'साहित्य दर्पणकार' आचार्य विश्वनाथ ने 'सर्गबद्धो महाकाव्य ' कहकर महाकाव्य अथवा प्रबंध काव्य के लक्षण इस प्रकार बताये हैं-
( १ ) प्रबंध महाकाव्य सर्गबद्ध होना चाहिए,सर्ग कम-से-कम आठ हों ।
( २ ) महाकाव्य का नायक धीरोदात्त, कुलीन ,क्षत्रिय अथवा देवता होना चाहिए। एक वंश के अनेक राजा भी नायक हो सकते हैं।
( ३ ) इसमें श्रृंगार, वीर और शांत- तीनों रसों में से कोई एक रस अंगीरस के रूप में होना चाहिए तथा अन्य रस उसको पुष्ट करने में सहायक हों ।
( ४ ) इसमें सभी नाट्य संधियां उपलब्ध हों।
( ५ ) कथानक ऐतिहासिक अथवा सज्जना- श्रित होना चाहिए ।
( ६ ) प्रारंभ में किसी के प्रति आशीर्वचन हो, इसका आरंभ मंगलाचरण से होना चाहिए ।
( ७ ) प्रत्येक सर्ग में एक छंद का निर्वाह हो तथा अंत में छंद परिवर्तन होना चाहिए। प्रत्येक सर्ग के अंत में अगले सर्ग के विषय की ओर संकेत होना चाहिए ।
( ८ ) महाकाव्य द्वारा अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष में से किसी एक फल की प्राप्ति होने चाहिए।
( ९ ) महाकाव्य का नामकरण कवि, कथा अथवा प्रमुख पात्र पर होना चाहिए। साथ ही प्रत्येक सर्ग का नामकरण उसमें वर्णित घटनाओं के आधार पर होना चाहिए।
( १० ) महाकाव्य में प्रकृति की मनोरम छटा- संध्या, प्रात:, मध्यान्ह, सूर्य, चंद्र , रात्रि प्रभात, पर्वत, सागर, सरिता, मृगया, युद्ध, आक्रमण, विवाह आदि का वर्णन होना चाहिए। इसके अतिरिक्त यज्ञादि का प्रसंगानुकूल वर्णन होना चाहिए ।
महाकाव्य के उपर्युक्त लक्षणों के आधार पर अब हम 'रामचरितमानस' के प्रबंध तत्व की समीक्षा करेंगे।
( १ ) सप्तसोपान
तुलसी ने 'रामचरितमानस ' की कल्पना मानसरोवर के रूप में की है ।एक सरोवर की सात सीढ़ियों के समान सात कांडो को सोपान की संज्ञा दी गई है ।तुलसी ने दो स्थलों पर ( उपक्रम और उपसंहार में )
सप्तसोपान का सांकेतिक स्पष्टीकरण किया है । 'मानस ' के ये सोपान वस्तुत: भक्ति के सोपान हैं। ये सोपान रामभक्ति के पंथ है।
( २ ) 'रामचरितमानस' में सुसंगठित कथानक
'रामचरितमानस 'का विख्यात कथानक इतिहास ,पुराणों, काव्यों,नाटकों आदि में प्रचुरता से वर्णित हैं। तुलसी ने इसे अपने ढंग से सजाया और संवारा है। 'रामचरित- मानस' की कथावस्तु बहुत कुछ पौराणिक है ।अध्यात्म रामायण में शिवने पार्वती के प्रति रामकथा का वर्णन किया है। तुलसी ने 'मानस 'के प्रथम सोपान में मंगलाचरण के पश्चात ही स्पष्टत: लिखा है कि-
" नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोडपि।
स्वान्त: सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा
भाषानिबंधमति मंजुलमातनोति।।"
तुलसी की रघुनाथ गाथा अर्थात् 'रामचरितमानस ' । इस प्रकार अपने अंतःकरण के सुख के लिए तुलसी ने इस ग्रंथ की रचना की है' रामचरितमानस' पर मानसरोवर का आरोप करके रूपक बांधा है । चार घाटों की कल्पना की है। ये चार घाट हैं- कर्मघाट, ज्ञानघाट, उपासना घाट और प्रपत्ति घाट। उनके वक्ता- श्रोता हैं -
याज्ञवल्क्य- भारद्वाज,शिव -पार्वती,
काकभुशुंडि -गरुड और तुलसी- संतजन।
सभी वक्ताओं का मुख्य प्रतिपाद्य राम भक्ति ही है।
'रामचरितमानस' की कथावस्तु का आयाम राम जन्म से लेकर राजाराम के वृत्त- वर्णन तक है । रामावतार के हेतुआओं का निरूपण करके मुख्य कथा का आरंभ किया गया है ।
'रामचरितमानस 'का समूचा कथानक सात कांडों में विभक्त हैं। आधिकारिक कथा मर्यादापुरुषोत्तम राम जैसे चरितनायक से सम्बद्ध है ।और कथानक के गठन की दृष्टि से आदि ,मध्य एवं अंत तीनों ही सुसंगठित है ।रामावतार के हेतुओं का निरूपण करके मुख्य कथा का आरंभ किया गया है । आधिकारिक कथावस्तु के साथ-साथ अनेक प्रासंगिक कथाएं भी चलती हैं जो मुख्य कथा को आगे बढ़ाती है। 'रामचरितमानस ' का समूचा कथानक अधिकतर संवादात्मक है । यही कारण है कि आज भी जहां-जहां रामलीलाएं होती है उसके मूल में 'मानस' को रखा जाता है । असत् पर सत् की विजय दिखलाना ही इस कथानक का महत्त उद्देश्य है ।
( ३ ) नाट्य संधियां
'रामचरितमानस 'में पांचों नाट्य संधियों का निर्वाह हुआ हैं। ये संधियां हैं- मुख संधि, प्रतिमुख संधि, गर्भ संधि, विमर्श संधि तथा निर्वहण संधि ।
( ४ ) उदात्त चरित
'रामचरितमानस' के चरित नायक मर्यादा- पुरुषोत्तम राम है। राम धीरोदात है। उनमें आदर्श नायक के सभी सामान्य और विशिष्ट गुण विद्यमान ह। कालिदास ने अनेक सूर्यवंशी राजाओं को रघुवंश का नायक बनाया था ।तुलसी ने रघुवंश भूषण राम को नायक बनाकर इसका निर्वाह किया है। उनके राम नर या देवता नहीं है ।वे नर-रूप- परब्रह्म है । 'रामचरितमानस' के राम शील, शक्ति और सौंदर्य के भंडार हैं। राम -वन- गमन के समय कोल-किरातों से संभाषण करते हुए उनके अद्भुत शील का परिचय मिलता है-
" सुनि सीतापति सील सुभाउ ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउ ।।"
प्रति नायक रावण विश्वविजयी और उत्साह आदि गुणों से संपन्न है। उसके शील में कमी है। इसलिए वह विजेतव्य है। परंपरा के अनुसार वह मायावी, प्रचंड , चपल, घमंडी, अहंकारी , मत्सरी, पापी और व्यसनी है।
" देव जच्छ गंधर्व नर किन्नर नाग कुमारि।
जीती बरीं निज बाहु बल बहु सुंदर बर नारि ।।"
सीता आदर्श पत्नी के रूप में हमारे सामने आती है।
तुलसीदास के पात्र मोटे तौर पर दो वर्गों में विभाजित हैं। जैसे-
(१) सात्विक पात्र-
राम ,लक्ष्मण ,हनुमान आदि ।
(२) तामसी पात्र-
रावण, मेघनाथ, कुंभकर्ण, शूर्पणखा आदि।
कुछ पात्र ऐसे भी हैं जो इन दोनों के बीच दिखाई देते हैं। जैसे- विभीषण, तारा, मंदोदरी आदि।
( ५ ) अंगी रस
गोस्वामी तुलसीदास के काव्य में यद्यपि सभी रसों का समावेश हुआ है लेकिन मुख्य रूप से तुलसी के काव्य में भक्ति रस की अवधारणा सर्वाधिक रूप में हुई है। 'रामचरितमानस 'का अंगीरस भक्तिरस है। इसे कुछ विद्वानों ने शांत रस भी कहा है। अर्थात् 'मानस' के प्रारंभ में कवि ने जिस मानसिक चेतना की बात की है उसका पर्यावसान अंतिम उत्तरकांड में निर्वेदात्मक प्रतीत होता है। 'रामचरितमानस' में भक्ति रस का पूर्ण परिपाक हुआ है। संपूर्ण 'रामचरितमानस' की प्रबंध ध्वनि भक्तिरस ही है। जैसे -
(१) जब जब राम मनुज तनु धरहीं।
भगत हेतु लीला बहु करहीं।।
(२) भगति हेतु बिधि भवन बिहाई।
सुमिरत सारद आवति धाई ।।
भक्ति रस के अतिरिक्त इसमें शांत रस, वीर रस ,वात्सल्य, श्रृंगार ,अद्भूत ,रौद्र,हास्य, भयानक,करुण तथा बीभत्स आदि रसों की भी निष्पत्ति हुई हैं।
( ६ ) अलंकार योजना
तुलसी की निम्नांकित उक्तियों में उसके विभिन्न तत्वों का संकेत किया गया है-
"आखर अरथ अलंकृति नाना।
छंद प्रबंध अनेक विधाना ।।"
भावोत्कर्ष के लिए अलंकारों का संनिवेश आवश्यक है।' रामचरितमानस ' आद्योपांत अलंकृत शैली में रचा गया है । समूचे 'रामचरितमानस' में कविने अनेकानेक अलंकारों के सुंदर से सुंदर प्रयोग किए है। शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों ही कवि को समान रूप से प्रिय रहे हैं तथा दोनों की योजना में ही कवि की प्रतिभा और रुचि पूरी तरह से रमी है। शब्दालंकारों में श्लेष, अनुप्रास, यमक आदि तथा अर्थालंकारों में उत्प्रेक्षा, रूपक, उपमा ,दृष्टांत, विभावना आदि का प्रयोग किया है । कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं -
रूपक अलंकार
उदित उदयगिरि मंच पर ,रघुवर बाल पतंग।
बिकसे संत सरोज सब, हरषे लोचन भृंग।।
उत्प्रेक्षा अलंकार
सुनत जुगल कर माल उठाई,
प्रेम बिबस पहराई न जाई ।
सोहत जनु जुग जलज सनाला ,
ससिहि सभीत देत जयमाला।।
अनुप्रास अलंकार
"मुदित महीपति मंदिर आये ।"
यहां ' म ' वर्ण की आवृत्ति दर्शनीय है।
विभावना अलंकार
बिनुपद चलै सुनै बिनु काना ।
कर बिनु करम करै बिधि नाना।।
उपमा अलंकार
कीरति भनिति भूति भलि सोई ।
सुरसरि सम सब कहं हित होई।।
( ७ ) छंद परिवर्तन
'रामचरितमानस' के प्रत्येक सोपान की अंतिम चौपाइयों के बाद नियम के अनुसार 'छंद' की योजना है। तुलसीदासजी ने परवर्ती सोपान के आरंभ में पूर्ववर्ती सोपान की कथा के सूत्र को मिलाया है।
( ८ ) मंगलाचरण से प्रारंभ
'रामचरितमानस' के आरंभ में मंगलाचरण, प्रतिज्ञावचन, सज्जन प्रशंसा, दुर्जन -निंदा आदि की योजना हुई है।
"वर्णनामर्थसंघानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्तरौ वंदे वाणी विनायकौ।।"
( ९ ) जीवन -संस्कृति- प्रकृति
रामचरितमानस में बाल्य, यौवन, उल्लास विषाद आदि विभिन्न जीवन दशाओं ; यज्ञ, नामकरण, विवाह आदि संस्कारों ; नगर, बारात, मंडप आदि वस्तुओं ; यात्रा, युद्ध आदि व्यापारों और ऋतुओं,प्रभात ,संध्या, दिन,रात ,वन ,पर्वत आदि प्राकृतिक विषयों का यथेष्ट वर्णन है।
( १० ) अंत में नायक का अभ्युदय दिखाया जाना चाहिए । तद्नुरूप 'रामचरितमानस' में रावण -वध के पश्चात रामराज्य का विशद वर्णन है।
( ११ ) व्यापक उद्देश्य तत्व
तुलसीदास ने 'रामचरितमानस' की रचना महत्त उद्देश्य को लेकर की है। श्रेष्ठतम जीवन भोग और कवित्व शक्ति का समन्वय हमें रामचरितमानस की रचना में मिलता है। कवि का महान उद्देश्य लोककल्याण की भावना में निहित है ।राम के चरित्र का निरूपण भी वे इसी उद्देश्य से करते है।
तुलसीदास ने राम के आदर्श चरित्र की रचना में राम के राज्याभिषेक के बाद के घटनाक्रम को ( सीता-निष्कासन प्रसंग को) जानबूझकर छोड़ दिया है और उन्होंने प्रतिपादित किया है कि इस कलिकाल में जीवनबोध और जीवन का सुख देनेवाली कोई चीज है तो वह रामकथा है। इसीलिए वह कहते भी है कि केवल कविता जिसमें महत्त चरित्र की उद्भावना ही न हो वह निर्वस्त्रा है। मुख्य तो राम का वण्य- विषय
है। तुलसी की प्रबंध चेतना में प्रारंभ से लेकर अंत तक उद्देश्य और कविकर्म का
समन्वय इसी रूप से मिलता है। तुलसी की लोकानुभूति ही सभी क्षेत्रों को स्पर्श करती है चाहे फिर वह सामाजिक हो, धार्मिक हो, राजनीतिक हो । सभी चरित्रों में भी उनकी आदर्श परिकल्पना है ।रामराज्य की परि- कल्पना भी इसी की परिणति है।
इस प्रकार 'रामचरितमानस' की रचना में तुलसी ने एक ओर राम के महत्त चरित्र की स्थापना की है और राम के चरित्र में ही शील,शक्ति और सौंदर्य का समन्वय किया है तथा राम के मर्यादापुरुषोत्तम रूप को भी उजागर किया है ,तो दूसरी ओर 'मानस' में अधर्म पर धर्म की विजय दिलाई गई है।
'रामचरितमानस 'में इस उद्देश्य को लेकर तुलसी ने रूपकात्मक आयोजन भी किया है ।वास्तव में यह कथा बाहर नहीं भीतर चलती है और भीतर ही भीतर आसुरी वृत्तियों को दूर कर, सात्विक वृत्तियों का प्रकाश ही लोक- जीवन का लोकमानव का सही उद्देश्य है जिसकी सफल अभिव्यक्ति ही तुलसी के 'मानस' में हुई है ।
निष्कर्ष:
इस प्रकार सभी दृष्टियों से 'रामचरितमानस' उत्कृष्ट कोटि का महाकाव्य है।
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