कबीर दास जी की भाषा शैली पर प्रकाश
अभिव्यक्ति वाणी की प्राण शक्ति का दूसरा नाम है। इसे हम अपनी अनुभूतियों को दूसरे तक पहुंचाने की प्रक्रिया भी कह सकते हैं। भाषा और अभिव्यक्ति का घनिष्ठ संबंध है। कबीर दास जी की भाषा शैली क्या थी? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए एवं कबीर की भाषा-शैली सही ढंग से जानने के लिए इस लेख को आखिर तक पढ़ेंगे। अतः यहां पर पहले हम कबीर की भाषा पर संक्षेप में विचार करेंगे। कबीर की भाषा के बाद कबीर की शैली पर प्रकाश डालेंगे।
कबीर की भाषा
" मसि कागद छूयौ नहीं, कलम गही नहिं हाथ " या " मैं कहता आंखन की देखी, तू कहता कागद की लेखी " जैसी उक्तियों से स्पष्ट है कि कबीर निरक्षर थे। उन्होंने भारत भ्रमण एवं देशाटन किया था । फलत: उनकी भाषा का कोई एक विशुद्ध रूप निर्धारित नहीं है।
कबीर की भाषा पर विभिन्न विद्वानों के मत
कबीर की भाषा पर विभिन्न विद्वानों के मत भी अलग-अलग हैं,जो इस प्रकार हैं-
(१) डॉ. रामकुमार वर्मा ने 'कबीर ग्रंथावली 'की भाषा में पंजाबीपन अधिक बताया है।
(२) डॉ. श्यामसुंदर दास ने कबीर की भाषा को 'पंचमेल खिचड़ी' कहा है।
(३) डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी के अनुसार कबीर की रचनाओं में मुख्यतः ब्रजभाषा मिलती है,जो पूर्वी या कौसली से मिलती- जुलती है और खड़ीबोली का रूप भी यथेष्ट प्रमाण में मिलता है।
(४) डॉ. बाबूराम सक्सेना ने कबीर को अवधि का प्रथम संत कवि कहा है।
(५) आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर की भाषा को पंचरंगी मिली-जुली भाषा कहा है। यह मत अधिक समीचीन है। इसे उन्होंने 'सधुक्कडी' भी कहा है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का मानना है कि यह नाथपंथियों से मिली जुली भाषा है। नाथपंथियों का प्रचार क्षेत्र राजस्थान एवं पंजाब में अधिक रहा था। साथ ही कबीर ने अपनी बात मुसलमानों तक पहुंचाने के लिए खड़ीबोली का प्रयोग भी किया था।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी लिखते हैं-
" इस भाषा का ढांचा कुछ खड़ी बोली लिए राजस्थानी था।"
इस प्रकार इन सभी मतों में आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का मत अधिक संगत ज्ञात होता है।
कबीर ने किसी एक भाषा का प्रयोग नहीं किया है। उनकी बानियों में हिंदी, उर्दू ,फारसी आदि कई भाषाओं का सम्मिश्रण तो मिलता ही है, साथ ही साथ खड़ी बोली, अवधी, भोजपुरी, पंजाबी, मारवाड़ी आदि उपभाषाओं का भी प्रचुर मात्रा में प्रयोग किया गया है।
अभी तक केवल दो ही पुस्तकें ऐसी मिलती है जिनमें संकलित कबीर की बानियों को प्रामाणिक मानने के कुछ आधार हैं-
कबीर के ग्रंथों में प्रयुक्त भाषा की विशेषताएं | प्रवृतियां
डॉ. गोविंद त्रिगुणायत ने कबीर के ग्रंथों में प्रयुक्त भाषा की निम्नलिखित सामान्य प्रवृतियां बताई हैं-
(१) कबीर की भाषा में पंजाबीपन का आधिक्य
कबीर की भाषा की पहली विशेषता पंजाबीपन है। 'कबीर ग्रंथावली 'और 'संत कबीर 'दोनों की भाषा में पंजाबी- पन का पुट है कबीर ने अपने जीवन का बहुत बड़ा भाग देशाटन में व्यतीत किया था ।वे कई बार हज्ज गए थे । हज्ज जाते समय पंजाब से गुजरना पड़ा होगा। संभव है वे कुछ दिन वहां रहे भी हो । पंजाब में रहने के कारण उनमें पंजाबीपन का आ जाना स्वाभाविक था।
( २ ) कबीर की भाषा में भोजपुरी भाषा के संज्ञा और क्रिया रूप की प्रचुरता
( ३ ) कबीर की भाषा में खड़ी- बोली के अच्छे उदाहरणों का प्रयोग
कबीर की भाषा में कहीं-कहीं खड़ी- बोली के अच्छे उदाहरण मिलते हैं । इस संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ' हिंदी साहित्य का इतिहास 'में लिखा है कि संतों को खड़ीबोली की परंपरा सिद्धों से मिली है। जिस प्रकार सिद्धों के उपदेश की भाषा टकसाली है, उसी प्रकार संतों के उपदेश की भाषा खड़ी बोली है।
ब्रह्म निरूपण संबंधी एक पद देखिए-
" भारी कहूं तो बहू डरुं,
हलका कहूं तो झूठ ।
मैं का जानो राम को,
नैना कबहुं न दीठ ।।"
( ४ ) भाषा का रूप विषय और भाव के अनुरूप
कबीर की भाषा के संबंध में एक बात और ध्यान देने की है- वह यह है कि उसका रूप अधिकतर विषय, व्यक्ति और भाव के अनुरूप है। जब वे किसी मुसलमान को कोई बात समझाते थे तो तो वह फारसी मिश्रित उर्दू का प्रयोग करते थे । इसी प्रकार हिंदू धर्म की चर्चा करते समय तथा पंडितों को समझाते समय वे शुद्ध हिंदी का ही प्रयोग करते थे । देखिए मियां को समझाते समय उर्दू का कैसा प्रयोग किया है-
"मीयां तुम्हसौं बोल्या वाणी नहीं आवै
हम मस्कीन खुदाई बन्दे,तुम्हारा जस मनि भावै ।"
इसी प्रकार हिंदू महात्माओं और संतों के लक्षण बताते हुए शुद्ध हिंदी का प्रयोग किया है-
"निरबैरी निहकामता, साई सेती नेह ।
विषिया सूं न्यारा रहै संतनि का अंग एह ।।"
( ५ ) विविध प्रांतीय भाषाओं का मेल
उसमें बंगला, मैथिल, राजस्थानी आदि कई और भाषाओं का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। कबीर की भाषा में यदि देखा जाए और खोज की जाए तो भारत की प्रत्येक भाषा का कुछ प्रभाव दिखाई देगा। यही कारण है कि उनकी रचनाओंमें मारवाड़ी,राजस्थानी,पंजाबी, भोजपुरी आदि के बहुत से रूप मिलते हैं ।देखिए निम्नलिखित साखी में राज- स्थानी का कैसा प्रभाव दिखाई देता है-
"आखडियां प्रेम कसाइयां,
लोग जाने दुखड़ियां ।
साई अपने कारणै रोई रोई रातडियां।"
( ६ ) अत्यंत सरल और सीधी-सादी भाषा
कबीर की भाषा पूर्ण सधुक्कड़ी है। उसमें किसी प्रकार का मिथ्या आडम्बर नहीं है। वह बिल्कुल सीधी -सादी है। उसमें व्यर्थ के अलंकार नहीं हैं।
( ७ ) भाषा में संकेतात्मकता, प्रतीकात्मकता, और पारिभाषिकता का आधिक्य
कबीर की भाषा सरल और सीधी-सादी होते हुए भी संकेतात्मक, प्रतीकात्मक है। इसका प्रमुख कारण यही है कि उनकी रचनाओं में योग- साधना और रहस्यवाद का विस्तार से वर्णन मिलता है।
( ८ ) कबीर की भाषा में किसी एक भाषा के नियमों का पालन नहीं किया गया।
कबीर की भाषा की एक और विशेषता यह है कि उन्होंने अधिकतर शब्दों के अत्यंत विकृत रूप प्रयुक्त किए हैं।
'कबीर बीजक' की निम्नलिखित साखी कबीर की भाषा को पूर्वी मानने वाले विद्वानों का आधार है-
" बोली हमारी पूरब की,
हमें लखे नहिं कोय ।
हम को तो सोई लखे,
गुरु पूरब का होय ।। "
कबीर ने एक अन्य रमैनी में पूरब दिशा का प्रयोग जीवात्मा और परमात्मा के तादात्म्य या एकता की स्थिति को कहा है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि कबीर का भाषा पर एकाधिकार है। भावानुकूल और समयानुकूल भाषा गढ़कर तथा काट-छांटकर उससे अपनी इच्छानुसारअभिव्यक्ति कर लेना उन्हें खूब आता है। तभी तो उनकी उक्तियों में इतना प्रभाव- प्रवेश और प्रेषणीयता है ।
अभिव्यंजना वास्तव में वाणी का प्राण है। कबीर की प्रतिभा वाणी के इस प्राण से पूर्णरूपेण अनुप्राणित थी। भाषा अभिव्यक्ति का प्रमुख प्रसाधन है। भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जहां पर जैसी भाषा की आवश्यकता होती थी, कबीर वहां वैसी भाषा प्रयुक्त करते थे। यदि अधिक सुंदर ढंग से कहना चाहें तो आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में कह सकते हैं-
" जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है,उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया ,बन गया तो सीधे-सीधे ,नहीं तो दरेरा देकर ।भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार -सी नजर आती है ।उसमें मानो ऐसी हिम्मत ही नहीं है कि इस लापरवाह फक्कड़ को किसी फरमाइश को नाहीं कर सके ।और अकह कहानी को रूप देकर मनो- ग्राही बना देने की जैसी ताकत कबीर की भाषा में है वैसी बहुत कम लेखकों में पाई जाती है ।वाणी के ऐसे बादशाह को साहित्य -रसिक काव्यानंद का आस्वादन करानेवाला समझें तो दोष नहीं दिया जा सकता।"
इस प्रकार स्पष्ट है कि भाषा पर कबीर का एकाधिकार था। उनकी अभिव्यक्ति का बहुत सौंदर्य भाषा पर ही आश्रित है। इस अभिव्यक्ति सौष्ठव ने कबीर की बानियों का काफी महत्व बढ़ा दिया है।
कबीर की शैली
कबीर की शैली कबीर के अक्कड़ फक्कड़ और मस्तमौला व्यक्तित्व के अनुरूप है। सत्य को उसके सही रूप में कहनेवाला और व्यंग्य -बाण छोड़कर तिलमिला देनेवाला उनका व्यक्तित्व उनके समूचे कृतित्व में झांक रहा है। व्यंग्य करने में और चुटकी लेने में कबीर अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं जानते । पंडित और काजी, अवधू और जोगिया, मुल्ला और मौलवी- सभी उनके व्यंग से तिलमिला जाते हैं। अत्यंत सीधी भाषा में वे ऐसी चोट करते हैं कि चोट खाने- वाला केवल धूल झाड़ के चल देने के सिवा और कोई रास्ता ही नहीं पाता ।
कबीर की शैली के उदाहरण
कबीर की शैली के कुछ उदाहरण देखिए
( १ ) जो तू बांभन बांभनी जाया ।
और द्वार से काहे न आया ।।
( २ ) पाथर पूजे हरि मिले,
तो मैं पूजू पहार ।
ताते तो चाकी भली,
पीस खाय संसार ।
( ३ ) दिन भर रोजा रहत हैं,
रात हनत हैं गाय।
यह तो खून वह बंदगी,
क्यों कहु खुशी खुदाय ।।
( ४ ) कांकर पाथर जोरि कै,
मस्जिद लई बनाय ।
ता चढ़ि मुल्ला बांग दे,
क्या बहरा हुआ खुदाय ?
कबीर की यह पैनी, चुटीली और धारदार शैली प्राय: वहां देखने को मिलती है जहां वे समाज और धर्म में व्याप्त अनाचार, दुराचार का उग्रतापूर्वक खंडन करते हैं। उनकी शैली का दूसरा रूप हमें वहां दिखाई देता है जहां वे उपदेश और नीति की बातें करते हैं । उनकी यह शैली बड़ी ही तर्कयुक्त है।
कबीर ने अपने विचार अधिकतर उलटवासियों में प्रकट किए हैं । इन उलटवासियों को उन्होंने उलट वेद कहा है।
कबीर की अधिकांश आध्यात्मिक उक्तियां उलटवासियों के रूप में अभि- व्यक्त हुई हैं। इन उलटवासियों में अलंकार मूलक चमत्कार तो मिलता ही है उसमें व्यंजना के विविध रूप भी मिलते हैं। कुछ उदाहरण देखिए-
(१) समंदर लागी आगि,
नदिया जरि कोयला भई।
देख कबीरा जागि,
मच्छी रूख चढि गई ।
(२) आकासे मुख औधा कुआं,
पाताले पनिहारी ।
(३) माली आवत देखकर,
कलियन करी पुकारी।
फूले- फूले चुन लिये,
काल हमारी बारी ।
(४) मूसा हस्ती सौं लड़े,
कोई बिरला पेखै ।
निष्कर्ष
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि भाषा पर कबीर का का जबरदस्त अधिकार था।वे वाणी के डिक्टेटर थे।उनकी भाषा में सर्वत्र एक प्रवाह है। मर्मस्पर्शिता की अद्भुत शक्ति, सच्चाई, और निश्छलता है। भाषा कबीर की अनुगामिनी थी ।
यही कारण है कि भारतीय जनता कबीर को उनकी भाषाकीय सादगी और सहजता के कारण भूल नहीं पाती। उनके क्रांतिकारी व्यक्तित्व की भांति ही उनकी भाषा भी सशक्त है ।
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