जैन साहित्य
हिंदी साहित्य की उत्पत्ति और विकास में जैन धर्म का बहुत योगदान है। जैनों का क्षेत्र पश्चिमी भारत रहा है। पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने अपने मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया। इन कवियों की रचनाएं आचार, रास, फागु, चरित आदि विभिन्न शैलियों में मिलती है। आचार -शैली के जैन काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उप- देशात्मकता को प्रधानता दी गयी है।
फागु और चरित -काव्य शैली की सामान्यता के लिए प्रसिद्ध हैं। जैन साधुओं ने 'रास' को एक प्रभावशाली रचना - शैली का रूप दिया । जैन मंदिरों में श्रावक लोग रात्रि के समय ताल देकर रास का गान करते थे ।१४वीं शताब्दी तक इस पद्धति का प्रचार रहा। अत: जैन साहित्य का सबसे अधिक लोक- प्रिय रूप 'रास' ग्रंथ बन गये। इन ग्रंथों एवं कवियों का मूल उद्देश्य धर्म तत्व का निरूपण करना है । धर्म प्रचार के साथ इन ग्रंथों में नीति निरूपण भी मिलता है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि 'रास' ग्रंथों के प्रमुख कथानक श्रोत 'जैन पुराण ' है। इन रास ग्रंथों में जैन तीर्थकरों के जीवन चरित तथा वैष्णव अवतारों की कथाएं जैन आदर्शों के आवरण में 'रास' नाम से पद्यबद्ध की गयीं । इन ग्रंथों की भाषा 'अपभ्रंश' है।
आदिकालीन साहित्य में जैन साहित्य के ग्रंथ सर्वाधिक संख्या में और सबसे प्रामाणिक रूप में मिलते हैं। स्वयंभू, पुष्पदंत ,आचार्य हेमचंद्रजी आदि जैन कवियों ने हिंदुओं में प्रचलित लोक कथाओं को भी अपनी रचनाओं का विषय बनाया और परंपरा से अलग उसकी परिणति अपने मतानुसार दिखाई।
जैन साहित्य के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं
प्रमुख जैन कवि एवं उनकी रचनाएं निम्नलिखित हैं-
(1) स्वयंभू
हिंदी के जैन कवियों में सर्वप्रथम नाम स्वयम्भू का है। स्वयम्भू का रचनाकाल अनुमानतः आठवीं शताब्दी माना जाता हैं। सर्वप्रथम भयाणी नामक विद्वान ने स्वयम्भू को अपभ्रंश का बाल्मीकि कहा है।
स्वयम्भू ने निम्नलिखित चार ग्रंथों की रचना की हैं-
(१) पउमचरिउ
(२) रिट्ठणेमि चरित
(३ ) पचामचरिउ
(४) स्वयम्भू छंद
इनमें 'पउमचरिउ' स्वयंभू की कीर्ति का मुख्य आधार है। इसमें राम-कथा को नवीनता प्राप्त है। कवि ने राम की कथा को जैन धर्म का स्पर्श दिया है । 'पउमचरिउ ' में विलाप और युद्धों का वर्णन बहुत कुशलता से किया गया है। उपेक्षित पात्रों के प्रति भी स्वयम्भू की दृष्टि अधिक गई है। भरत और विभीषण के चरित्रों को नवीन वैभव प्रदान किया है । कथा के अंत में राम निर्वाण प्राप्त करते हैं और मुनीन्द्र उपदेश देते हैं कि राग से दूर रहकर ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने स्वयम्भू को भारत के आधे दर्जन महा- कवियों में स्थान दिया है ।
(2) पुष्पदन्त
स्वयंभू के बाद पुष्पदंत जैन साहित्य के प्रतिष्ठित कवि है।
पुष्पदन्त के चार ग्रंथ प्रसिद्ध हैं-
१. महापुराण
२. जसहर चरिउ
३. णाय कुमार चरिउ
४. कोश ग्रंथ
शुरू के ३ ग्रंथों की रचना धार्मिक उद्देश्य से हुई है, फलस्वरुप साहित्यिक शिल्प तथा तात्विक दृष्टि से इन पर 'जिन- भक्ति' का प्रभाव सर्वत्र मिलताहै ।
'महापुराण' में अनेक घटनाएं और चरित्र है। कवि ने ६३ महापुरुषों की जीवन घटनाओं को वर्णन का विषय बनाया है। प्रसंगवश इसमें राम कथा को भी स्थान मिला है। इसमें जैन धर्म का उत्कृष्ट रूप प्रतिपादित है। अपभ्रंश में कृष्ण कथा का प्रथम रूप हमें इसमें ही प्राप्त होता है।
पुष्पदंत की तीन उपाधियां है जो इस प्रकार है:
* काव्य रत्नाकर
* कवि कुल तिलक
* अभिमान मेरु
महापुराण रचना के आधार पर भयाणी ने पुष्पदंत को अपभ्रंश का वेदव्यास कहा है। इसी रचना के आधार पर इन्होंने अभिमान मेरू की उपाधि धारण की ।
(3) हेमचंद्र सूरी
हेमचंद्र सूरी को जैन-धर्म का शंकराचार्य तथा ' कलिकाल सर्वज्ञ ' कहा जाता है। संस्कृत ,प्राकृत और अपभ्रंश का एक साथ प्रयोग करके इन्होंने अपने भाषा -ज्ञान का परिचय दिया है। इनके बचपन का नाम चंगदेव था। ये बहुत बड़े वैयाकरण थे। ये गुजरात के सोलंकी राजा जयसिंह सिद्धराज एवं उनके पुत्र कुमारपाल के आश्रित थे। इन्होंने अपनी कृतियों में प्राचीन हिंदी के जीवित उदाहरण सुरक्षित करके साहित्य का बहुत बड़ा उपकार किया है ।
हेमचंद्र सूरी के छह ग्रंथ प्रमुख हैं -
१.कुमारपाल चरित
२. प्राकृतानुशासन
३. छंदानुशासन
४. हेमचन्द्र शब्दानुशासन
५. त्रिसष्टि शालाकापुरुष चरित
६. देशीनाममाला कोश
इनमें 'कुमारपाल चरित' और' हेमचंद्र शब्दानुशासन ' प्राकृत व्याकरण और भाषा की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इनमें अपभ्रंश के भी उदाहरण हैं।
(4) मुनि रामसिंह
ये जैन रचनाकारों में सर्वश्रेष्ठ रहस्यवादी कवि माने जाते हैं। इनकी विचारधारा सिद्ध रहस्यवाद से मिलती जुलती है।
मुनि रामसिंह का प्रसिद्ध ग्रंथ है- ' पाहुड़ दोहा'
मुनि रामसिंह ने ' पाहुड़ दोहा ' की रचना ११ वीं शती में की थी । इसमें २२२ दोहे हैं । इसमें इंद्रिय सुख और अन्य सांसारिक सुखों की निंदा की गयी है तथा त्याग ,आत्मज्ञान और आत्मानु- भूति को महत्व दिया गया है ।जैन दर्शन में समस्त श्रुत ज्ञान को पाहुड कहा जाता है ।
(5) आचार्य देवसेन
आचार्य देवसेन एक अच्छे कवि तथा उच्च कोटि के चिंतक थे। इनकी प्रमुख रचनाएं हैं-
१. श्रावकाचार
२. लघुनयनचक्र
३. दर्शनसार
४. दब्ब -सहाव-पयास
५. आराधना सार
६. तत्व सार
७. वृहतनय चक्र
आचार्य देवसेन ने९३३ई. में'श्रावकाचार' की रचना की थी। 'श्रावकाचार' में २५० दोहे प्राप्त होते हैं। इन दोहों में श्रावक- धर्म का प्रतिपादन किया गया है। इस रचना में गृहस्थ जीवन के कर्तव्य की सुंदर व्याख्या की गई है। इसकी रचना दोहा छंद में हुई है। एक उदाहरण देखिए-
" जो जिण सासण भाषियउ,
सो मइ कहियउ सारु ।
जो पालइ सइ भाउ करि ,
सो सरि पावइ पारु ।।"
(6) शालिभद्र सूरि
ये अपने समय के प्रसिद्ध जैन आचार्य तथा अच्छे कवि थे ।
शालिभद्र सूरि की 3 प्रमुख रचनाएं हैं-
१.भरतेश्वर बाहुबली रास
२.पंच पांडव चरित रास
३. बुद्धि रास
शालिभद्र सूरि ने 'भरतेश्वर बाहुबली रास' की रचना ११८४ ई. में की थी। मुनि जिनविजय ने इस ग्रंथ को जैन-साहित्य की रास परंपरा का प्रथम ग्रंथ माना है। यह जैन परंपरा का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना जाता है। २५०छन्दों में रचित यह एक सुंदर खंडकाव्य है। इस ग्रंथ में भरतेश्वर तथा बाहुबली का चरित वर्णन है। कवि ने दोनों राजाओं की वीरता, युद्धों आदि का विस्तार से वर्णन किया है, किंतु हिंसा और वीरता के पश्चात विरक्ति और मोक्ष के भाव प्रतिपादित करना कवि का मुख्य लक्ष्य रहा है। इसकी भाषा में नाटकीयता, उक्ति - वैचित्र्य तथा रसात्मकता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। आगे की 'रास' या 'रासो' रचनाओं को इस ग्रंथ ने अनेक रूपों में प्रभावित किया है ।
'पंच पांडव चरित रास' हिंदी का प्रथम ऐतिहासिक रास ग्रंथ है।
'बुद्धि रास ' ग्रंथ ६३ छंदों में रचित है। जिसका वण्य विषय धर्मोपदेश है।
(7) आसगु
आसगु की प्रमुख रचनाएं हैं-
१. चंदनबाला रास
२. जीवदया रास
आसगु ने 'चंदनबाला रास ' की रचना १२००ई. में जालौर में की थी। 'चंदनबाला रास ' ३५ छंदों में लिखा गया एक सुंदर लघु खंडकाव्य है। इसकी कथा-नायिका चंदनबाला चम्पा नगरी के राजा दधिवाहन की पुत्री थी। इस ग्रंथ में चंदनबाला के ब्रह्मचर्य , संयम, सतीत्व और उत्कर्ष का चित्रण किया गया है । यह रचना करुण रस की गंभीर व्यंजना करती है। भाव -सौंदर्य के जितने चित्र कवि ने अंकित किए हैं, सभी में उनकी काव्य- निष्ठा व्यंजित है ।
(8) जिनधर्म सूरि
जिनधर्म सूरि की प्रमुख रचना है- 'स्थूलिभद्ररास'
जिनधर्म सूरि ने ' स्थूलिभद्ररास ' की रचना १२०९ ई. में की थी।
इस काव्य में तीन प्रमुख पात्र हैं - कोशा वेश्या, स्थूलिभद्र तथा इनके गुरु भाई मुनि।
इस ग्रंथ में स्थूलिभद्र के संयमित जीवन को चित्रित किया गया है । कोशा वेश्या के पास भोगलिप्त रहनेवाले स्थूलिभद्र को कवि ने जैन धर्म की दीक्षा लेने के बाद मोक्ष का अधिकारी सिद्ध किया है।
काव्य की भाषा पर अपभ्रंश का प्रभाव अधिक है, फिर भी इसकी भाषा का मूल रूप हिंदी है ।
(9) विजयसेन सूरि
विजयसेन सूरि की प्रमुख रचना है- 'रेवंतगिरिरास'
विजयसेन सूरि ने ' रेवंतगिरिरास ' की रचना १२३१ ई. में की थी। यह एक ऐतिहासिक गीत प्रधान 'रास' ग्रंथ है। इस काव्य में तीर्थकर नेमिनाथ की प्रतिमा तथा रेवंतगिरी तीर्थ का वर्णन है। यात्रा तथा मूर्ति स्थापना की घटनाओं पर आधारित यह 'रास ' वास्तुकलात्मक सौंदर्य का भी आकर्षण प्रस्तुत करता है। प्रकृति के रमणीक चित्र इस काव्य के भाव तथा कलापक्षों का श्रृंगार करते हैं। एक उदाहरण देखिए-
" कोयल कलयलो मोर केकारओ
सम्मए महुयर महुरत गुंजार वो।
जलद जाल संभाले नीझरणि रमाउलु रेहइ,
उज्जिल सिहरू अलि कज्जल सामलु।। "
(10) सुमति गणि
सुमति गणि की प्रमुख रचना है- 'नेमिनाथ रास'
सुमति गणि ने 'नेमिनाथ रास' की रचना १२१३ ई. में की थी । 'नेमिनाथ रास' ५८ छंदों में रचित ग्रंथ है। इसमें नेमिनाथ के चरित्र को प्रस्तुत किया गया है। नेमिनाथ के प्रसंग में श्रीकृष्ण का वर्णन इस काव्य का विषय है और इन दोनों के माध्यम से विभिन्न भावों की व्यंजना हुई है। इस रचना की भाषा अपभ्रंश से प्रभावित राजस्थानी हिंदी है।
(11) जोइन्दु
जोइन्दु नीति-निष्ठ कवि थे ।
जोइन्दु की प्रमुख रचनाएं हैं-
१. परमात्मप्रकाश
२. योगसार
'परमात्मप्रकाश 'छठी सदी के धर्म, दर्शन एवं इंद्रिय निग्रह को आधार बनाती है। जोइंन्दु की इस रचना से अपभ्रंश में दोहा -काव्य आरंभ होता है और उसकी परंपरा १५ वीं शती तक चलती है। इनके दोहों में रूढ़ि और परंपरा पर आघात किया गया है।
(12) धनपाल
धनपाल जैन साहित्य के प्राचीन कवि है।
धनपाल का प्रमुख ग्रंथ है- ' भविसयतकहा '
धनपाल ने 'भविसयतकहा' की रचना १०वीं शती में की थी । यद्यपि धर्म- भावना इसकी भी रीढ़ है, तथा प्रत्यक्षत: लोक -हृदय की विभिन्न स्थितियों से इसका संबंध है । इसमें एक वणिक की कथा को स्वाभाविक घटनाओं के संयोजन द्वारा हृदय के विभिन्न घात- प्रतिघातों की अभिव्यक्ति में पूर्ण सफल बनाया गया है । इन्होंने अपने ग्रंथ में धार्मिक तत्वों के साथ काव्य -सौंदर्य की रक्षा के लिए कथा प्रसंग को कहीं भी टूटने नहीं दिया । धनपाल की यह रचना चरित काव्यों की एक नई कड़ी है, जिसका प्रभाव आदिकालीन हिंदी रचनाओं पर भी पड़ा।
(13) सोमप्रभ सूरी
सोमप्रभ सूरी की प्रमुख रचना है- 'कुमारपाल प्रतिबोध'
सोमप्रभ सूरी ने 'कुमारपाल प्रतिबोध' की रचना १३ वीं शताब्दी में की थी।
'कुमारपाल प्रतिबोध' गद्यपद्यमय संस्कृत- प्राकृत काव्य है । हेमचंद्र ने जो जैन धर्म संबंधी उपदेश कुमारपाल को दिए थे उन्हीं का संग्रह सोमप्रभ सूरी ने 'कुमारपाल प्रतिबोध ' ग्रंथ में किया। इस ग्रंथ में प्राकृत के बीच -बीच में अपभ्रंश का भी प्रयोग है ।
(14) मेरुतुंग
मेरुतुंग का प्रमुख ग्रंथ है- 'प्रबंध चिंतामणि'
मेरुतुंग ने 'प्रबंध चिंतामणि' की रचना १३ वीं शताब्दी में की थी। 'प्रबंध चिंतामणि' ग्रंथ संस्कृत ग्रंथ 'भोज प्रबंध' के ढंग से लिखा गया है। मेरेतुंग ने 'प्रबंध चिंतामणि' में प्राचीन ऐतिहासिक व्यक्तियों और राजाओं के चरित्रों को कथारूप में संकलित किया। 'प्रबंध चिंतामणि' के कथानक को आधार बनाकर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'चारुचंद्रलेख ' उपन्यास लिखा है ।
(15) जिनदत्त सूरी
जिनदत्त सूरी का प्रमुख ग्रंथ है- 'उपदेशरसायन रास'
जिनदत्त सूरी ने ' उपदेशरसायन' की रचना १२ वीं शताब्दी में की थी। रास- काव्य- परंपरा की दृष्टि से यह ग्रंथ उल्लेखनीय है। ८० पद्यों का यह एक नृत्य गीत काव्य है, जिसमें रासलीला का वर्णन भी किया गया है ।
(16) विनयचंद्र सूरि
विनयचंद्र सूरि की प्रमुख रचना है- 'नेमिनाथ चौपाई'
(17) कनकामरमुनि
कनकामरमुनि की प्रमुख रचना है- 'करकंड चरित '
(18) प्रज्ञा तिलक
प्रज्ञा तिलक की प्रमुख रचना है- 'कच्छुली'
(19) सार मूर्ति
सार मूर्ति की प्रमुख रचना है- 'जिनि पदम् सूरि रास'
(20) उदयवंत
उदयवंत की प्रमुख रचना है - 'गौतम स्वामी रास'
जैन साहित्य की प्रमुख विशेषताएं
जैन कवियों की रचनाओं में धर्म और साहित्य का मणिकांचन योग दिखाई देता है। जैन साहित्य की प्रमुख विशेषताएं इस प्रकार है-
(१) विषय की विविधता
जैन साहित्य धार्मिक साहित्य होने के बावजूद सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक विषयों के साथ ही लोक-आख्यान की कई कथाओं को अपनाता है। जैसे- रामायण, महाभारत संबंधी कथाओं को जैन कवियों ने अपनाया है। जहां तक सामाजिक विषयों का संबंध है, जैन रचनाओं में लगभग सभी प्रकार के विषयों का समावेश हो गया है।
(२) उपदेश मूलकता
यह जैन साहित्य की प्रमुख प्रवृत्ति है। जिसके मूल में जैन धर्म के प्रति दृढ़ आस्था और उसका प्रचार है।
(३) आत्मानुभूति पर विश्वास
आत्मअनुभव को जैन कवियों ने चरम प्राप्तव्य कहा है और यह शरीर में रहता है। आत्मा को जाने के लिए शुभाशुभ कर्मों का क्षय करना आवश्यक है। आत्मा परमात्मा एक ही है। आत्मानंद ही सरसीभाव या सहजानंद है ।
(४) गीत तत्व की प्रधानता
जैन कवियों की रचनाएं शैली, स्वरूप और लक्ष्य की दृष्टि से गीत काव्य के अधिक निकट है। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि गेयता इस युग की प्रमुख विशे षता थी। जैन कवियों द्वारा प्रयुक्त छंदों में लय और गेयता का ध्यान रखा गया है।
(५) काव्य रूपों में विविधता
काव्य रूपों के क्षेत्र में जैन साहित्य विविध रूपों से संपन्न है। प्रमुख रूप से दो रूप मिलते हैं। एक प्रबंध और दूसरा मुक्तक। जिससे अपभ्रंश साहित्य की वृद्धि हुई। इसके साथ इसमें रास, फागुन, छप्पर, गाथा, चतुष्पदिका, गुर्वावली, गीत, स्तुति, महात्म्य, उत्साह आदि प्रकार पाये जाते हैं।
(६) कर्मकांड रूढ़ियों तथा परंपराओं का विरोध
कर्मकांड रूढ़ियों तथा परंपराओं का विरोध जैन अपभ्रंश कवियों ने उपासना, पूजा-पाठ ,शास्त्रीय ज्ञान, रूढ़ियों और परंपराओं का घोर विरोध किया है।
(७) लोक भाषा की प्रतिष्ठा
जैन साधु ग्राम ,नगर -नगर घूमकर धर्म प्रचार करते थे, इसलिए उन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के लिए लोक भाषा का प्रयोग किया और उसे प्रतिष्ठा प्रदान की।
(८) प्रेम के विविध रूपों का चित्रण
जैन अपभ्रंश साहित्य में प्रेम के पांच रूप मिलते हैं- विवाह के लिए प्रेम, विवाह के बाद प्रेम, असामाजिक प्रेम, रोमांटिक प्रेम और विषम प्रेम।
( ९ ) शांत रस का प्राधान्य
जैन साहित्य में करुण,वीर ,श्रृंगार आदि सभी रसों का परिपाक हुआ है ।जैन साहित्य के अंत में निश्चित ही शांत रस प्रधान रूप में दिखाई देता है। इसलिए जैन साहित्य में शांत रस की प्रधानता पाई जाती है।
(१०) तीर्थकर २४ और चक्रवर्ती १२ बताए गए हैं।
पुरुषों से संबंधित जैन साहित्य में २४ तीर्थकर और 12 चक्रवर्ती बताए गए हैं। जैन गद्य साहित्य में प्रेम कथा की अनेक रचनाएं हुई है। लौकिक और अलौकिक के अनेक संकेत इन रचनाओं में मिलते हैं।
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