कबीरदास की भक्ति भावना पर प्रकाश | Kabir Das - Bhakti Bhavna
भारत में भक्ति की अलौकिक धारा अनादिकाल से बह रही है। स्वामी रामानुजाचार्य ने भारत में भक्ति भावना का बीजारोपण सर्वप्रथम किया था। उसे परिवर्धित करने का श्रेय स्वामी रामानंद और उनके शिष्य कबीर को है। किसी की यह युक्ति इसी बात का समर्थन करती है-
" भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाए रामानंद।
परगट किया कबीर ने सप्तदीप नव
खण्ड ।। "
मध्य युग की साधारण धर्म प्रवण जनता को सिद्धों की बीभत्स साधनाओं के दलदल से तथा नाथों को यौगिक प्रक्रियाओं के गर्त से बाहर निकालकर भाव- भक्ति की अलौकिक एवं पावन पयस्विनी में अवगाहन कराने का पूर्ण श्रेय भक्त कबीर को है । यह भाव भक्ति उनके गुरु की दिव्य देन थी । इसीको पाकर कबीर- कबीर हुए थे। आज भी उनकी भाव भक्ति भारत के हृदय का हार है । कबीर प्रधान रूप से नारदीय भक्ति परंपरा से प्रभावित दीख पड़ते हैं, परंतु प्रभाव उन पर नारदीय ग्रंथों के अतिरिक्त श्रीमद्भागवत् और श्रीमद्भग- वद्गीता का भी है ।
भक्ति की महत्ता
नारद भक्ति सूत्र में -
"सातु कर्म ज्ञान योगेर्यो अधिकतरा"
कहकर भक्ति को कर्म , ज्ञान और योग इन तीनों से श्रेष्ठ कहा गया है। नारद के समान कबीर ने भी भक्ति को कर्म, ज्ञान और योग से श्रेष्ठ कहा है। वे उसे मुक्ति का एकमात्र उपाय मानते हैं-
" भाव भगति विश्वास बिन,
कटै न संसै सूल ।
कहै कबीर हरि भगति बिन,
मुक्ति नहीं रे मूल ।। "
एक दूसरा उदाहरण देखिए-
" जब लग भाव भगति नहीं करिहौं।
तब लग भव सागर क्यों तरिहौं।।"
योग मार्ग इसी भक्ति मार्ग के ही आश्रित है। यदि भक्ति नहीं है तो योग मार्ग वृथा ही है।
भक्तिमार्ग की श्रेष्ठता को प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने यहां तक कहा है-
" झूठा जप तप झूठा ज्ञान,
राम नाम बिन झूठा ध्यान ।"
महाकवि कबीर ने अपनी भक्ति भावना में प्रेम तत्व को प्रधानता दी है।
नारदीय भक्तिसूत्र के अनुसार-
'अनिवे नीयम प्रेम स्वरूपम् ।'
नारदीय भक्ति का प्रेम तत्व कबीर की भक्ति का आधारभूत तत्व है।
नारद के अतिरिक्त कबीर पर सूफियों का भी प्रभाव पड़ा है। कबीर ने कई स्थानों पर ' प्रेम पियाले ', ' खुमार ', ' 'प्रेम रसायन 'आदि शब्दों का भी प्रयोग किया है-
(१) हरिरस पीया जानिये जे कबहुं न
जाय खुमार ।
(२) राम रसायन प्रेम रस पीवत अधिक
रसाल ।
इस भक्ति को प्राप्त करके फिर उस जिज्ञासु को किसी वस्तु की इच्छा ही नहीं होती। कबीर कहते हैं-
" और कर्म सब कर्म हैं,
भक्ति कर्म निष्कर्म ।
कहे कबीर पुकारि के,
भक्ति करो तजि मर्म ।।"
कबीर की निर्गुण भक्ति और उसकी विशेषताएं
श्रीमद्भागवत में तीन प्रकार की भक्ति कही गई है - तामसी ,राजसी और सात्विकी। महर्षि शांडिल्य ने भक्ति के मुख्या और गौणी नाम के भेद किए हैं। भागवत् की निर्गुण भक्ति ही शांडिल्य की मुख्या भक्ति है । भागवत् की निर्गुण भक्ति के समान कबीर की भक्ति भी त्रिगुणातीत है-
" रजगुण, तमगुण, सतगुण कहिए,
यह सब तेरी माया ।"
कबीर ने भी अपनी भक्ति को निर्गुण भक्ति कहा है, उसमें निर्गुण भक्ति की सभी विशेषताएं हैं, जो इस प्रकार है-
(१) निष्काम भक्ति
निर्गुण भक्ति की सबसे बड़ी विशेषता निष्कामना है। और निष्कामना पर कबीर ने पूरापूरा प्रकाश डाला है। क्या पत्नी किसी स्वार्थ अथवा कामना से पति की सेवा करती है? तो फिर भक्त क्यों किसी कामना अथवा फल की इच्छा से भगवान की सेवा अथवा भक्ति करेगा ?सकाम भक्ति तो एक प्रकार का सौदा हुआ।मैं तुम्हारी भक्ति कर रहा हूं, तुम मेरी इच्छा पूरी करो। कबीर ने सकाम भक्ति को व्यर्थ बताया है और भक्ति को निष्काम भक्ति से प्राप्त होने वाला कहा है -
" जब लगि भगति सकामता तब लगि
निरफल सेव ।
कहै कबीर वै क्यों मिलै निहकामी निज देव ।।"
(२) कबीर की निर्गुण उपासना
कबीर ने राम को निर्गुण रूप में स्वीकार किया है तथा वह निर्गुण राम की उपासना का संदेश देते हैं-
" निर्गुण राम जपहुं रे भाई?
अविगत की गति लिखी न जाई ।"
कबीर के अनुसार राम फूलों की सुगंध से भी पतला अजन्मा और निर्विकार है। वह विश्व के कण-कण में विद्यमान है। उसे कहीं बाहर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है। उसे अपने भीतर ही खोजना चाहिए। उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा है कि मृग की नाभि में कस्तूरी छिपी रहती है, किंतु मृग उसकी सुगंध महसूस करके उसे पाने के लिए वन-वन में परेशान होकर इधर-उधर भटकता रहता है, जबकि वह उसके भीतर ही
विद्यमान होता है।
" कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढे बन मांहि।
ऐसै घटि घटि राम हैं, दुनिया देखै नाहिं।।"
कबीर जी कहते हैं कि ईश्वर( राम) सृष्टि के कण-कण में तथा सभी प्राणियों के ह्रदय में निवास करते हैं। हर इंसान के शरीर में ,हर मन में ,हर आंखों में ईश्वर का निवास है इसलिए उसे हमें
इधर-उधर ढूंढने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसे एकाग्र मन से स्मरण करने की आवश्यकता है।
"प्रियतम को पतिया लिखूं, को कहीं होय विदेस।
तन में, मन में, नैन में ,ताकौं कहा संदेश । "
(३) सदाचरण
कबीर ने भक्ति में आचरण की उच्चता पर भी विशेष भार दिया है । इसके अतिरिक्त उसमें यह भी कहा है-स्त्री धन और नास्तिकों के विषय की बातें कभी नहीं सुननी चाहिये तथा अभियान और दम्भ आदि दुर्गुणों को भी त्याग देना चाहिए। उसमें एक अन्य स्थल पर कहा गया है कि दुष्ट संगति से सदैव बचना चाहिये, क्योंकि दुष्ट संगति के कारण क्रोध मोह ,स्मृति और भ्रम आदि होते हैं कबीर ने इन सभी दोषों से बचने का उपदेश दिया है।
धन भक्त का महान शत्रु है। यह बात कबीर ने अच्छी प्रकार समझ ली थी। यही कारण है कि उन्होंने कामिनी के समान कंचन की भी घोर निंदा की है-
" एक कनक और कामिनी दुर्गम घाटी
दोयम ।। "
इसी प्रकार उन्होंने कुल, कुसंग, लोभ, मोह ,कपट ,आशा और तृष्णा आदि को भक्ति में बाधक माना है ।
(४) आत्म समर्पण
आत्म समर्पण का भाव भक्ति की चरम अवस्था है। इस अवस्था में भक्त अपना अस्तित्व भगवान में मिला देता है। कबीर तो राम के कुत्ते बन गए हैं। इससे बड़ा समर्पण और क्या होगा?
"कबीरा कुत्ता राम का मुतिया मेरा
नाउं ।
गले राम की जेवरी जित खैंचे तित
जाऊं ।।"
समर्पण भावना के कारण कबीर में अपना कुछ नहीं रह गया था। जो कुछ था, वह उनके स्वामी भगवान का था। फिर कबीर को उसे सब कुछ सौंपने में क्या और सुविधा होती?
" मेरा मुझमें कुछ नहीं
जो कुछ है वह तेरा ।
तेरा तुझमें सौं पता
क्या लगता है मेरा ।।
+ + + +
मैं गुलाम मोहि बेचि गुसाईं।
तन मन धन मेरा रामजी के ताईं।
(५) नाम स्मरण
भक्तों ने प्रभु नाम स्मरण की महत्ता का प्राय: गुणगान किया है। कबीर ने राम और हरि दो नामों के भजन और स्मरण की बात स्वीकार की है। कबीर ने राम नाम की महिमा का बखान अपनी कई साखियों में किया है । कबीरदास अपने गुरु के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहते हैं कि
" उन्होंने राम नाम का मंत्र दिया है, राम नाम में जो आनंद है, वह किसी और वस्तु में नहीं। केवल हरि नाम का स्मरण ही भक्ति है, शेष सब कुछ अपार दुख है। हरि के नाम की चिंता ही एकमात्र सच्ची चिंता है शेष सब चिंताएं व्यर्थ है क्योंकि उन चिंताओं से हम काल के पाश अर्थात् मौत के बंधन से मुक्त नहीं हो सकते । नाम स्मरण के आगे न वे वेद और कुरान को आवश्यक समझते हैं, न नमाज और पूजा को । न व्रत - उपवास जरूरी है न ही रोजा । नाम ही ब्रह्म है और नाम ही ब्रह्म से मुक्ति प्रदान करने वाला।"
उन्होंने अपने आराध्य के लिए विभिन्न नामों का प्रयोग किया है, जिसमें राम, साईं, हरि ,रहीम, खुदा ,अल्लाह आदि प्रमुख है। कबीर निर्गुण राम के उपासक थे। वह बार -बार नाम स्मरण की प्रेरणा देते हुए कहते हैं-
" कबीर निर्भय राम जपु,
जब लागे दीवा बाति।
तेल घटा बाती बुझे,
तब सोवो दिन राति । "
हरि भजन की बात और हरि भजन के बिना मुक्ति न मिलने की बात कबीर ने कई साखियों में कही है-
" घरि- घरि नौबति बाजती, मैंमल बंधते द्वारि ।
एकै हरि के नाम बिनु गये जनम सब हारि ।।
(६) प्रपत्ति और आत्म निवेदन
कबीर ने रामानुजाचार्य द्वारा प्रतिपादित प्रपत्ति मार्ग की परंपरा को भी अपने भक्ति क्षेत्र में निभाने का प्रयत्न किया है। ' प्रपत्तिपरता 'कबीर की भक्ति की सबसे बड़ी विशेषता है । भक्ति क्षेत्र में प्रपत्ति शब्द शरणागति के अर्थ में प्रयुक्त होता है ।भक्त का सब धर्म और साधना को छोड़कर भगवान की शरण में जाना ही प्रपत्ति है। रामानुज की शिष्य परंपरा में होने के कारण कबीर ने प्रपत्ति मार्ग को पूर्णतया अपनाया है। कबीर कहते हैं-
" कहत कबीर सुनहु रे प्रानी,
छाडहु मन के भरमा ।
केवल नाम जपहु रे प्रानी,
परहु एक को सरना ।।"
यह प्रपत्ति की भावना ही कबीर की भक्ति भावना का प्राण है। आत्मग्लानि से काया शुद्ध हो जाती है।
कबीर कहते हैं-
" का मुखले बिनती करुं,
लाज लगत है मोहि ।
तुज देखत बिनती करुं,
कैसे भावुं तोहि ।। "
जो हृदय से साधना करता है ,उसे सिद्धि अवश्य प्राप्त होती है-
" गगन गरजे बरसे अभी बादल
चहु दिशी चमके दामिनी,
भीजे दास कबीर ।।"
+ + + + +
"कबीर बादल प्रेम का ,
हम पर बरस्या आई ।
अंतर भीगी आतमा,
हरी भई बंनराई ।
कहे कबीर आनंद भयो है,
बाजत अनहद ढोल रे,
तो कूं पीव मिलेंगे ।
घूंघट का पट खोल रे ।। "
प्रपत्ति के अंग
१. आनुकू्ल्यस्य संकल्प-
" हरि न मिले बिन हिरदे सूध ।"
२. प्रतिकूल्यस्य वर्जनम् ।
३. भगवान की रक्षा में विश्वास
" अब मोहि राम भरोसो तेरा
और कौन का करौं निहोरा ।। "
४. भगवान का ध्यान करना, भगवान के गुणों का वर्णन करना ।
" मनरे राम सुमरी, राम सुमरी,
राम सुमरी भाई ।"
५. आत्म निक्षेप ।
६. दीनता-कार्पण्य दीनता
" कबीरा कुत्ता राम का मुतिया मेरा नाऊं।
गले राम की जेवड़ी जित खैंचे तित
जाऊं ।।"
(७) साक्षात्कार
कबीर ने साक्षात्कार किया था। साक्षात्कार में तीन चार बातें महत्वपूर्ण होती हैं -
(क) अद्वैत की अनुभूति
(ख) सहजावस्था
" संतो सहज समाधि भली ।"
मध्यकालीन संत परंपरा में ऐसा पद अन्य नहीं प्राप्त होता ।
(ग) इस सारी साधना का श्रेय गुरु को है।
" यह तन विष की बेलड़ी
गुरु अमृत की खानि ।।
सिस देई जो गुरु मिले
तोभी सस्ता जानि ।।"
(घ) कठोर साधना
"साधना संग्राम है, रातभर जूझना ।
देह पर जन्त का, काम भाई ।।"
(८) योगमिश्रित भक्ति
कबीर की भक्ति की सबसे बड़ी विशेषता उसकी योग विशिष्टता है। कबीर ने बहुत से स्थलों पर भक्ति और योग का मिश्रण कर दिया है । हठयोग की साधना बड़ी कठिन होती है। यही कारण है कि उन्होंने सर्वत्र अपनी भक्ति को ' कठिन दुहेली ', ' खांडे की धार 'आदि कहा है । हठयोग मिश्रित भक्ति को ध्यान में रखकर वे कहते हैं-
" भगति दुवारा संकड़ा, राई दसवैं भाई ।। ":
(९) गुरु का महत्व
कबीर ने गुरु को विशेष महत्व दिया है ।ईश्वर का सानिध्य प्राप्त करने के लिए गुरु की सहायता, गुरु का मार्गदर्शन आवश्यक है। कबीर को भक्ति की प्राप्ति गुरु सेवा से ही हुई थी
" गुरु- सेवा से भक्ति कमाई ।"
गुरु की कृपा भक्ति प्राप्ति के लिए बहुत जरूरी है । गुरु ही असली भेदिया है। उसकी सत्ता सर्वोपरि है ।गुरु 'हरि' का सारा रहस्य स्पष्ट कर देता है-
" वस्तु कहीं ,ढूंढे कहीं ,केही विधि आवे हाथ।
कहत कबीर तब पाइये, भेदी लीजै साथ ।। "
यही कारण है कि गुरु को उसकी महत्ता के अनुसार भगवान की प्रत्यक्ष प्रतिमा कहा गया है।
" गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागू पाय।
बलिहारी गुरु आपनी, जो गोविंद दिओ
बताया ।।"
यदि हरि रूठ जाय तो गुरु के यहां शरण मिल सकती है परंतु कहीं गुरु रूठ जाय तो साधक को कहीं भी स्थान नहीं मिल सकता ।
"कबीरा वे नर अंध हैं, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर।।"
कबीर की सारी साधना का श्रेय गुरु को है-
" गुरु प्रसाद अकल भई तो कों,
नहिं तर था बेगाना ।" तथा
" ज्ञान भगति गुरु दीनी । "
निस्संदेह यह गुरु पूजा का महान भाव भारतीय भक्त संतों की अतुल संपत्ति
है ।
(१०) सत्संगति
भक्ति भावना के लिए सत्संगति भी आवश्यक है।कबीर ने सत्संगति का महत्व स्वीकारते हुए कहा है-
"कबीर संगति साधु की वेगि करीजै जाइ।
दुरमति दूरि गंवाइसी देसी सुमति बनाई।। "
(११) शरणागत भावना
भक्त जब तक भगवान की शरण में नहीं जाता, तब तक उसकी भक्ति भावना अधूरी रहती है। कबीर ने माधव अर्थात् विष्णु से दया की याचना करते हुए अपनी शरणागत भावना प्रकट की है-
" माधव कब करिहौ दाया ।
काम क्रोध अहंकार व्यापै न छूटे
माया । ।"
शरण में गये कबीर को हरि अर्थात विष्णु ने स्वीकार कर लिया था अर्थात् कबीर की भक्ति पूर्ण और सफल हो गई थी-
" आज हरि हूं आपनौ करि लीनौं ।
प्रेम भगति मेरौ मन भीनौं ।।"
निष्कर्ष
कबीर 'भाव भक्ति' का संदेश लेकर भारतवर्ष में अवतीर्ण हुए थे। कबीर को इस भाव भक्ति का वरदान अपने गुरु स्वामी रामानंद जी से मिला था। अपने गुरु के इसी वरदान को उन्होंने ' सप्त दीप नौ खंड 'में संदेश के रूप में प्रसारित किया था ।
कबीर की भक्ति की कुछ अपनी विशेषताएं हैं। वह नारदी होकर भी सार्वलौकिक, सर्वकालिक और सार्वभौमिक है। वह अत्यंत सहज और सरल होकर भी 'खांडे की धार 'के समान कठिन और कष्ट कष्टसाध्य है। इसमें सर्वत्र सदाचरण,सत्याचरण, सहजचरण, सहजोपासना आदि पर ही विशेष जोर दिया गया है।कनक और कामिनी उनकी भक्ति के सबसे बड़े बाधक है।
कबीर ने अपनी भक्ति में प्रपत्ति पर विशेष बल दिया है। प्रपत्ति भारतीय देन है। कबीर की भक्ति में मन साधना , मानसिक पूजा, मानसिक जप तथा सत्संगति को विशेष महत्व दिया गया है। अपनी इन सब विशेषताओं के साथ कबीर की भक्ति अपने युग की सबसे बड़ी देन थी ।
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