कवितावली के काव्य सौष्ठव पर प्रकाश डालिए | तुलसीदास जी के काव्य सौष्ठव की विवेचना कीजिए | Kavitavali Ke Kavya Saushthav Par Prakash | vivechna
'कवितावली' की कवित्व गरिमा निर्विवाद है। उसमें रस, ध्वनि,गुण- वृत्ति ,अलंकार- विधान ,भाषा ,छंद और अन्तर्वृत्ति निरूपण की सर्वतोमुखी रमणीयता है। औचित्य का भी प्राय: सर्वत्र निर्वाह हुआ है। मानव के सहज भावों और भक्ति दर्शन के उन्नत विचारों की शक्तिमयी भाषा में प्रभावशाली व्यंजना की गयी है। भाव और कला दोनों ही दृष्टियों से महात्मा तुलसीदास जी की कवितावली उत्कृष्ट कोटि की रचना है । यहां हम 'कवितावली' के भाव तथा कला दोनों ही पक्षों का विशद्ता से निरूपण करेंगे ।
भाव पक्ष
'कवितावली' के भाव पक्ष की समालोचना करते समय सबसे पहले हम उसकी रस योजना पर विचार करेंगे ।
( १ ) रस योजना
रसिकशिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास ने नव रसों की मंदाकिनी अपने काव्य में प्रवाहित की है ।तुलसी की रस-व्यंजना और भाव- व्यंजना 'कवितावली 'में सुंदर बन पड़ी है। यथा स्थान पर सभी रसों और अधिकांश भावों का दिग्दर्शन 'कवितावली' में मिलेगा। यह कथन अतिश्योक्तिपूर्ण नहीं है कि तुलसी को रस -सिद्ध कवि सिद्ध करने के लिए 'कवितावली 'ही अपने आप में पूर्ण है। कवितावली में शास्त्र- प्रसिद्ध सभी भावों का समावेश हुआ है। ये भाव हैं - रति,हास, शोक, क्रोध ,उत्साह, भय ,जुगुप्सा, विस्मय तथा निर्वेद आदि । इनमें सभी भाव अपना चरम उत्कर्ष साध सके हैं। परिणाम स्वरूप 'कवितावली' में श्रृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक,बीभत्स, अद्भुत तथा शांत आदि सभी रसों के दर्शन होते हैं। 'वीर रस' 'कवितावली ' का अंगी रस ( प्रधान ) है।
( १ ) वात्सल्य रस
'कवितावली ' के बालकांड के प्रारंभिक पदों में इस रस की अभिव्यक्ति तुलसी ने की है। 'कवितावली 'का आरंभ वात्सल्य से परिपूर्ण है। एक उदाहरण देखिए-
"अवधेस के द्वारे सकारे गई,
सूत गोद कै भूपति लै निकसे ।
अवलोकि हौं सोच-विमोचन को ठगि सी
रही, जे न ठगे धिक से।।
'तुलसी 'मनरंजन रंजित अंजन ,
नैन सुखंजन जातक से ।
सजनी ससि में समसील उभै,
नवनील सरोरुह से बिकसे ।।'
( २ ) श्रृंगार रस
'कवितावली' में इस रस का चित्रण 'बालकांड 'और 'अयोध्याकांड' में हुआ है। 'बालकांड 'में तुलसी ने श्रृंगार रस का बड़ा ही सौम्य और संयमित वर्णन किया है। विवाह के समय लता मंडप में सीता जी राम को देखने के लिए उत्सुक हैं,लेकिन वे बगल से ताक-झांक नहीं कर सकतीं। तुलसी ने सौम्य श्रृंगार को पवित्र रखने के लिए सीता जी से राम के रूप का दर्शन कंकण के नंग में करा दिया है-
"दूलह श्री रघुनाथ बने,
दूलही सिय सुंदर मंदिर माहीं ।
गावतिं गीत सबै मिलि सुंदरी,
बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं।
राम को रूप निहारति जानकी,
कंकन के नग की परछाहीं।
यातैं सबै सुधि भूलि गई,
कर टेकि रही पल टारति नाहीं।"
रस के चारों अंग इसमें स्पष्ट लक्षित हैं। श्रृंगार का इतना मर्यादित वर्णन हिंदी में कम ही मिलेगा। मर्यादा की दृष्टि से देखा जाए तो यह पद अपने आप में अनूठा है। श्रृंगार का ऐसा स्वच्छ और साफ उदाहरण अन्यत्र कम ही मिल पाएगा ।
'अयोध्याकांड 'में भी वन- गमन के प्रसंग में श्रृंगार रस की अभिव्यक्ति हुई है।
( ३ ) हास्य रस
'कवितावली' में हास्य रस का एकदम अभाव तो नहीं है, परंतु है नाम मात्र को ही। अयोध्याकांड में केवल एक ही पद आया है जिसमें इस रस की अभिव्यक्ति हुई है ।गोस्वामी तुलसीदास ने जिस ऊंचे स्तर पर हास्य रस की योजना की है, उसे देखते ही बनता है। श्रीरामचंद्र जी के वन में पधारने पर तपस्वियों की प्रसन्नता का हास्य- पूर्ण वर्णन देखिए-
" बिंध्य के बासी उदासी, तपोव्रतधारी,
महा बिन नारि दुखारे ।
+ + + +
ह्वैहैं सिला सब चंद्रमुखी परसे,
पद-मंजुल-कंज तिहारे।
कीन्हीं भली, रघुनायक जू ,
करुना करि कानन को पगु धारे।।"
इस छंद में राम की महानता का परिचय मिलता है।
( ४ ) भयानक रस
'कवितावली 'में सुंदरकांड का लंकादहन प्रसंग भयानक रस से ओत-प्रोत है। लगभग बीस पदों में तुलसी ने जो भयानकता दिखलाई है ,वह उनकी वर्णन -शक्ति और रस -निरूपण शक्ति का पूरा -पूरा परिचय देता है ।'लंकादहन' के वर्णन में भयानक रस लबालब भरा हुआ है। एक उदाहरण देखिए-
" पानी पानी पानी सब रानी अकुलानी कहैं
जाति हैं परानी, गति जानी गज चालि हैं।"
( ५ ) वीर रस
'कवितावली' में वीर रस का अनेक स्थानों पर सुंदर वर्णन मिलता है। 'बालकांड' में लक्ष्मण - परशुराम संवाद में इसके दर्शन होते हैं । 'किष्किंधाकांड' में हनुमान द्वारा सागर लांधने के प्रसंग में भी उत्साह का दर्शन होता है।'लंकाकांड' के तो अधिकांश छंद हिंदी साहित्य में वीर रस के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। वीर रस का सबसे सुंदर परिपाक उस समय होता है, जब अंगद अपना पैर रावण की सभा में जमा देता है और कोई भी बहादुर उसके पैर उठाने में समर्थ नहीं होता।
" रोप्यौ पांव पैज कै बिचारि रघुवीर-बल,
लागे भट सिमिटि न नेकु टसकतु है। "
( ६ ) शांत रस
'कवितावली 'के उत्तरकाण्ड में शांत रस की अनोखी धारा बहती है। शांत रस के इतने सुंदर छंद हमें और कहीं देखने को नहीं मिलते। तुलसी के पदों को सुस्थिर चित्त से पढ़िए , इनमें सच्चे हृदय की सीधी-सादी पुकार सुनकर आपका हृदय रो पड़ेगा-
"रावरो कहाबौं गुण गावौं राम रावरोई,
राटी द्वै हौं पावौं राम रावरी ही कानि हौं। "
इस प्रकार उत्तरकांड में अनेक छंदों में शांत रस लहराता है।
( ७ ) करुण रस
'कवितावली' के दो-चार पदों में करुण रस का आभास हमें मिल पाता है। करुण रस की मार्मिक व्यंजना निम्न प्रसंगों में हुई है। राम के वन गमन पर शोकसंतप्त कौशल्या- सुमित्रा के संवाद में शुद्ध करुण रस है। लक्ष्मण मूर्च्छा के अवसर पर राम के विलाप वर्णन में तुलसी की भक्ति का पुट होने पर भी शोक का निरूपण हृदयद्रावक है।
निम्न पद में हम स्वयं कौशल्या के मुख से ही उनके हृदय का दर्द सुन सकते हैं जो उन्होंने सुमित्रा को सुनाया है-
" सिथिल- सनेह कहै कौसिला सुमित्राजू हों
मैं न लखी सौति, सखी ! भगिनी ज्यों
सेई है ।
+ + + +
वाम बिधि मेरो सुख सिरिस सुमन सम,
ताको छल-छुरी कोह कुलिस लै टेई है।।"
( ८ ) रौद्र रस
रौद्र रस की मार्मिक योजना क्रोधांध परशुराम की उक्तियों में दृष्टव्य है।जैसे-
" भूपमंडली प्रचंड चंडीस-कोदंउ खंड्यौ,
चंड बाहुदंड जाको ताहि सो कहतु हौं।"
( ९ ) अद्भुत रस
अद्भुत रस का चित्रण धनुर्भंग और लंका- दहन के प्रसंगों में भी है, परंतु उसका उत्कृष्टतर चमत्कारकारी रूप द्रोणाचल( द्रोण पर्वत ) को लेकर आकाश मार्ग से जाते हुए हनुमान के अलौकिक व्यापार में मिलता है।
"लीन्हों उखारि पहार बिसाल,
चल्यो तेहि काल, विलंब न लायो ।
मारुतनंदन मारुत को, मन को,
खगराज को बेग लजायो ।।"
( १० ) बीभत्स रस
'लंकाकांड 'में बीभत्स रस का चित्रण मिलता है। 'लंकाकांड' के राम -रावण युद्ध में अपार नरसंहार हुआ । शव भूमि पर बिछने लगे और खून की नदियां बह चलीं।
गीदड़ तो ऐसे अवसर की बाट में थे ही। उन्होंने उन शवों के पेट फाड़- फाड़कर खाने की तैयारी कर दी और कौए तथा गिद्ध आदि ने चिल्ला -चिल्लाकर घृणा का दृश्य उपस्थित कर दिया-
" लोथिन सों लोहू के प्रवाह चले जहां तहां,
मानहुं गिरिन गेरु झरना झरत हैं ।
+ + + +
फेकरि फेकरि फेरु फरि फरि पेट खात
काक कंक बकुल कोलाहल करत हैं।"
( ११ ) भक्ति रस
भक्ति रस की कुछ- न -कुछ अभिव्यक्ति अरण्यकांड और किष्किंधाकांड को छोड़कर कवितावली के सभी कांडों में हुई है, तथापि उसका पूर्ण परिपाक 'उत्तरकांड' में हुआ है। उसके भी दो रूप हैं- शुद्ध और मिश्रित । रामपरक अधिकांश पदों में शुद्ध भक्तिरस है। जैसे-
" सियाराम सरूप अगाध अनूप बिलोचन-
मीननु को जलु है ।
स्रुति रामकथा, मुख राम को नाम,
हिये पुनि रामहि को थलु है ।"
अंत में हम कह सकते हैं कि 'कवितावली' तुलसी की रस वर्णन की निपुणता और सिद्धहस्तता प्रकट करती है। जिसमें नवों रसों के उदाहरण मिल जाते हैं।
गुण वृत्ति
'कवितावली' में सर्वत्र ही प्रसाद गुण पाया जाता है। 'बालकांड' में राम के बाल स्वरूप वर्णन में माधुर्य गुण कूट-कूट कर भरा है। तथा 'अयोध्याकांड' में भी माधुर्य गुण की विशेषता है। 'लंकाकांड 'में युद्ध वर्णन में ओज गुण है। माधुर्य गुण का एक उदाहरण देखिए -
" कबहुं ससि मांगत आरि करैं,
कबहुं प्रतिबिंब निहारी डरैं ।
+ + + +
अवधेस के बालक- चारि सदा,
तुलसी मनमंदिर में बिहरैं ।।"
कला पक्ष
जितना पुष्ट उनका भाव पक्ष है उतना ही पुष्ट उनका कलापक्ष भी । 'कवितावली' के कला पक्ष की समालोचना करते समय सबसे पहले हम उसकी भाषा पर विचार करेंगे।
( १ ) भाषा- शैली
तुलसीदास ने अपने ग्रंथों में सामान्यतः दो भाषाओं का प्रयोग किया है- ब्रज और अवधी । 'कवितावली' की भाषा ब्रज भाषा है। तुलसीदास ने अवधी और ब्रज दोनों ही भाषाओं में काव्य रचना करते हुए संस्कृत शब्दावली का प्रचुर मात्रा में उपयोग किया है। तुलसीदास अवध क्षेत्र में रहते थे इसलिए उनकी ब्रजभाषा पर भी अवधी का प्रभाव स्पष्ट है ।
ब्रजभाषा
ब्रजभाषा में ' हौं ' शब्द ' मैं ' के अर्थ में प्रयुक्त होता है । 'कवितावली' में भी अनेक स्थानों पर ' हौं ' शब्द ' मैं ' के अर्थ में आया है। जैसे-
" बरु मारिए मोहिं, बिना पग धोए,
हौं नाथ न नाव चढाइहौं जू । "
ब्रजभाषा में ' आ ' को शब्दों के अंत में लगाकर बोलने की प्रथा बहुप्रचलित है और इस प्रकार के शब्दों की 'कवितावली' में कमी नहीं है-
" एक औंजि पानी पीकै कहैं, बनत न आवनो "
ब्रजभाषा में बहुवचन बनाने के लिए अंत में 'न' जोड़ा जाता है। 'न' जोड़कर बनाने वाले शब्दों को हम इन उदाहरणों में देख सकते हैं-
" ईसन के इस, महाराजन के महाराज
देवन के देव देव! प्रानन के प्रान हौ ।
ब्रजभाषा में मेरो, तेरो , हमारो ,तिहारो का प्रयोग भी पारस्परिक व्यवहार के लिए बहुत होता है।इसका प्रयोग भी 'कवितावली' में हुआ है।
जैसे-
"जनक को सिया को हमारो तेरो तुलसी को"।
अवधी भाषा
'कवितावली' में अवधी का स्वरूप भी विद्यमान है। अवधी के अनेक शब्दों का प्रयोग 'कवितावली' में मिलता है। अवधी में ( में ) के लिए मांह, माहीं मंह आदि शब्दों का प्रयोग किया जाता है। एक उदाहरण देखिए-
" दूलह श्री रघुनाथ बने, दूलही सिय सुंदर मंदिर मांही ।"
कुछ और उदाहरण देखिए-
घालि ( घलुआ ), घारि ( समूह-सेना ), से ( वे ), अकनि ( सुनकर ), अछत( रहते), पंवारो ( कीर्ति ) आदि ।
'कवितावली' में शब्दों के अतिरिक्त अवध-प्रांत के मुहावरें और कहावतें भी अधिक प्रयुक्त हैं ।
मुहावरें
(१) खीस जाना ( नष्ट होना )
(२) लसम के खसम ( असहाय के सहायक)
कहावतें
(१) पानी भरी खाल है
(२) चामकी चलाई है
(३) धोबी कैसो कूकर न घर को न घाटको
(४) मसक की पांसुरी पयोधि पाटियतु है
(५) मांगि के खैबो मसीत को सोइबो लैबो को एक न दैबो को दोऊ "
लोकोक्तियां
तुलसीदास ने 'कवितावली' की भाषा में लोकोक्तियों का भी प्रचुरमात्रा में उपयोग किया है-
" घूत कहौ, अवधूत कहौ, राजपूत कहौ,
जुलाहा कहौ कोऊ
काहू की बेटी सों बेटा न ब्याहब
काहू की जाति बिगारौ न सोऊं "
इन अवतरणों में लोकोक्तियां बड़े सहज रूप में आई हैं। मुहावरें और लोकोक्तियों का प्राचुर्य इस ग्रंथ की भाषा की विशेषता है।
'कवितावली' की भाषा में ब्रज और अवधी के अतिरिक्त अन्य देशी भाषाओं तथा बोलियों के साथ-साथ कुछ विदेशी भाषाओं के शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। कुछ शब्द तो बहु प्रचलित ग्रहण किए गए हैं, पर कहीं कहीं अप्रचलित शब्दों का भी व्यवहार कर दिया गया है ।
जैसे-
अरबी शब्द
हलक, कहरी, गुलाम, हराम-आदि शब्द तो प्रचलित हैं, किसब ( कारीगर) ( पानी का बुलबुला ) अप्रचलित हैं।
फारसी शब्द
कागर, दगाबाज, नेवाज, दराज आदि प्रचलित शब्द हैं, पर सालिम (पराक्रमी) कम प्रचलित हैं।
संस्कृत शब्द
संस्कृत के भी कुछ अप्रचलित शब्द हैं। जैसे- बालिश ( मूर्ख), बेर ( शरीर ) आदि।
संस्कृत के तत्सम् शब्दों का भी प्रयोग किया गया है ,पर उनको प्रांतिक भाषाओं का रूप देकर। जैसे-
' लक्ष्मण 'को 'लषन' अथवा 'लखन ' ।
अपभ्रंश शब्द
मयन ,पब्बै,सायर
तुर्की शब्द
बैरख ( बैरक - झंडा )
बंगला शब्द
सरकारे, संजोग ( सकाल - प्रातःकाल )
मारवाड़ी शब्द :
म्हाको
बुंदेली शब्द
भांड जाना ( घूम -घूम कर देखना )-
ये शब्द प्रचलित शब्द हैं ।
अंत में हम कह सकते है कि 'कवितावली' की भाषा सरल, स्वाभाविक और भावानु- रूप बन पड़ी है।
( २ ) अलंकार योजना
भावोत्कर्ष के लिए अलंकारों का संनिवेश आवश्यक है। 'कवितावली 'अलंकारों से पूर्णतया मंडित है । ये अलंकार शोभावर्धक है । तुलसीदास ने अपनी सामान्य प्रवृत्ति के अनुसार अनुप्रास, यमक, उपमा श्लेष, रूपक , उत्प्रेक्षा ,अतिश्योक्ति ,विशेषोक्ति, विभावना तथा विरोधाभास के विनियोजन में विशेष अभिरुचि दिखलाई है। निम्न - लिखित उदाहरण से 'कवितावली' के अलं- कार विन्यास की रमणीयता की झलक मिल जायेगी-
अनुप्रास अलंकार
छोनी में के छोनीपति छाजै जिन्हैं छत्रछाया, छोनी - छोनी छाए छिति आए निमिराज के।
उपर्युक्त पंक्तियों में ' छ ' वर्ण की आवृत्ति दर्शनीय है ।
उपमा अलंकार
"तुलसी मनरंजन रंजित- अंजन
नैन सुखंजन जातक से ।
सजनी ससि में समीर उभै
नवनील सरोरुह से बिकसे।"
प्रस्तुत पंक्तियों में जुटाई गई उपमाओं में रूप और भाव साम्य है। यहां राम के मुख में और चंद्र में तथा अंजन से रंगी हुई आंखों में और नीलकमल में कैसा सुंदर साम्य है।
इसीसे उपमा आकर्षक बन सकी है ।
रूपक अलंकार
तुलसीदास रूपकों के निर्माण और निर्वाह में सिद्धहस्त थे। तुलसीदास के रूपकों पर प्रसन्न होकर लाला भगवान'दीन' ने उन्हें ' रूपकों का बादशाह ' कहा है ।
" अवधेस के बालक चारि सदा
तुलसी मन मंदिर में बिहरैं ।"
सांगरूपक का एक उदाहरण देखिए-
"रावन सो राजरोग बाढत विराट-उर,
दिन दिन विकल सकल सुख- रांक सो ।"
इस रूपक में अप्रस्तुत योजना संबंधी सभी गुण वर्तमान हैं ।
उत्प्रेक्षा अलंकार
"तुलसी मुदित -मन जनक नगर -जन,
झांकती झरोखे लागीं सोभा रानी पार्वती।
मनहुं चकोरी चारु बैठी निज निज नीड़,
चंद की किरन पीवैं पलकैं न लावती ।।"
परिकर अलंकार
रावन की रानी जातुधानी बिलखानी
हा! हा! कोऊ कहै बीसबाहु दस माथ सौ ।
विभावना अलंकार
"वसत गढ लंक लंकेस - नायक अछत
लंक नहिं खात कोउ भात रांध्यो ।"
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि 'कविता- वली' में कवि ने अपनी कविता- कामिनी को सभी अलंकारों से अलंकृत किया है; परंतु उसको तीन आभूषण को बहुत ही प्रिय हैं-
अनुप्रास ,रूपक और उत्प्रेक्षा ।
( ३ ) छंद योजना
'कवितावली' की सृष्टि भाटों और बंदीजनों के लिए हुई है । इसके छंद मनोहर और ओजपूर्ण शब्दों में भाटों और बंदीजनों को पढ़ने के लिए बड़े ही उपयुक्त हैं। 'कविता- वली' में प्रयुक्त छंद हैं- सवैया, मनहरण, कवित्त, छप्पय, झूलना आदि।
सवैया
'कवितावली' में दुर्मिल एवं मत्तगयंद सवैया का प्रयोग किया गया है।
दुर्मिल सवैया ( आठ सगण )
"तुलसी मनरंजन रंजित- अंजन
नैन सुखंजन जातक से ।
सजनी ससि में समीर उभै
नवनील सरोरुह से बिकसे।"
मत्तगयंद सवैया
"दूलह श्री रघुनाथ बने,
दूलही सिय सुंदर मंदिर माहीं ।
गावतिं गीत सबै मिलि सुंदरी,
बेद जुवा जुरि बिप्र पढ़ाहीं।"
झूलना छंद
इसमें 10 + 10 + 10 +7 के विराम से 37 मात्राएं होती है। झूलना छंद का प्रयोग लंकाकांड तथा उत्तरकांड में हुआ है।
जैसे-
"कनकगिरि सृंग चढि, देखि मर्कट-कटक,
बदति मंदोदरी,परम भीत ।"
मनहरण - कवित्त
यह 16 +15 के विराम से 31 वर्णों का छंद है । अंत में गुरु होता है।
" छोनी में के छोनीपति छाजै जिन्हें छत्रछाया,
छोनी- छोनी छाए छिति आए निमिराज के।
प्रबल प्रचंड बरिबंड बर बेष बपु
बरबे को बोले बयदेही सरकार के ।"
इस प्रकार 'कवितावली' की छंद - योजना में छंदों का वैविध्य तो है ही, साथ ही इनका प्रसंग एवं रस के अनुकूल प्रयोग हुआ है। इसी कारण छंद- योजना सफल रही है।
इस प्रकार भाषा, अलंकार , छंद तीनों की दृष्टि से 'कवितावली' के कवि का कौशल अत्यंत प्रशंसनीय रहा है ।
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