आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य | Adikalin Apbhransh Sahitya
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य
अपभ्रंश नाम पहले -पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है। आदिकाल में हिंदी -साहित्य के समनांतर संस्कृत और अपभ्रंश साहित्य की भी रचना हो रही थी। इनमें से संस्कृत साहित्य का तो सामान्य जनता तथा हिंदी कवियों पर उतना प्रत्यक्ष प्रभाव नहीं पड़ रहा था, किंतु अपभ्रंश साहित्य भाषा की निकटता के कारण हिंदी साहित्य के लिए निरंतर साथ चलनेवाली पृष्ठभूमि का काम कर रहा था। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'अपभ्रंश काल' के अंतर्गत अपभ्रंश और आरंभिक हिंदी- दोनों की रचनाएं सम्मिलित कर ली हैं, किंतु नवीन खोजों से यह सिद्ध हो चुका है कि उनमें से कुछ रचनाएं आरंभिक हिंदी -साहित्य के अंतर्गत आती है और अन्य को अपभ्रंश साहित्य में रखा जाना ही उचित है। अपभ्रंश भाषा और उसके साहित्य का आविर्भाव छठी शती में होता है । छठी से १४ वीं शती तक अपभ्रंश भाषा के साहित्य का युग था ।इसमें ८वीं से १२वीं शती तक अपभ्रंश साहित्य का स्वर्णयुग कहा जा सकता है। सरहपा, स्वयंभू , जोइन्दु, रामसिंह, पुष्पदंत, धनपाल, कनकामर, अब्दुलरहमान, गोरखनाथ, हेमचंद्र, सोमप्रभ, विद्यापति, कण्हपा, मेरुतुंग, लुइपा, शबरपा, कुक्कुरिपा, श्रावकाचार, देवसेन, कृष्णाचार्य धर्मपाद, महीधर, शालीभद्र सूरि, गोपीचंद आदि इस भाषा के प्रमुख कवि हैं।
अध्ययन की सुविधा के लिए अपभ्रंश साहित्य को साधारणतया छह वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -
( 1 ) सिद्ध साहित्य
( 2 ) जैन साहित्य
( 3 ) नाथ साहित्य
( 4 ) लौकिक साहित्य
( 5 ) रासो साहित्य
( 6 ) गद्य रचनाएं
( 1 ) सिद्ध साहित्य
सिद्धों का क्षेत्र पूर्वी भारत रहा है। पूर्वी क्षेत्र इतिहास में आरंभ से ही प्रतिक्रिया का क्षेत्र रहा है।इस क्षेत्र में बौद्ध और जैन धर्म के आंदोलन का आविर्भूत हुए हैं। सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्व का प्रचार करने के लिए जो साहित्य देश भाषा( जनभाषा ) में लिखा, वह हिंदी के सिद्ध साहित्य की सीमा में आता है । राहुल सांकृत्यायन ने चौरासी सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है ,जिनमें सिद्ध सरहपा से यह साहित्य आरंभ होता है।
सिद्ध साहित्य बिहार से लेकर असम तक फैला था । बिहार के नालंदा एवं तक्षशिला विद्यापीठ इनके मुख्य अड्डे माने जाते हैं । बख्तियार खिलजी ने आक्रमण कर इन्हें भारी नुकसान पहुंचाया बाद में यह 'भोट ' देश चले गए।इन सिद्धों में सरहपा,शबरपा,लुइपा, डोम्भिपा, कण्हपा एवं कुक्कुरिपा हिंदी के मुख्य सिद्ध कवि हैं ।
प्रमुख सिद्ध कवि और उनकी रचनाएं
कवि - रचनाएं - ग्रंथों की संख्या
१. सरहपा - १. दोहाकोश - ३२ ग्रंथ
२.चर्यागीत कोष
२. शबरपा - १.चर्यापद - ---
२.चित्तगुहिगम्भीरार्य
३. महामुद्रावजगीति
४.शूदन्यतादृष्टि
३.डोमभिपा - १. डोम्बिगीतिका - २१ ग्रंथ
२. योगचर्या
३. अक्षरद्विकोपदेश
४. लुईपा १. अभिसमयविभंग
२. तत्वस्वाभाव - --
३. दोहाकोश
४. बुद्धोदय
५. भगवद् भिसमय
६. लुईपाद गीतिका
५. कण्हपा - १.कण्हपाद गीतिका - ७४ ग्रंथ
२.दोहाकोश
३.योगरत्नमाला
४.चर्याचर्यविनिश्चय
६. कुक्कुरिपा - १.स्रवपरिच्छेदन - १६ ग्रंथ
२.योगभवनोपदेश
३.तत्वसुखभावनासारि
( 2 ) जैन साहित्य
हिंदी साहित्य की उत्पत्ति और विकास में जैन धर्म का बहुत योगदान है । हिंदी के प्रारंभिक रूप का सूत्रपात करने में भी जैन धर्म का महत्वपूर्ण योग है।जैनों का क्षेत्र पश्चिमी भारत रहा है । पश्चिमी क्षेत्र में जैन साधुओं ने अपने मत का प्रचार हिंदी कविता के माध्यम से किया। इन कवियों की रचनाएं आचार ,रास, फागु,चरित आदि विभिन्न शैलियों में मिलती है । इन जैनों में स्वयंभू, पुष्पदंत, हेमचंद्र सूरी, मुनि रामसिंह , जोइदु, धनपाल, मेरुतुंग, सोमप्रभा सूरि, शालिभद्र सूरि, आसगु,जिनधर्म सूरि, सुमति गणि एवं विजयसेन सूरि हिंदी के मुख्य जैन कवि हैं।
प्रमुख जैन कवि और उनकी रचनाएं
कवि - रचनाएं
१. स्वयंभू - १.पउमचरिउ
२.रिट्ठणेमि चरित
३. पचामचरिउ
४. स्वयंभू छंद
२. पुष्पदंत - १. महापुराण
२. जसहर चरिउ
३. णायकुमार चरिउ
४. कोश ग्रंथ
३. हेमचंद्र सूरि - १. कुमारपाल चरित
२. प्राकृतानुशासन
३. छंदानुशासन
४. हेमचन्द्र शब्दानुशासन
५. त्रिसष्टि शालाकापुरुष चरित
६. देशीनाममाला कोष
४. मुनि रामसिंह - १. पाहुड़ दोहा
५. देवसेन - १. श्रावकाचार
२. लघुनयनचक्र
३. दर्शनसार
४. आराधना सार
५. तत्व सार
६. वृहतनय चक्र
७.दब्ब- सहाव- पयास
६. जोइंदु - १. परमात्मप्रकाश
२.योगसार
७. धनपाल - १. भविसयत्त कहा
८. मेरुतुंग - १. प्रबंध चिंतामणि
९. आसगु - १. चंदनबाला रास
२. जीवदया रास
१०.सुमति गुणि - १. नेमिनाथ रास
११.जिनधर्म सूरि - १. स्थूलिभद्ररास
१२. शालिभद्र सूरि - १. बुद्धि रास
२. पंच पांडव चरित रास
३.भरतेश्वर बाहुबली रास
१३. विजय सेन सूरि - १. रेवंतगिरिरास
१४.विनयचंद्र सूरि - १. नेमिनाथ चौपाई
१५.कनकामरमुनि - १. करकंड चरित
१६ सोमप्रभा सूरि - १.कुमारपाल प्रतिबोध
१७. सार मूर्ति - १.जिनि पदम् सूरि रास
१८. प्रज्ञा तिलक - १.कच्छुली
१९. उदयवंत - १. गौतम स्वामी रास
२०. प्रज्ञा तिलक - १. कच्छुली
( 3 ) नाथ साहित्य
सिद्ध -धारा की प्रतिक्रिया स्वरूप नाथ- धारा का आविर्भाव हुआ। सिद्धों में धर्म के नाम पर वामाचार फैल गया। फलस्वरूप नाथ-पन्थ का उदय हुआ। राहुल जी ने भी नाथ-पन्थ को सिद्धों की परंपरा का ही विकसित रूप माना है।
डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार-
" नाथ -पंथ या नाथ- संप्रदाय के सिद्ध-मत, सिद्ध-मार्ग, योग -मार्ग ,योग-संप्रदाय ,अवधूत -मत एवं अवधूत- संप्रदाय नाम भी प्रसिद्ध है।"
नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक मत्स्येन्द्रनाथ एवं गोरखनाथ माने जाते हैं। जिस प्रकार सिद्धों की संख्या 84 है उसी तरह नाथों की संख्या 9 है। इनके अतिरिक्त जालंधरनाथ, चौरंगीनाथ , चर्पटनाथ ,गोपीचंद एवं भर्तृनाथ आदि नाथ संप्रदाय के मुख्य कवि हैं।
नाथ संप्रदाय के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं
कवि रचनाएं
१. मत्स्येन्द्रनाथ १. ज्ञानकारिका
२. कुलानंद
३. कौलज्ञान निर्णय
४. अकुलवीरतंत्र
२. गोरखनाथ १. प्राण संकली
२. सिष्यादरसन
३. नरवैबोध
४. अभैमात्रा जोग
५. आतमबोध
६. पन्द्रह तिथि
७. सप्तवार
८. रोमावली
९. सबदी
१०. पद
११. ग्यानतिलक
१२. ग्यानचौंतीसा
१३. पंचमात्रा
१४. मच्छींद्र गोरखबोध
३. जालंधरनाथ १.विमुक्तमंजरी गीत
२. हुंकारचित
३. बिंदुभावना क्रम
४. चौरंगीनाथ १. प्राणसंकली
२. वायुतत्वभावनोपदेश
५. चर्पटनाथ १. चतुभवाभिवासन
६. गोपीचंद १. सबदी
७. भर्तृनाथ १. वैराग्य शतक
( 4 ) लौकिक साहित्य
लौकिक साहित्य से अभिप्राय उस साहित्य से है जो लोक संवेदना से उपजकर उसका संवर्धन ,संचयन और प्रकटीकरण करता है। इसके साथ ही वह लोक जीवन से अविच्छन्न रहकर लोक का कंठहार बना रहता है । इसके संरक्षण का दायित्व लोग द्वारा ही निभाया जाता है।
सिद्धों,नाथपंथियों एवं जैन कवियों के धार्मिक एवं सांप्रदायिक साहित्य से भिन्नअपभ्रंश साहित्य में एक धारा लौकिक साहित्य की भी है। इस धारा के कवियों में अब्दुर्रहमान तथा विद्यापति प्रमुख हैं। अमीर खुसरो अपनी मुकरियों और पहेलियों के कारण प्रसिद्ध है । लौकिक साहित्य के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं निम्नलिखित हैं-
लौकिक साहित्य के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं
कवि रचनाएं
१. अब्दुर्रहमान १. संदेशरासक
२. विद्यापति १. कीर्तिलता
२. कीर्तिपताका
३. विद्यापति पदावली
३. कल्लोल १. ढोला मारू रा दूहा
४. अज्ञात है वसंत-विलास
(आदिकाल के इतिहास में बेजोड़ रचना है।)
५. अमीर खुसरो १. पहेलियां
२. मुकरियां
३. दो सखुने
४. खालिक बारी
५. नुहसिपहर
६. नजराना- ए-हिंदी
७. हालात- एकन्हैया
(भक्तिपरक रचना)
८. तुग़लकनामा
(अंतिम रचना )
६. भट्ट केदार १. जयचंद्र -प्रकाश
७. मधुकर १. जयमयंक-जसचंद्रिका
(5) रासो साहित्य
अपभ्रंश में चरित -काव्यों की परंपरा से भिन्न एक रास काव्य परंपरा भी आरंभ हुई थी। हिंदी साहित्य के आदिकाल में रचित जैन ' रास- काव्य ' वीरगाथाओं के रूप में लिखित रासो- काव्यों से भिन्न है। दोनों की रचना -शैलियों का अलग-अलग भूमियों पर विकास हुआ है। जैन रास -काव्यों में धार्मिक दृष्टि से प्रधान होने से वर्णन की वह पद्धति प्रयुक्त नहीं हुई, जो वीरगाथापरक रासो- ग्रन्थों में मिलती है। इन काव्यों की विषयवस्तु का मूल संबंध राजाओं के चरित तथा प्रशंसा से है । फलत: इनका आकार रचनाकारों की मृत्यु के पश्चात भी बढ़ता रहा है। 'बीसलदेव रासो'( नरपतिनाल्ह) हिंदी के आदिकाल की एक श्रेष्ठ काव्य- कृति है। 'पृथ्वीराज रासो'( चंदबरदाई) हिंदी का प्रथम महाकाव्य है।
रासो साहित्य के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं
कवि रचनाएं
१. दलपत विजय १. खुमाण रासो
२. नरपतिनाल्ह १. बीसलदेव रासो
३. चंदबरदाई १. पृथ्वीराज रासो
४. जगनिक १. परमाल रासो
(आल्हाखण्ड )
५. शाङ्ंगधर १. हम्मीर रासो
६. नल्हसिंह भाट १. विजयपाल रासो
७. जल्ह १. बुद्धि रासो
८. माधवदास चारण १. राम रासो
९. दयाल १. राणा रासो
१०. कुम्भकर्ण १. रतन रासो
११. अज्ञात १. मुंज रासो
१२. अज्ञात १.राउ जैतसीरो रासो
(6) गद्य साहित्य
आदिकाल में काव्य रचना के साथ-साथ गद्य रचना की दिशा में भी कुछ स्फुट प्रयास लक्षित होते हैं।
गद्य साहित्य के प्रमुख रचनाकार एवं उनकी रचनाएं
रचनाकार रचनाएं
१. रोड़ा कवि १. राउलवेल
(गद्य पद्य मिश्रित चम्पू काव्य)
२. दामोदर शर्मा १.उक्ति- व्यक्ति- प्रकरण
३. ज्योतिरीश्वर ठाकुर १. वर्णरत्नाकर
हिंदी गद्य के विकास में ' राउलदेव 'के पश्चात 'वर्णरत्नाकर 'का योगदान भी कम नहीं कहा जा सकता। निश्चय ही इन कृतियों के बीच के समय में भी गद्य रचनाएं लिखी गई होंगी, परंतु विभिन्न कारणों से अब वे उपलब्ध नहीं हैं। फिर भी ये कृतियां गद्य धारा के प्रवाह की अखंडता तो सिद्ध करती ही हैं ।
निष्कर्ष:
इस प्रकार सर्वांग दृष्टि से देखा जाए तो अपभ्रंश -साहित्य भारत में पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण तक समान रूप से लोक- चेतना की अभिव्यक्ति करता है।वह साहित्य अपने परवर्ती साहित्य को कई दिशाओं में प्रभावित करता है ।
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