आदिकालीन रासो साहित्य
हिंदी साहित्य में रासो काव्य परंपरा का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। रासो साहित्य मूलत: सामंती व्यवस्था, प्रकृति और संस्कार से उपजा हुआ साहित्य है, जिसे 'देश भाषा काव्य' के नाम से भी जाना जाता है। इस साहित्य के रचनाकार हिंदू राजपूत राजाओं के आश्रय में रहने वाले चारण या भाट थे। समाज में उनका स्थान और सम्मान था, क्योंकि उनका जुड़ाव सीधे राजा से होता था।ये चारण या भाट कलापारखी और कला रचना में निपुण होते थे। ये कुशलता से युद्ध करना भी जानते थे और युद्ध शुरू होने पर अपनी सेना की अगुवाई विरुदावली गा - गाकर किया करते थे। ये राजाओं ,आश्रयदाताओं, वीर पुरुषों तथा सैनिकों के वीरोचित युद्ध घटनाओं को केवल बढ़ा चढ़ाकर ही नहीं, उसकी यथार्थपरक स्थितियों एवं संदर्भों को भी बारीकी के साथ चित्रित करते थे। वीरोचित भावनाओं के वर्णन के लिए इन्होंने 'रासक' या 'रासो' छंद का प्रयोग किया था, क्योंकि यह छंद इस भावना को सम्प्रेषित करने के लिए अनुकूल था। इसलिए इनके द्वारा रचित काव्य को 'रासो काव्य 'कहा गया ।
रासो शब्द की उत्पत्ति
रासो शब्द की उत्पत्ति रासो काव्य के अंतर्गत आने वाले दोहे से देखी जाती है:
" रासउ असंभू नवरस सरस छंदू चंदू किअ अमिअ सम ,
शृंगार वीर करुणा बिभछ भय अद्भुतहसंत सम । "
'रासो 'शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विभिन्न विद्वानों के मत
विद्वान रासो शब्द की व्युत्पत्ति
१.गार्सा-द-तासी 'राजसूय' शब्द से
२.नंददुलारे वाजपेयी 'रास' शब्द से
३. हरप्रसाद शास्त्री 'राजयश' शब्द से
४. नरोत्तम स्वामी राजस्थानी भाषा के
'रसिक' शब्द से
रसिक / रासउ / रासो
५.आचार्य चंद्रबली पांडे, 'रासक' शब्द से
माता प्रसाद गुप्त
एवं
दशरथ शर्मा
६. रामचंद्र शुक्ल 'रसायन' शब्द से
७.हजारी प्रसाद द्विवेदी - संस्कृत के नाट्य
उपरूपक
'रासक' शब्द से
रासक / रासअ /रासा /रासो
८. डॉ.ग्रियर्सन 'राजादेश 'शब्द से
९. डॉ.रामकुमार वर्मा 'रहस्य' शब्द से
एवं
कविराज श्यामलदास
रासो शब्द की व्युत्पत्ति
१.गार्सा - द- तासी ने 'रासो 'शब्द की व्युत्पत्ति 'राजसूय ' शब्द से मानी है । उनका मत है कि सभी चारण काव्यों में राजसूय- यज्ञ का वर्णन है, इसलिए इन काव्यों का नाम रासों पड़ा होगा ।
२. डॉ. ग्रियर्सन ने 'रासों' शब्द की उत्पत्ति 'राजादेश ' शब्द से मानी है। जिसका अर्थ है राजा के आदेश से लिखा गया काव्य ।
३. आचार्य चंद्रबली पाण्डे ने 'रासों' की व्युत्पत्ति रासक (संस्कृत) से मानी है जिसका अभिप्राय रूपक के एक भेद से है।
४.आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'रासो' शब्द की व्युत्पत्ति 'रसायन' शब्द से मानी है इसके लिए उन्होंने 'बीसलदेव रासो' की उस पंक्ति का प्रमाण दिया है जिसमें रसायन से अभिप्राय काव्य से लिया गया है। पंक्ति इस प्रकार है-
" बारह सौ बहोत्तरां मझरि ,
जेठ वदी नवमी बुधिवारि ।
नाल्ह रसायण आरंभई ,
शारदा तूठी ब्रह्म कुमारि ।। "
५. कुछ विद्वान ' रासो' शब्द की व्युत्पत्ति 'रास' धातु से मानते हैं, जिसका अर्थ है-
गीतयुक्त मंडलाकार समूह नृत्य ।
६. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत सबसे तर्कसंगत संगत एवं सर्वमान्य है। उन्होंने 'रासक 'को छन्द- विशेष तथा काव्य भेद माना है। वीरगाथाओं में चारण कवियों ने 'रासक' शब्द का प्रयोग चरित काव्यों के लिए किया है। साथ ही अपभ्रंश में 29 मात्राओं का एक छंद प्रचलित रहा,जिसे 'रास' या 'रासा' कहते थे। रासक छंद प्रधान रचनाओं को रास काव्य कहा जाता था । बाद में रास काव्य उन रचनाओं के लिए प्रयोग होने लगा जिसमें किसी भी गेय छंद का प्रयोग किया गया हो । प्रारंभ में 'रास 'छंद केवल प्रेमपरक रचनाओं के संदर्भ में प्रयुक्त होता था, बाद में वीर रस प्रधान रचनाएं भी इसी छंद में लिखी जाने लगीं ।
७. हिंदी साहित्य कोश में 'रासो' के दो रूप की ओर संकेत किया गया है-गीत- नत्यरक (पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात में समद्ध होने वाला ) और छंद- वैविध्यपरक ( पूर्वी राजस्थान तथा शेष हिंदी में प्रचलित रूप ।)
प्रमुख रासो कवि और उनकी रचनाएं
(1) दलपति विजय - खुमाण रासो
रासो काव्य परंपरा की प्रारंभिक रचनाओं में 'खुमाण रासो' का स्थान सर्वोपरि है।आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'खुमान रासो 'को नवीं शताब्दी की रचना माना है, क्योंकि इसमें नवीं शती के चित्तौड़ नरेश खुमाण के युद्धों का चित्रण है। इसके रचयिता दलपति विजय है। इस ग्रंथ की प्रामाणिक हस्तलिखित प्रति पूना के संग्रहालय में सुरक्षित है। यह ५००० छंदों का विशाल काव्य -ग्रंथ है । इस कृतिका प्रमुख प्रतिपाद्य राजा खुमाण का चरित्रांकन करना है । उनके चरित्र के दो प्रस्थान बिंदु हैं- एक युद्ध और दूसरा प्रेम । राजाओं के युद्धों और विवाह के सरल वर्णनों से इस काव्य की भाव भूमि का विस्तार हुआ है । संदर्भानुसार नायिका- भेद, षट्ऋतु आदि के चित्रण भी मिलते हैं । इसमें श्रृंगार और वीर रस की प्रधानता है। इसमें दोहा,सवैया ,कवित्त आदि छंद प्रयुक्त हुए हैं। इसकी भाषा राजस्थानी हिंदी है । काव्य सौंदर्य भाषा शैली की दृष्टि से यह एक सरल और सफल काव्य माना जाता है।
(2) जगनिक - परमाल रासो या आल्हा खण्ड
उत्तर प्रदेश में 'आल्हा खंड' के नाम से जो काव्य प्रचलित है ,वही 'परमाल रासो 'के मूल रूप का विकसित रूप माना जाता है । 'आल्हा खंड' का सर्वप्रथम प्रकाशन १८६५ ई. में फर्रुखा- बाद के के तत्कालीन जिलाधीश 'चार्ल्स इलियट' ने करवाया था।यह रासो लोक- गेय काव्य था ।'आल्हा खंड' लोकगीत के रूप में बैसवाड़ा, पूर्वांचल ,बुंदेलखंड में गाया जाता है । 'परमाल रासो' के रचयिता कवि जगनिक है, जो महोबा के राजा परमर्दिदेव के आश्रित थे । यह वीर काव्य है। कवि ने इस काव्य में आल्हा और उदल नामक दो वीर सरदारों की वीरतापूर्ण लड़ाइयों का वर्णन किया है । इसका रचनाकाल तेरहवीं शती का आरंभ माना जाता है। इसमें गेयता का गुण है। आज भी जब इसे गायक संगीत के साथ गाते हैं, तब दुर्बलों में भी तलवार चलाने की स्फूर्ति आ जाती है । विवाह और शत्रु प्रतिशोध वीरता के प्रदर्शन का आधार रहे हैं। युद्धों के अत्यंत प्रभावशाली वर्णनों की इस काव्य में भरमार है। छंद- विधान की दृष्टि से इस काव्य की एक विशेष शैली है, जिसे आल्ह-शैली कहना ही उचित है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-
" जगनिक के मूल काव्य का क्या रूप था, यह कहना कठिन हो गया है । अनुमानत: इस संग्रह का वीरत्वपूर्ण स्वर तो सुरक्षित है , लेकिन भाषा और कथानकों में बहुत अधिक परिवर्तन हो गया है। इससे चंदबरदाई के पृथ्वीराज रासो की तरह इस ग्रंथ को भी अर्द्ध - प्रामाणिक कह सकते हैं।"
(3) शाङ्ंगधर - हम्मीर रासो
'हम्मीर रासो 'अभी तक एक स्वतंत्र कृति के रूप में उपलब्ध नहीं हो सका है।अपभ्रंश के'प्राकृत पैंगलम् 'नामक एक संग्रह ग्रंथ में इस काव्य के कुछ छंद मिले थे और उन्हीं के आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसकेअस्तित्व की कल्पना की थी। उनका अनुमान था कि इसमें हम्मीर और अलाउद्दीन के युद्धों का वर्णन तथा हम्मीर की प्रशंसा चित्रित होगी। प्रचलित धारणा के अनुसार इस कृति के रचयिता शाङ्ंगधर माने जाते हैं । परंतु निम्नलिखित पंक्तियों के आधार पर पंडित राहुल सांकृत्यायन ने इसे जज्जल नामक किसी कवि की रचना घोषित किया है -
" हम्मीर कज्जु जज्जल भणह,
कोलाहल मुंह यह जलउ ।
+ + + + + + +
पुर जज्जला मंतिवर,
चलिउ वीर हम्मीर । "
डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन है कि 'हम्मीर' शब्द अमीर का विकृत रूप है जो किसी पात्र का नाम न होकर एक विशेषण के रूप में प्रयुक्त होता रहा है । अभी तक इसकी कोई प्रति उपलब्ध नहीं हो सकी है।
(4) नल्हसिंह भाट - विजयपालरासो
रासो ग्रंथ परंपरा में विजयपाल रासो का नाम भी लिया जाता है ।इसके रचयिता नल्हसिंह भाट माने जातेहै । इसका रचनाकार सन् १२९८ ई. के आसपास है। इसमें मात्रा ४२ छंद ही उपलब्ध हैं। इस काव्य में राजा विजयपाल सिंह के युद्ध का ओजपूर्ण शैली में वर्णन किया गया है। यह गीत गाथात्मक रासो काव्य है।
(5) नरपतिनाल्ह - बीसलदेव रासो
'बीसलदेव रासो' की रचना नरपति नाल्ह कवि ने संवत् १२७२ ( सन् ११५५ ई. ) में की थी , जैसा कि निम्नलिखित उदाहरण से स्पष्ट है-
"बारह सौ बहोत्तरां मझरि ,
जेठ वदी नवमी बुधिवारि ।
नाल्ह रसायण आरंभई ,
शारदा तूठी ब्रह्म कुमारि ।
कासमीरां मुख मण्डनी ,
रास प्रसागों वीसलदेराइ ।"
प्रथम पंक्ति से संवत् १२७२ वर्ष माना गया है।
'बीसलदेव रासो ' मूलत: गेय काव्य था, अत:इसके रूप में परिवर्तन होता रहा है। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने १२८ छंदों की एक प्रति का संपादन किया है । यह पाठ 'बीसलदेव रासो' का मूल रूप बताया जाता है।
'बीसलदेव रासो' के रचनाकाल को लेकर भी विद्वानों में मतभेद है।
डॉ रामकुमार वर्मा 'बीसलदेव रासो' का रचनाकाल संवत् १०५८, आचार्य रामचंद्र शुक्ल संवत् १२१२, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी संवत् १२१२, मिश्रबंधु संवत् १२२०, गौरीशंकर हीराचंद ओझा संवत् १०३० से १०५६ के मध्य, मोतीलाल मनेरिया संवत् १५४५ से १५६० के मध्य मानते हैं। आज अधिकांश विद्वान इसका रचनाकाल १२१२ वि. ही स्वीकार करते हैं ।
'बीसलदेव रासो' में अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव तथा भोज परमार की पुत्री राजमती के विवाह, वियोग एवं पुनर्मिलन की कथा सरस शैली में प्रस्तुत की गई है। इसकी कथा चार खंडों में विभक्त है ।
प्रथम खंड में बीसलदेव के साथ भोज परमार की पुत्री राजमती के विवाह की घटना है। दूसरे खंड में बीसलदेव रूठकर उड़ीसा चला जाता है। तीसरे खंड में राजमती का विरहवर्णन तथा भोज द्वारा अपनी पुत्री राजमती को अपने घर लिवा ले जाने का प्रसंग है। चौथे खंड में बीसलदेव राजमती को वापस ले आता है ।
बीसलदेव रासो में कवि का लक्ष्य बीसलदेव की वीरता का गान न होकर नारी -चरित का गुणगान करना है। इस रचना का केंद्रीय पात्र रानी राजमती है। यह रचना एक श्रृंगार रस प्रधान है। इसमें श्रृंगार के संयोग तथा वियोग दोनों पक्षों के अत्यंत मार्मिक चित्र कवि ने प्रस्तुत किए हैं। बारह मासों तथा ऋतुओं के प्राकृतिक चित्र संयोग और वियोग में उद्दीपन का काम करते हैं। राजमती का विरह वर्णन इसमें प्रमुख है। विरह की विभिन्न दशाओं के वर्णन में समस्त प्रकृति सहायक हुई है तथा अनुभूतियों को भी उसने सुकुमारता प्रदान की है। राजमती में एक कुलीना गृहिणी का स्वाभिमान है, जो विरह के चित्रों को कांतिमय बनाता है। विरह वर्णन का एक उदाहरण देखिए-
" अस्त्रीयजन्म काईं दीधउ महेस।
अवर जन्म थारई घणा ये नटेस ।
राणि न सिरजीय धउलीय गाइ ।
वणषण्ड काली कोइली ।
हउं बइसती अंबा नइ चंपा की डाल । "
संयोग के समय भी यही कांति काव्य सौंदर्य की वृद्धि करती है। प्रस्तुत रासो वीर काव्य न होकर विरह -काव्य है। इसकी भाषा राजस्थानी है और कहीं- कहीं गुजराती के शब्द तथा अरबी- फारसी आदि के प्रयोग भी मिलते हैं।
(6) चंदबरदाई - पृथ्वीराज रासो
रासो काव्य परंपरा का सर्वश्रेष्ठ एवं प्रतिनिधि ग्रंथ 'पृथ्वीराज रासो' है । यह महाकवि चंदबरदाई की एकमात्र कृति
है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि" चन्द हिंदी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका 'पृथ्वीराज रासो' हिंदी का प्रथम महाकाव्य है । "
चंदबरदाई दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान के प्रमुख सामंत, सलाहकार, मित्र और राज कवि थे । इनके विषय में प्रसिद्ध है कि पृथ्वीराज और चंदबरदाई दोनों का जन्म एक ही दिन हुआ था और दोनों ने एक ही दिन यह संसार भी छोड़ा था । कवि चंद के चार पुत्र थे जिनमें से चतुर्थ पुत्र जल्हण था । जिस समय पृथ्वीराज को मुहम्मद गौरी बंदी बनाकर अपने देश गजनी ले जा रहा था, उस समय चंदबरदाई भी महाराज के साथ गए थे तथा अपने पुत्र जल्हण को अपनी अधूरी रचना 'पृथ्वीराज रासो' सौंप गए थे । इस संबंध में यह उक्ति प्रसिद्ध है-
" पुस्तक जल्हण हत्थ दै,
चलि गज्जन नृप काज ।"
बाद में जल्हण ने इस अधूरी रचना को पूर्ण किया था -
" रघुनाथ चरित हनुमंत कृत,
भूप भोज उद्धरिय जिमि ।
प्रथिराज सुजस कवि चन्द कृत,
चन्द नन्द उद्धरिय तिमिर ।। "
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में लिखा है-
" पृथ्वीराज रासो ढाई हज़ार पृष्ठों का बहुत बड़ा ग्रंथ है , जिसमें ६९ समय ( सर्ग या अध्याय ) हैं।
प्राचीन समय में प्रचलित प्राय: सभी छंदों का व्यवहार हुआ है ।मुख्य छंद हैं-कवित्त ( छप्पय), दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्य ।"
'पृथ्वीराज रासो' के बृहत,मध्यम, लघु और लघुतम चार संस्करण प्रसिद्ध है। इन चारों संस्करणों को देखकर पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता को लेकर विद्वानों के तीन वर्ग है। विद्वानों का एक वर्ग पृथ्वीराज रासो को प्रामाणिक रचना मानने वालों का है जिसमें मिश्र बंधु,डॉ. श्यामसुंदर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पंडया, कर्नल टॉड आदि विद्वान आते हैं। दूसरा वर्ग पृथ्वीराज रासो को पूर्णतया जाली एवं अप्रामाणिक मानने वालों का है जिसमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ. बूलर, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, श्यामल- दान, मुंशी देवीप्रसाद आदि विद्वान प्रमुख हैं। विद्वानों का तीसरा वर्ग पृथ्वीराज रासो को अर्द्धप्रामाणिक रचना मानने वालों का है। इस वर्ग में
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी , मुनि जिन- विजय आदि विद्वान है ।
इसमें अग्निकुण्ड से क्षत्रियों की उत्पत्ति से लेकर पृथ्वीराज के पकड़े जाने तक का सविस्तार वर्णन है। इसमें दिल्ली के अंतिम हिंदू सम्राट महाराजा पृथ्वीराज चौहान के जीवन और चरित्र के साथ-साथ सामंती वीर -युग की सभ्यता, रहन-सहन ,मान -मर्यादा ,खान-पान तथा अन्य जीवन विधियों का इतना क्रमवार और सही वर्णन हुआ है कि इसमें तत्कालीन समग्र युगजीवन अपने समस्त गुण -दोषों के साथ यथार्थ रूप में चित्रित हो उठा है । 'पृथ्वीराज रासो ' की ऐतिहासिकता को छोड़कर इसके काव्य- सौंदर्य की दृष्टि से भी विद्वान इसे महत्वपूर्ण ग्रंथ मानते हैं । भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण ग्रंथ है, जो कवि की कल्पनाशक्ति की तीव्रता और मर्मस्पर्शिता का परिचायक है।
इसमें मुख्यत: वीर और श्रृंगार रस का चित्रण हुआ है ।ये दोनों रस पृथ्वीराज चौहाण के व्यक्तित्व के दो पहलुओं को उद्घाटित करते है। वीर और श्रृंगार रस दोनों रसों की पृष्ठ- भूमि में नारी है ।उसे पाने के लिए युद्ध होते है और पा लेने पर जीवन का विलास पक्ष अपनी पूरी रमणीयता के साथ उभरता है। वीर और श्रृंगार रस के अतिरिक्त अन्य रसों करुण, रौद्र, बीभत्स आदि का भी चित्रण हुआ है ।
वस्तु वर्णन की दृष्टि से भी रासों का सौंदर्य अतुलनीय है। इसमें नगर,वन, उपवन, सेना ,युद्ध के वर्णनों के अतिरिक्त ऋतु वर्णन ,नख-शिख सौंदर्य वर्णन भी अति सरस है। इसकी भाषा डिंगल एवं पिंगल है, उन दिनों ये राजस्थान की साहित्यिक भाषाएं थीं। निःसंदेह 'पृथ्वी- राज रासो' हिंदी के आदिकाल की एक श्रेष्ठ काव्य कृति है।
अन्य रासो कवि - उनके ग्रंथ
१. जल्हण - बुद्धि रासो
२. माधव दास - राम रासो
चारण
३. अज्ञात - मुंज रासो
४. कवि दयाल - राणा रासो
५. कुम्भकर्ण - रतन रासो
६. अज्ञात - राउ जैतसीरो
रासो
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