खुमान रासो --- दलपति विजय
4. पृथ्वीराज रासो --- चन्दबरदाई
5. हम्मीर रासो --- शाङ्गधर
6. जयचंद्र प्रकाश --- भट्ट केदार
7. कीर्ति लता --- विद्यापति
8. कीर्ति पताका --- विद्यापति
9. परमाल रासो ---- जगनिक
10. विद्यापति की पदावली-- विद्यापति
11. जयमयंक जस चंद्रिका-- मधुकर
12. खुसरो की पहेलियां ---अमीरखुसरो
शुक्ल जी के अनुसार खुसरो की पहेलियां, बीसलदेव रासो एवं विद्यापति की पदावली को छोड़कर सभी रचनाएं वीर-गाथात्मक
हैं।
निस्सन्देह शुक्ल जी ने जनता की चित्त- वृत्तियों के साथ कवि की मनोवृत्तियों के परिवर्तन को आधार बनाकर 'वीरगाथा काल' नाम दिया है ,जिसको तर्कसंगत कहा जा सकता है ;किंतु उसकी परिधि बहुत संकीर्ण हो जाती है। अत: रचनाओं की संख्या गिनाकर 'वीरगाथा काल' नाम सिद्ध नहीं किया जा सकता । शुक्ल जी ने यह तथ्य स्वयं भी स्वीकार किया है-
"इस काल की जो साहित्यिक सामग्री प्राप्त है, उसमें कुछ तो असंदिग्ध है और कुछ संदिग्ध । असंदिग्ध सामग्री जो कुछ प्राप्त है, उसकी भाषा अपभ्रंश अर्थात प्राकृतभाषा ( प्राकृत की रूढ़ियों से बहुत कुछ बद्ध ) हिंदी है।"
इससे स्पष्ट है कि वे स्वयं भी रासों ग्रंथों को संदिग्ध सामग्री मानते थे । उसी संदिग्ध सामग्री में प्राप्त चित्त-वृत्ति को आधार मानकर उन्होंने वीरगाथा काल नाम दिया, जिसे तर्कसंगत कैसे कहा जा सकता है?
डॉ रामकुमार वर्मा का मत
डॉ रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य के आरंभिक काल को सम्वत् ७५० से सम्वत् १३७५ मानते हुए इसे दो भागों में बांटा हैं-
संधिकाल एवं चारण काल । सम्वत् ७५० से सम्वत् १००० तक के काल को उन्होंने संधिकाल कहा है। इसमें उन्होंने जैन, सिद्ध और नाथ पंथियों के साहित्य को रखा है। संधिकाल के मूल में धार्मिक भावना है। युग दो युग धर्मो और दो भाषाओं का संधियुग है, अतः यह नाम कुछ यथार्थ प्रतीत होता है। सम्वत् १००० से सम्वत् १३७५ तक की रचनाओं को उन्होंने चारण काल में रखा है। चारण काल दोषपूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि इस काल के भीतर गिनाई गई चारणों की रचनाएं प्रामाणिक नहीं हैं तथा १८ वीं शताब्दी तक की रचनाओं को इस काल में सम्मिलित कर लिया गया है, जबकि इस काल की सीमा सम्वत् १३७५ तक मानी गई है।
डॉक्टर श्यामसुंदर दास का मत
डॉ. श्यामसुंदर दास ने शुक्ल जी के मत का समर्थन करते हुए अपने ग्रंथ 'हिंदी भाषा और इतिहास' में उनके काल विभाजन को मौलिकता के साथ स्वीकार किया है। डॉ. श्यामसुंदर दास ने ग्रंथ में विषय का वर्णन नहीं किया , परंतु प्रत्येक प्रवृति का आदि- काल से आधुनिक काल तक का विकास दिखलाया है। उन्होंने हिंदी साहित्य के प्रथम काल को 'वीरगाथा युग 'नाम दिया है।अत: यह नाम भी उचित नहीं है।
आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी का मत
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के प्रथम काल को ' बीजवपनकाल' कहा है । उनके अनुसार हिंदी साहित्य का बीज इस काल में बोया गया । अधिकांश विद्वान इस नाम को भी तर्कसंगत नहीं मानते क्योंकि इसमें पूर्ववर्ती साहित्य की सभी काव्य रूढ़ियों तथा परंपराओं का सफलतापूर्वक निर्वाह हुआ है तथा उसके साथ कुछ नवीन प्रवृत्तियों का जन्म भी हुआ है। साथ ही इस काल के साहित्यकारों ने उत्कृष्ट साहित्य की रचना की, जिसके आधार पर इस काल को 'बीजवपनकाल ' कहना उचित नहीं होगा।
राहुल सांकृत्यायन का मत
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने हिंदी साहित्य के प्रथम काल को 'सिद्ध सामंत युग' कहा है। प्रस्तुत नामकरण बहुत दूर तक तत्कालीन साहित्यिक प्रवृत्ति को स्पष्ट करता है। यह नाम केवल सिद्धों और सामंतों की ओर संकेत करता है । इस काल के साहित्य में सिद्धों द्वारा लिखा गया धार्मिक साहित्य ही प्रधान है। सामन्तकाल में 'सामन्त' शब्द से उस समय की राजनैतिक स्थिति का पता चलता है और साथ ही अधिकांश चारण जाति के कवियों की राजस्तुतिपरक रचनाओं के प्रेरणास्रोत का भी पता चलता है। लेकिन इस 'सिद्ध सामंत युग' में सभी धार्मिक और सांप्रदायिक तथा लौकिक रचनाएं नहीं आतीं।इस प्रकार ' सिद्ध सामंत- युग 'नाम भी तत्कालीन साहित्य के लिए उपयुक्त नहीं है। अत: यह नाम भी दोषपूर्ण है ।
आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र का मत
आचार्य विश्वनाथप्रसाद मिश्र द्वारा दिया गया ' वीर काल 'नाम केवल आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी के नाम का रूपांतरण है। यह नाम नवीनता से चौंकाता तो है, परंतु कोई तथ्य नहीं प्रस्तुत करता ।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के प्रथम काल को 'आदिकाल ' कहा है। इसे स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा है-
"वस्तुतः हिंदी का 'आदिकाल 'शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदिम भावापन्न, परंपरा -विनिर्मुक्त , काव्यरूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है ,यह ठीक नहीं है । यह काल बहुत अधिक परंपरा- प्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सजग -सचेत कवियों का काल है।यदि पाठक इस धारणा से सावधान रहें तो यह नाम बुरा नहीं है।"
द्विवेदी जी ने 'हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास 'में लिखा है कि कुछ आलोचकों को इस काल का नाम आदिकाल ही अधिक उपयुक्त जान पड़ता है । आदिकाल से साहित्य की आदिम प्रवृत्ति का बोध होता है। वह भाषा एवं संवेदना दोनों की आदिम अवस्था हो सकती है । द्विवेदी जी द्वारा दिए गए नाम आदिकाल को व्यापक स्वीकृति मिली है।
वास्तव में 'आदिकाल' ही ऐसा नाम है जिसे किसी न किसी रूप में सभी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है तथा जिससे हिंदी साहित्य के इतिहास की भाषा ,भाव ,विचारणा, शिल्प -भेद आदि से सम्बद्ध सभी गुत्थियां सुलझ जाती है। इस नाम से उस व्यापक पृष्ठ- भूमि का बोध होता है , जिस पर आगे का साहित्य खड़ा है। भाषा की दृष्टि से हम इस काल के साहित्य में हिंदी के आदि रूप का बोध पा सकते हैं, तो भाव की दृष्टि से इसमें भक्तिकाल से आधुनिक काल तक की सभी प्रमुख प्रवृत्तियों के आदिम बीच खोज सकते हैं। अतः 'आदिकाल ' ही सबसे अधिक उपयुक्त एवं व्यापक नाम है।
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