गोस्वामी तुलसीदास जी की दार्शनिक विचारधारा
तुलसी का दर्शन
तुलसी से पूर्व निम्नलिखित संप्रदाय प्रवर्तित थे।
( १ ) शंकराचार्य का अद्वैतवाद या मायावाद
( २ ) रामानुजाचार्य का विशिष्टाद्वैतवाद
( ३ ) माध्वाचार्य का ब्रह्म सम्प्रदाय ( द्वैतवाद )
( ४ ) निम्बार्काचर्या का द्वैताद्वैत
( ५ ) वल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैत अथवा पुष्टिसंप्रदाय
( ६ ) चैतन्य महाप्रभु का गौड़ीय संप्रदाय
उपर्युक्त दार्शनिक संप्रदायों में शंकराचार्य का अद्वैत सबसे अधिक प्राचीन और महत्वपूर्ण रहा।जिसमें "ब्रह्म सत्यम् जगत् मिथ्या "के सिद्धांत को प्रतिपादित किया गया।
शंकराचार्य का दर्शन ज्ञानवाद पर अवलंबित था। इसलिए सामान्य जनता में वह उतना लोकप्रिय नहीं हो सका जितना होना चाहिए था । शंकराचार्य ने भी अंत में "भज गोविंदम् भज गोविंदम्" कहा है। अर्थात् भगवान की भक्ति के पद पर आखिर में शंकराचार्य ही पहुंचे है। और आगे चलकर जितने भी दार्शनिक हुए उन्होंने क्रमश: भक्ति के द्वार खोल दिये है।
गोस्वामी तुलसीदास जिस समय 'रामचरित मानस ' और 'विनयपत्रिका' की रचना कर रहे थे उस समय ये सभी मत अपने-अपने स्तर पर प्रचलित थे। गोस्वामी तुलसीदास किस दार्शनिक मत के प्रवर्तक - अनुयायी थे इस संबंध में बड़ा मतभेद है। इस संबंध में हमें 'रामचरितमानस 'और' विनयपत्रिका' के पदों को गहराई से देखना होगा ।
तुलसी के दार्शनिक दृष्टिकोण
तुलसी ने अपने काव्य में भक्ति के स्वरूप को व्याख्यायित करने के लिए ब्रह्म ,जीव, जगत, सृष्टि और माया के संबंध में भी संकेत किये है। इन संकेतों को स्पष्ट करना ही तुलसी के दार्शनिक दृष्टिकोण को स्पष्ट करना है।
( १ ) ब्रह्म ( तुलसी के राम )
तुलसी के राम दशरथ सुत होकर भी 'परब्रह्म' है । इस ब्रह्म के लिए उन्होंने उन सभी विशेषताओं का प्रयोग किया है जो अद्वैतवाद के ब्रह्म के लिए प्रयुक्त हैं। ये राम ' मूल तत्व ' या ' परम तत्व ' हैं।वे सच्चिदा- नंदस्वरूप हैं।उपनिषद्कारों और वेदांतियोंने जिसे 'ब्रह्म 'कहा है ,शैवों ने जिसे 'परमशिव' माना है ,वैष्णवों की दृष्टि में जो 'परम विष्णु' है ,उसी परमार्थतत्व को तुलसी ' राम 'कहते है। इसीलिए उन्होंने राम के लिए ब्रह्म, विष्णु और शिव शब्दों का प्रयोग भी किया है। राम सृष्टि के कर्ता, पालक और संहारक हैं।
पौराणिक परंपरा के सृष्टिकर्ता ब्रह्मा, विश्व पालक विष्णु और प्रलयंकर शिव उन्हीं के अंश हैं।
कबीर जिस ब्रह्म को सगुण और निर्गुण के परे मानते हुए कहते हैं कि-
" सरगुण की सेवा करौं,
निरगुण का करु ज्ञान ।
निरगुण सरगुण से परे,
तहां हमारा ध्यान ।। "
उसीको तुलसी दोनों के रूप में देखते हैं। उनका कथन है-
" हिय निरगुण नयनन्हिं सगुण,
रसना राम सुनाम ।
मनौ पुरट सम्पुट लसत
तुलसी ललित ललाम ।।"
अतः स्पष्ट है कि तुलसी ज्ञान के लिए निर्गुण और उपासना या भक्ति हेतु ब्रह्म का सगुण रूप ही ग्रहण करते हैं। 'रामचरित मानस 'में शंकर पार्वती से कहते हैं- जो सर्वशक्ति- मान निर्गुण ब्रह्म है, वही अधर्म को बचाने के लिए और भक्तों के प्रेमवश होकर उन्हें दर्शन देने के लिए सगुण रूप धारण करता है-
" जब जब होई धरम की हानी,
बाढहिं असुर अधम अभिमानी।
तब तब प्रभु धरि विविध शरीरा,
हरहिं कृपा निधि सज्जन पीड़ा ।।"
तुलसी के विचार से जो राम निर्गुण और सर्वशक्तिमान है वहीं सगुण भी है और वहीं अवतार भी लेते है। 'रामचरितमानस' के बालकांड में उन्होंने लिखा है-
"भगत हेतु नाना विधि करत चरित्र अनूप ।"
अत: ब्रह्म ( राम ) निर्गुण भी है और सगुण भी।
" अगुन सगुन दुइ ब्रह्म स्वरूपा।
अकथ अगाध अनादि अनूपा ।।"
वह तीनों गुणों से परे होते हुए भी गुणों वाला है। इस विषय में उठनेवाली शंका का निवारण भी तुलसी ने किया है। उन्होंने ' रामचरितमानस ' में दाशरथि राम और निर्गुण ब्रह्म में एकत्व स्थापित किया है। उनकी दृष्टि में निर्गुण और सगुण ब्रह्म में कोई भेद नहीं कोई विरोध नहीं। 'बालकांड ' में शंकर कहते कि-
"अगुनहि सगुनहि नहिं कछु भेदा ।
गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा ।।
अगुन अरूप अलख अज जोई।
भगत प्रेम बस सगुन सो होई।।
जो गुन रहित सगुन सोई कैसें।
जलु हिम उपल बिलख नहिं जैसे।"
इस प्रकार निर्गुण और सगुण एक ही ब्रह्म है। जैसे जल वायु के भीतर बाष्प में अदृश्य रूप में रहता है ,वैसे ही निर्गुण ब्रह्म भी । जिस प्रकार वह अदृश्य बाष्प बादलों का रूप धारण करती है ,फिर जल का और वही ठोस उपल ( बरफ ) का रूप धारण करती है; उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म भी सगुण रूप धारण करता है ।
यह ब्रह्म अनादि और अनन्त है, जो -
"बिनु पद चलै,सुनै बिनु काना।
कर बिनु करम करै विधि नाना ।।"
तुलसी ने अपने अद्वैत ब्रह्म को विशिष्टाद्वैत के गुण से युक्त भी किया है। इस अद्वैत ब्रह्म को जब तुलसी विशिष्ट बनाते हैं तो वे सती से प्रश्न करते हैं-
" ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज,
अकल अनीह अभेद ।
सो कि देह धारि होई नर,
जाहि न जानत वेद।। "
इस प्रकार संपूर्ण जगत को निर्गुण या निराकार ब्रह्म का सगुण या साकार रूप माना जा सकता है। तुलसी ने जहां कहीं- कहीं विराटरूप का वर्णन किया है वह इसी साकार ब्रह्म की व्यापक कल्पना है ।
'लंकाकांड' में मंदोदरी के मुख से तुलसी ने इसी प्रकार के विराट रूप का वर्णन कराया है-
" पद पाताल सीस आज धामा।
अपर लोक अंग अंग विश्रामा ।।
भृकुटि विलास भयंकर काला ।
नयन दिवाकर कच घनमाला ।।
+ + + +
आनन अनल अंबुपति जीहा ।
उतपति पालन प्रलय समीह।। "
यह जगमय प्रभु सगुण ब्रह्म है। इसी का विराट दर्शन कौशल्या को भी हुआ था। इस दर्शन के लिए श्रद्धा भाव और ज्ञाध दृष्टि अपेक्षित है। तुलसी जो समस्त जगत को 'सीयाराममय' समझकर प्रणाम करते हैं, वह भी उनके इसी प्रकार के विराट दर्शन का ही परिणाम है।
तुलसी के विचार से जो राम निर्गुण और सर्वशक्तिमान हैं वही सगुण भी हैं और वही अवतार भी लेते हैं ।'रामचरितमानस' के बालकांड में उन्होंने लिखा है-
"व्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप ।
भगत हेतु नाना विधि करत चरित्र अनूप।।"
तुलसी के राम तो सभी देवताओं ,त्रिदेवों और विष्णु से भी परे हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश तो उनसे शक्ति प्राप्त करते हैं ।अतः वे विष्णु आदि सबसे बढ़कर सच्चिदानंद हैं।यहीं निर्गुण -सगुण ब्रह्म मनु -सतरूपा की भक्ति के वश में होकर कौशल्या पुत्र दाशरथि राम बनता है और लीलाएं करते हुए भू-भार हरता है ।'रामचरितमानस' की प्रारंभिक कथा से यह प्रमाणित हो जाता है-
" सो अस प्रेम भगति बस कौसल्या के गोद। ।"
(२) जीव
जीव ईश्वर राम का अंश है-
" ईश्वर अंस जीव अबिनासी ।
चेतन अमल सहज सुखरासी ।।"
किंतु ईश्वर और जीव में भेद है अवश्य ।
जीव माया के वश में है। माया का प्रभाव उस पर बहुत अधिक है, किंतु ईश्वर माया से परे है ,मायापति है , और इस प्रकार तुलसी के विचार से-
"परबस जीव स्वबस भगवन्ता।
जीवन अनेक एक श्रीकंता ।।
प्रकृति के सत,रज और तम-तीन गुण जीव को अपने में बांधे रहते हैं।
तुलसी ने दोनों के इसी भेद को बड़े ही स्पष्ट शब्दों में अभिव्यंजित किया है। ईश्वर अखंड ज्ञान है, पर जीव का ज्ञान अखंड नहीं है। माया के वशमें वह नष्ट हो जाता है ।भक्तों को भी माया क्यों व्यापती है, इसके उत्तर में गरुड़ से काकभुशुण्डिजी कहते हैं-
" नाथ इहा़ं कछु कारन आना ।
सुनहु सो सावधान हरि जाना।।
ज्ञान अखंड एक सीताबर ।
माया भस्म जीव सचराचर ।।"
ईश्वर तथा जीव के भेद को प्रतिपादित करके तथा जीव अनेक मानकर तुलसी ने यह स्पष्ट किया है कि दोनों एक होते हुए भी अलग-अलग है। इसी कारण भक्ति के आलंबन में महत्व का भाव प्रदर्शित किया गया है। इसी भेद को स्पष्ट करते हुए लोमश ऋषि और काकभुशुण्डि के प्रसंग में भी तुलसी कहते हैं कि क्रोधादि भाव द्वैत- बुद्धि के कारण ही होते हैं, अत:माया का प्रभाव जिस पर पड़ सकता है, वह जीव, ईश्वर के समान नहीं हो सकता-
" क्रोध कि द्वैत बुद्धि बिनु ,
द्वैत कि बिनु अज्ञान ।
माया बस परिछिन्न जड़,
जीव कि इस समान ।।"
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि दोनों को तत्वत: एक मानते हुए भी ब्रह्म और जीव में भेद करके तुलसी चलते हैं, क्योंकि कोटि तथा स्वभाव के विचार से जीव चाहे ब्रह्म की कोटि का हो,पर शक्ति और स्वभाव के विचार से दोनों में भिन्नता अवश्य है।
राम एक सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक और स्वतंत्र है । जीव अनेक माया वस्य, परतंत्र और अभिमानी है ।वह कर्म करने में स्वतंत्र किंतु फल भोगने में परतंत्र है । मोह से वशीभूत होकर कर्म जाल में फंसा रहता है। राम की कृपा से उसका उद्धार संभव है।
( ३ ) माया
राम की अभिन्न शक्ति का नाम माया है। अपनी माया के द्वारा राम सृष्टि आदि का कार्य संपन्न करते हैं ।ब्रह्मा आदि की शक्ति राम की ही शक्ति अर्थात् माया है । माया को ही सीता कहते हैं -
" तुम जगदीस माया जानकी"
राम के साथ उनकी माया भी अवतार लेती है-
" आदि सक्ति जेहि जग उपजाया ।
सोई अवतरिहि भोरि यह माया ।"
माया त्रिगुणात्मिका है और गुणों की सहा- यता से ही वह विश्व रचना करती है। माया ही वह आदि शक्ति है जो समस्त सृष्टि की रचना ,स्थिति और संहार करनेवाली है।
माया स्वयं निर्बल है और राम का आश्रय पाकर ही ब्रह्मांड की सृष्टि करती है ।यदि ब्रह्म की सत्ता है तो माया की उपसत्ता है, माया है भी और नहीं भी।
अहंकार युक्त जीव माया के वश में होता है और सत,रज,तम के गुणों से भरी हुई माया मनुष्य को नचाती है। मनुष्य की जीवात्मा परतंत्र है, अर्थात् वह माया के वश में होता है। संसार में माया की प्रचंड सेना व्याप्त है काम ,क्रोध और लोभ उसके सेनापति हैं और दंड, कपट और पाखण्ड उसके यौद्धा हैं-
"व्यापि हियौ संसार में,माया कटक प्रचण्ड।
सेनापति कामादि भट,दम्भ,कपट पाखण्ड।"
यह माया राम की दासी है। वह भगवान के संकेत पर नटी की भांति नाचती है-
"सो माया सब जगहि नचावा ।
जासु चरित लखि काहु न पावा ।।
सो प्रभु भू विलास खगराजा ।
नाच नटी इव सहित समाजा ।।"
राम की कृपा के बिना मनुष्य माया से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकता। इस माया का वर्णन तुलसीदास ने दो रूपों में किया हैं- विद्या और अविद्या। विद्यामाया को तुलसी ने राम की ऐसी शक्ति बताया है, जिससे सृष्टि की रचना और विकास होता है और जो जीव के मोक्ष का हेतु है । अविद्या एक ऐसी प्रचंड शक्ति है, जो जीव के दु:ख, उन्माद, मोह, भवबंधन का कारण है और जो मनुष्य मात्र को भ्रम में डाल देती है।
संपूर्ण विश्व माया का वशवर्ती हैं-
"मैं अरु मोर तोर तैं माया ।
जेंहि बस कीन्हे जीव निकाया ।।"
( ४ ) जगत
शंकर की दृष्टि से जगत असत्य है, ब्रह्म सत्य है। रामानुजाचार्य के मत से ईश्वर अंग होने के कारण जगत भी सत्य है। निम्बार्काचार्य के मत से जगत सत्य भी है और असत्य भी। 'विनयपत्रिका' में तुलसी केशव (ईश्वर) की रचना ( जगत् ) के संबंध में कहते हैं-
" केसव कहि न जाइ का कहिए ?
देखत तव रचना विचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिए।।"
जगत का स्वरूप
मूलतः राम जगत के निमित्त और उपादान कारण हैं-
" काल हू के काल, महाभूतन के महाभूत,
कर्म हू के करम निदान के निदान हौ ।"
( कवितावली)
" जेहि सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा ।"
( रामचरितमानस )
वे सत्य हैं। इसलिए जगत को भी सत्य होना चाहिए ;परंतु तुलसी में उसे बहुत बार मिथ्या कहा है-
" झूठो है, झूठो है, झूठो सदा जग
संत कहंत जे अंत लहा है ।"
(कवितावली)
" एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई।
जदपि असत्य देत दुख अहई ।"
(रामचरितमानस)
यह अंतर्विरोध इसलिए है कि जगत तत्वत: राम-रूप है, माया अर्थात् जीव की भ्रांति के कारण वह राम से भिन्न रूप में प्रतीत होता है। उसका दृश्यमान रूप मिथ्या है, क्योंकि वह परिवर्तन- शील है । इसीलिए तुलसी ने कहा है-
"सब रूप सदा सब होई न हो "
अथवा
"रवि आतप भिन्न न भिन्न यथा।"
जब जीव को अपने, माया के और राम के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान हो जाता है तब वह संपूर्ण जगत को राममय देखने लगता है-
" सीयाराममय सब जग जानी ।
करौं प्रनाम जोरि जुग पानी ।"
राम से इतर कुछ दिखाई ही नहीं पड़ता। यही जगत का हेरा जाना है-
"जेहि जाने जग जाइ हेराई।
जागे जया सपन भ्रम जाई ।।"
(५) ज्ञान और भक्ति
माया के बंधन से जीव मुक्त हो सकता है। इसके हेतु विद्वानों ने अनेक उपाय बताए हैं ।उन्हीं उपायों के अंतर्गत जप, तप, योग, वैराग्य ,ज्ञान, कर्म, उपासना आदि हैं। इनमें से मुख्य ज्ञान और भक्ति है। बिना ज्ञान या भक्ति के कर्म भी नहीं निश्चित किया जा सकता । अत: ज्ञान और भक्ति मुक्ति के साधन हैं, जिनके द्वारा सांसारिक बंधन या माया दूर हो सकती है।
तुलसी के अनुसार ज्ञान बहुत उत्तम है, परंतु ऐसा ज्ञान प्राप्त करना -जो मुक्ति के द्वार खोल दे- सरल कार्य नहीं है। मनुष्य के भीतर चेतन के अंतर्गत जड़ता की गांठ, अनेक जन्मों के माया के संपर्क के कारण पड़ गई है,वह बहुत कठिनता से निकलती है।वह दीखती ही नहीं, छूटना तो दूर की बात है । इसी गांठ को खोलने के लिए तुलसी ने ' ज्ञान -दीपक' का साधन बताया हे, जो बड़ा ही कठिन साधन है। यदि ज्ञान दीपक को प्राप्त कर लिया जाय, तब भी उसकी ज्योति को जगाये रखने के लिए बड़ी ही सतर्कता की आवश्यकता है। अन्यथा अनेक बाधाएं आकर उसे बुझा देती है़। अतः यह मार्ग बड़ा ही दु:खसाध्य है।
तुलसी कहते हैं-
" कहत कठिन समुझत कठिन,
साघत कठिन विवेक ।
होय घुनाच्छर न्याय जौं,पुनि प्रत्यूह अनेक ।।"
ज्ञान प्राप्त कर लेने पर उसे कायम रखना बड़ा ही कठिन है ।अतः इस प्रकार कठिन ज्ञान का मार्ग सर्वजन सुलभ नहीं है। ज्ञान का साधन- पथ दुर्गम है और उसका प्रमुख कारण यह है कि मन को कोई आश्रय नहीं मिलता-
" ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका।
साधन कठिन न मन कहुं टेका ।।"
इस दृष्टिकोण के अनुसार जहां अद्वैतवादी ज्ञान को श्रेय देते हैं, वहां तुलसी ने ज्ञान को स्वतंत्र पथ न मानकर भक्ति को ही श्रेयस्कर समझा
है -'ज्ञान दीपक 'की तुलना में उन्होंने 'भक्ति-
मणि' का रूपक उपस्थित किया है।" राम -भक्ति
चिन्तामणि सुंदर " बताकर उसकी प्राप्ति का मार्ग सुगम और कण्टका विहीन सिद्ध किया है।
तुलसी के भक्ति मार्ग की तीन महत्वपूर्ण विशेषताएं हैं-
(१) वह राम भक्ति का मार्ग है।
(२) वह वेद -शास्त्र- सम्मत है।
(३) वह ज्ञान वैराग्य युक्त है।
" श्रुति सम्मत हरिभक्ति पथ,संयुत्त विरति विवेक ।।"
उनके आराध्य राम है। भगवान के सभी अवतारों में उनके लोकरक्षक रूप की सर्वाधिक अभि- व्यक्ति राम में ही हुई है ।उनमें ही भगवान की तीन विभूतियों- शील, शक्ति और सौंदर्य का
समन्वय मिलता है। तुलसी का भक्ति सिद्धांत समन्वयवादी है । वे निर्गुण और सगुण दोनों ही
भक्तियों को उचित मानते हुए सगुण भक्ति की श्रेष्ठता प्रतिपादित करते हैं ।और दोनों प्रकार की भक्तियों को मान्यता देते हैं-
१ . "अगुनहि सगुनहि नहिं कछु भेदा ।
गावहिं मुनि पुरान बुध वेदा ।।"
२. "अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा ।
अकथ अगाध अनादि अनुपा ।।"
तुलसी की भक्ति 'दास्य भाव' की भक्ति है।
" सेवक सेव्य भाव बिनु भव न त्रिय उरगारि।"
अर्थात् ब्रह्म स्वामी है तो जीव सेवक है, ब्रह्म भगवान है तो जीव भक्त है। वे कहते भी है कि -
" ब्रह्म तू , हौं जीव, तू ठाकुर,हौं चेरौं"
इसी प्रकार
" तू दयाल, दीन हौं तू दानी हौं भिखारी ।
हौं प्रसिद्ध पातकी तू पाप पुंजहारी।।"
इन तमाम उदाहरणों को देखते हुए तो ऐसा ही लगता है कि तुलसीदास विशिष्टाद्वैतवाद के पक्षधर थे ।
तुलसी ज्ञान और भक्ति में कोई भेद नहीं मानते। भक्ति के समर्थक काकभुशुण्डि गरुड़ से कहते हैं-
"भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा ।
उभय हरहिं भब संभव खेदा ।। "
ज्ञान का मार्ग कठिन है-
"ग्यान के पंथ कृपान के धार ।"
और भक्ति का मार्ग सरल है। ज्ञान की तुलना दीपक से की गई है, जो वायु से बूझ सकता है और भक्ति की तुलना मणि से की गई है जिस पर वायु का प्रभाव नहीं पड़ता-
" राम भगति चिंतामणि सुंदर। "
निष्कर्ष:
इस प्रकार तुलसीदासजी ने अनेक दार्शनिक सिद्धांतों को अपनाकर भी किसी एक' वाद' को पूर्णतया ग्रहण नहीं किया, वरन् उनके बीच सामंजस्य स्थापित किया है। उनके दार्शनिक विचार व्यापक और उदार हैं। जो बातें अनेक संप्रदायों में सभी को मान्य हैं,तुलसी ने उन्हीं को ग्रहण किया है। तुलसी दर्शनमें, पुराणोंमें प्रतिपादित दर्शन की प्रमुख विशेषताओं- मानवतावादी दृष्टि, , धार्मिकता, समन्वय भावना, अवतारवादिता और भक्ति- निष्ठा का प्रतिफलन है। उनका दर्शन समन्वयवादी दर्शन है ।
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