भारतीय आर्य भाषा का विकास क्रम। प्राचीन भारतीय आर्य भाषा, मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा तथा आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का परिचय, विभाजन, प्रमुख विशेषताएं एवं इतिहास। पालि, प्राकृत और अपभ्रंश की व्युत्पत्ति, अपभ्रंश भाषा का उदय तथा विकास
भारतीय आर्य भाषाओं का विकास-
क्रम बताते हुए प्राचीन और मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषाओं का परिचय
भाषाओं के पारिवारिक वर्गीकरण के आधार पर विश्व की भाषाओं को अनेक परिवारों में बांटा गया है। उनमें 'भारोपीय परिवार' की भाषाओं का विशेष महत्व है। भारतीय आर्य भाषाएं इसी'भारोपीय परिवार' में आती हैं।
भारत में आर्यों के आने के बाद उनकी भारतीय आर्य भाषा का इतिहास शुरू होता है। भारतीय आर्य, ईरानियों एवं दरद लोगों से अलग होकर १५००ई.पू के आस-पास पश्चिमी एवं पश्चिमोत्तरी सीमा से भारत में प्रविष्ट हुए।
हार्नले का कहना है कि -
" भारत में आर्य दो बार आए और तब से आर्य भाषा का इतिहास शुरू होता है।"
भारत में आर्य भाषा का प्रारंभ १५०० ई.पू. के आसपास से होता है। तब से आज तक भारतीय आर्य भाषा की आयु साढ़े तीन हजार वर्षों की हो चुकी है ।
भाषिक विशेषताओं के आधार पर भारतीय आर्य भाषा की इस लंबी आयु को तीन कालों में बांटा गया है-
[1] प्राचीन भारतीय आर्य भाषा ( १५००ई.पू. से ५००ई.पू.तक )
[2] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा ( ५००ई.पू.से १००० ई.तक )
[3] आधुनिक भारतीय आर्य भाषा (१०००ई. से अब तक )
[1] प्राचीन भारतीय आर्य भाषा (१५००ई.पू. से ५००ई. पू.तक)
आर्य जब भारत में आए उस समय उनकी भाषा तत्कालीन ईरानी भाषा से कदाचित बहुत अलग नहीं थी। वह अपनी भगिनी भाषा ईरानी से कई बातों में अलग हो गई।
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा के अंतर्गत भाषा के दो रूप मिलते हैं-
( क ) वैदिक संस्कृत (१५००ई.पू. से ८००ई.पू.तक)
( ख ) लौकिक संस्कृत ( संस्कृत) (८००ई.पू.से ५००ई.पू.तक )
( क ) वैदिक संस्कृत (१५०० ई.पू.से ८००ई.पू.तक )
इसे 'प्राचीन संस्कृत', 'वैदिकी' या 'छन्दस् ' आदि अन्य नामों से भी पुकारा गया है। संस्कृत का यह
रूप वैदिक संहिताओं , ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा प्राचीन उपनिषदों आदि में मिलता है। इन ग्रंथों में भाषा का एक रूप नहीं है।
वैदिक संस्कृत में भाषा के तीन रूप मिलते हैं-
१. उत्तरी २. मध्यदेशीय ३. पूर्वी
चारों वेद -ऋग्वेद, यजुर्वेद ,सामवेद और अथर्ववेद की भाषा वैदिक संस्कृत ही है। वैदिक संस्कृत का प्राचीनतम रूप ऋग्वेद के मंत्रों में देखने को मिलता है। ऋग्वेद के मंत्रों की रचना एक ही समय में नहीं हुई। अत: अलग-अलग समय में लिखे गए मंत्रों में भाषागत विभिन्नता का होना स्वाभाविक है। ऋग्वेद वैदिक संस्कृत का साहित्यिक रूप है।
ब्राह्मण - ग्रंथों की भाषा वैदिक मंत्रों की भाषा से भिन्न है और लौकिक संस्कृत से मिलती -जुलती है।
उपनिषदों की भाषा में विलक्षण प्रवाह है ।
( ख ) लौकिक संस्कृत ( संस्कृत) ( ८००ई.पू. से ५०० ई. पू. तक )
इसे' संस्कृत' तथा 'क्लैसिकल संस्कृत' भी कहते हैं। लौकिक संस्कृत का मूल आधार वैदिक संस्कृत का
उत्तरी रूप ही है। लौकिक संस्कृत साहित्यिक की भाषा है। पाणिनि के 'अष्टाध्यायी' नामक व्याकरण ग्रंथ की रचना के साथ संस्कृत भाषा का परिष्कृत रूप प्रकट हुआ। पाणिनि के बाद कात्यायन तथा पतंजलि आदि ने भी व्याकरण लिखे।
भाषा के अर्थ में 'संस्कृत' शब्द का प्रथम प्रयोग "वाल्मीकि रामायण" में मिलता है। लौकिक संस्कृत साहित्यिक भाषा है। संस्कृत में महाभारत, तथा बाद के कालिदास, भवभूति, अश्वघोष, बाण, भास आदि के काव्य, गद्य और नाटक आदि लिखे गए। संस्कृत का साहित्य विश्व के उन्नतम साहित्यों में से एक है और कालिदास विश्व के सर्वश्रेष्ठ कवियों में से एक है। कालिदास का'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' नाटक संस्कृत भाषा श्रृंगार का है। विश्व की अनेक भाषाओं में संस्कृत के अनेक ग्रंथों का अनुवाद हुआ है।
प्राचीन भारतीय आर्य भाषा की विशेषताएं
(१) भाषा श्लिष्ट योगात्मक थी।
(२) इसमें पाणिनि का महत्वपूर्ण योगदान था ।
(३ )इसमें तीन लिंग और तीन वचन थे ।
(४ )वैदिक संस्कृत का शब्द भंडार अधिकांशत: तत्सम शब्दों का था । इसके अतिरिक्त तद्भव, देशज या विदेशी शब्द भी थे ।
(५) शब्दों में धातु का अर्थ प्राय: सुरक्षित था । लौकिक संस्कृत तक आते-आते कुछ-कुछ अर्थ परिवर्तन आरंभ हो गया था ।
(६) वैदिक संस्कृत संगीतात्मक भाषा थी । साथ ही स्वराघात भी था। स्वराघात के कारण अर्थ में परिवर्तन भी हो जाता था। लौकिक संस्कृत तक आते-आते संगीतात्मकता समाप्त होने लगी और स्वराघात का और विकास होने लगा ।
(७) वैदिकी में रूप रचना अत्यंत जटिल थी। रूप बहुत अधिक थे। लौकिक संस्कृत में आकर रूप कुछ कम हो गए।
[2] मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा (५०० ई.पू. से १००० ई. तक)
लौकिक संस्कृत को पाणिनि ने अपने व्याकरण में जकड़ कर उसे सदा सर्वदा के लिए स्थायी रूप दे दिया, किंतु जन भाषा भला इस बंधन को कहां मानती? वह अबाध गति से परिवर्तित होती रही। इस जनभाषा के मध्यकालीन रूप को ही 'मध्यकालीन आर्य भाषा' की संज्ञा दी गई है। इसका काल मोटे रूप से ५०० ई.पू.से १००० ई.तक का अर्थात् डेढ़ हजार वर्षों का है।
मध्यकालीन आर्य भाषा को 'प्राकृत' भी कहा गया है।
प्राकृत की व्युत्पत्ति
'प्राकृत ' शब्द के संबंध में दो मत हैं-
(१) कुछ लोग इसकी व्युत्पत्ति ' 'प्राक+कृत 'अर्थात् ' पहले की बनी हुई ' मानते हैं।
नमि साधु ने 'काव्यालंकार' की टीका में लिखा है -
"प्राकृतेति,सकलजगज्जन्तूनां
व्याकरणादिभिरनाहित- संस्कार:
सहजो वचनव्यापार: प्रकृति: तत्र
भव: सेव वा प्राकृतम् । "
इस रूप में प्राकृत पुरानी भाषा है और संस्कृत उसका संस्कार करके बनाई हुई बाद की भाषा।
' ग्रियर्सन 'ने इसी को 'प्राइमरी प्राकृत' कहा है।
( २) दूसरे लोग प्राकृत की उत्पत्ति और ढंग से करते हैं ।
हेमचंद्र का कथन है-
" प्रकृति: संस्कृतम् ।
तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् ।"
अर्थात् प्रकृति या मूल संस्कृत है, और संस्कृत से जो आई है, वह प्राकृत है।
यहां हम देखते हैं कि दोनों मत एक- दूसरे के विरोधी हैं। एक प्राकृत से संस्कृत का जन्म मानता है, तो दूसरा संस्कृत से प्राकृत का जन्म। यहां, यह बात ध्यान देने योग्य है कि यह प्राकृत भाषा वैदिक या लौकिक संस्कृत सेउद्भुत नहीं है, अपितु तत्कालीन जनभाषा से उद्भूत है या उसका विकसित रूप है।
मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा को तीन कालों में विभाजित किया गया है-
( क ) प्रथम प्राकृत (५०० ई.पू.से १ ई. तक)
( ख ) द्वितीय प्राकृत ( १ ई. से ५०० ई. तक )
( ग ) तृतीय प्राकृत ( ५०० ई. से १००० ई. तक)
( क ) प्रथम प्राकृत ( ५०० ई.पू. से १ ई. तक)
इसमें पालि तथा अभिलेखी प्राकृत आती है।
(1) पालि
पालि बौद्ध धर्म की भाषा है। इसे 'मागधी' या ' देश भाषा 'भी कहा गया है। 'पालि ' नाम 'पालि 'शब्द की व्युत्पत्ति को लेकर विद्वानों में बहुत मतभेद है।
(1) श्री विद्युशेखर भट्टाचार्य के अनुसार 'पालि 'का संबंध संस्कृत 'पंक्ति'( पंति/पत्ति/पट्ठि/ पल्लि/पालि) से है।
( 2) एक मत के अनुसार यह 'पल्लि' या 'गांव 'की भाषा थी। 'पालि' शब्द 'पल्लि' का ही विकास हैं, अर्थात् इसका अर्थ है 'गांव की भाषा।'
( 3) कोसाम्बी नामक बौद्ध विद्वान के अनुसार इसका संबंध 'पाल ' अर्थात् 'रक्षा करना' से है, इसने बुद्ध के उपदेशों को सुरक्षित रक्खे हैं, इसलिए यह नाम पड़ा है।
(4) डॉ.मैक्सवेलेसर ने पाली को ' ' 'पाटलि '( पाटलीपुत्र की भाषा) से व्युत्पन्न माना है ।
(5) सबसे प्रामाणिक व्युत्पत्ति भिक्षु जगदीश कश्यप द्वारा की गई है। प्राय: बहुत से भारतीय विद्वान इससे सहमत हैं। इनके अनुसार 'पालि'का संबंध 'परियाय' से है ।इसकी विकास परंपरा (परियाय/ पलियाय/पालियाय/ पालि है ।
पाली भाषा का मानक रूप मूलत: कहां की भाषा पर आधारित है?
इस बात को लेकर विद्वानों में मतभेद है। कुछ लोग इसे मगध की भाषा मानते हैं किंतु काफी लोग इसे मध्य प्रदेश की भाषा कहते हैं ।
पाली साहित्य का संबंध प्रमुखत: भगवान बुद्ध से है। त्रिपिटक, जातक, धम्मपद और महावंश
आदि में पालि भाषा का ही प्रयोग हुआ है। पाली साहित्य का रचना काल ४८३ ई.पू. से लेकर आधुनिक काल तक लगभग ढाई हजार वर्षों में फैला हुआ है।
पालिकाल में आर्य- भाषी भारत में चार बोलियां थी।
1. पश्चिमोत्तरी 2. दक्षिणी
3. मध्यवर्ती 4. पूर्वी
पाली भाषा की कुछ प्रमुख सामान्य विशेषताएं
(१) वैदिक संस्कृत में प्रयुक्त अधिकांश ध्वनियों का प्रयोग तो पालि में होता रहा, किंतु ऋ,ॠ,ऌ,ऐ,औ, श, ष, विसर्ग या अघोष ह, जिह्वामूलीय, उपध्यमानीय इन दस ध्वनियों का लोप हो गया। साथ ही ह्रस्व ए और ह्रस्व ओ, दो नई ध्वनियां विकसित हो गई।
(२) ध्वनि और रूप दोनों ही दृष्टियों से पालि में तत्कालीन कई बोलियों के तत्व हैं।
(३) ध्वनि और रूप दोनों ही दृष्टियों से पालि वैदिक संस्कृत के निकट है, यहां तक की संस्कृत की अपेक्षा भी यह निकट है। यद्यपि इसमें बहुत से विकसित रूपों का भी प्रयोग हुआ है।
(४) पालि में तद्भव शब्दों का प्रयोग अधिक है। इसके अतिरिक्त तत्सम और देशज शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। विदेशी शब्द बहुत कम है।
(५) द्विवचन का प्रयोग नाम तथा धातु रूपों में नहीं था ।
(६) लिंग तीन थे।
(७) आत्मनेपद कुछ ही रूपों में शेष था।
(८)समवेत रूप से रूप कम हो गए।
(९) पालि साहित्य देखने से पता चलता है कि आद्यंत पालि का एक रूप नहीं रहा है। उसके कम से कम चार सीढियों का अनुमान लगता है। भाषा की पहली सीढ़ी त्रिपिटक(सुत्त, विनय ,अभिधम्म) की गाथाओं में मिलती है।यह पालि का प्राचीनतम रूप है। इसमें रूपों का बाहुल्य है।
(१०) व्यंजनांत प्रातिपादिक बहुत कम रह गए थे ।
(2) अभिलेखी प्राकृत
इसके अधिकांश लेख शिला पर हैं, अतः इसकी एक संज्ञा 'शिलालेखी प्राकृत 'भी है । इसकी सामग्री है-
* अशोकी अभिलेख
* अशोकेतर अभिलेख
अशोक के अनेक लेख लाटों पर मिलते हैं इसलिए कुछ लोगों ने इसे 'लाट प्राकृत 'या 'लाटबोली 'भी कहा है।
सम्राट अशोक ने अपने राज्य काल में अनेक शिलालेख खुदवाए थे। ये लेख शासन तथा धर्म संबंधी हैं। ये लेख प्रमुखत: स्तंभों और चट्टानों पर हैं ,जिनकी संख्या 20 से ऊपर है। इन लेखों का उद्देश्य जनता में धार्मिक विचारों एवं शासनादेशों को फैलाना है ।इसलिए ये शिलालेख अलग-अलग स्थानों पर वहां की स्थानीय बोली में खुदवाए गए हैं।अत: कहा जा सकता है कि अशोकी अभिलेख कोई एक व्यवस्थित या संगठित भाषा नहीं है बल्कि ई .पू. तीसरी शती की अनेक स्थानीय बोलियों का समूह है।
अभिलेखी प्राकृत या शिलालेखी प्राकृत की कुछ प्रमुख विशेषताएं-
(१) ध्वनियां प्रायः पालि के समान ही हैं। प्रमुख अंतर उष्म व्यंजनों के संबंध में है। पालि में केवल 'स' का प्रयोग मिलता है, किंतु शिलालेखी प्राकृतों में इस दृष्टि से एक्य नहीं है। शहबाजगढ़ी के अभिलेख में श्, स्, ष् तीनों का प्रयोग हुआ है।
(२) द्विवचन नहीं है। लिंग तीन हैं।
(३) प्रातिपादिक अधिकांशत: स्वरांत हैं।
(४) आत्मनेपद समाप्त प्राय: है।
(५) सादृश्य के कारण पालि की तुलना में भी इसमें रूप कम मिलते हैं।
(६) इसमें ध्वनियों में विकास हो गया है और यह विकास आगम, लोप, समीकरण, विषमीकरण ,विपर्यय, तालव्यीकरण, मूर्द्धव्यीकरण,ह्रस्वी- करण, दीर्घीकरण तथा घोषीकरण आदि अनेक दिशाओं में हुआ है।
(७) अन्य भी अधिकांश बातों में भाषा पालि के समान है।
( ख ) द्वितीय प्राकृत ( १ ई. से ५०० ई. तक )
द्वितीय प्राकृत के लिए भी' प्राकृत' नाम का प्रयोग होता है। मध्यकालीन आर्य भाषा के सभी रूपों को प्राकृत कहते हैं। महावीर तथा बुद्ध के समय से प्राकृत जनभाषाओं में धार्मिक साहित्य की रचना हो रही थी ।बाद में इन भाषाओं का साहित्यिक महत्व स्वीकार किया जाने लगा और इनमें साहित्यिक रचनाएं भी होने लगी। इन्हीं प्राकृतों को 'साहित्यिक प्राकृत' कहा जाने लगा।प्राकृत के व्याकरण- कारों में वरुरुचि का नाम सर्वप्रथम आता है ।उनका 'प्राकृत प्रकाश' नामक ग्रंथ अत्यंत महत्वपूर्ण है।
प्राकृत भाषाओं के विकास में तथा उसके साहित्य निर्माण में जैनियों का विशेष हाथ रहा है। संस्कृत के नाटकों में भी प्राकृत का प्रयोग हुआ है।
साहित्यिक प्राकृत के प्रमुख भेद निम्नलिखित हैं-
(1) शौरसेनी
शौरसेनी प्राकृत मूलतः मथुरा या शूरसेन के आसपास की बोली थी।
इसे परिनिष्ठित भाषा भी कहा जाता है। इसका प्रयोग संस्कृत नाटकों में हुआ है। 'कपूरमंजरी' नाटक इसी भाषा में है। इसका प्राचीनतम रूप अश्वघोष के नाटकों में मिलता है।
यह गद्य की भाषा मानी जाती है ।शौरसेनी के अन्य स्थानीय रूप अवन्ती ,आभीरी आदि हैं ।
(2) पैशाची
इसके अन्य नाम पैशाचिका, ग्राम्य- भाषा ,भूतभाषा ,भूतभाषित ,भूत-वचन आदि भी मिलते हैं।गुणाढ्य ने पैशाची में ही अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'बृहत्कथा' लिखी थी।यह पश्चिमोत्तरी क्षेत्र की बोली थी ।
(3) महाराष्ट्री या माहाराष्ट्री
इस प्राकृत का मूल स्थान महाराष्ट्र हैं। महाराष्ट्री प्राकृत साहित्य की दृष्टि से बहुत धनी है।यह काव्य भाषा रही है।हाल की 'गाहा सत्तसई', प्रवरसेन की 'रावणवहो' इसकी अमर कृतियां है । कालिदास हर्ष आदि ने अपने नाटकों के गीतों की रचना इसी भाषा में की है।
(4) मागधी
मागधी प्राकृत मगध के आसपास की भाषा है। संस्कृत नाटकों में निम्न श्रेणी के पात्र इसका प्रयोग करते हैं। वररुचि के अनुसार यह शौरसेनी से विकसित हुई है ।इसका प्राचीनतम रूप 'अश्वघोष 'में मिलता है। चक्की, शाबरी तथा चांडाली इसके जातीय रूप थे ।
(5) अर्द्धमागधी
इसका क्षेत्र मागधी और शौरसेनी के बीच में है। यह कौशल प्रदेश की भाषा थी । जैनियों ने इसके लिए 'आर्ष ','आर्षी,' और 'आदि भाषा' का भी प्रयोग किया है। इसका प्रयोग जैन साहित्य में गद्य और पद्य दोनों में हुआ है। 'मुद्राराक्षस ' प्रबोध - चंद्रोदय 'में इसका प्रयोग मिलता है।
प्राकृत भाषाओं की कुछ सामान्य विशेषताएं
(१) ध्वनि की दृष्टि से प्राकृत भाषाएं पालि के पर्याप्त निकट हैं। इनमें भी पालि की तरह ह्रस्व ए और ओ ,ळ, ळह का प्रयोग चलता रहा।ऐ,औ,ऋ, ऌ का प्रयोग नहीं हुआ। ऋ का प्रयोग लिखने में तो हुआ है किंतु भाषा में यह ध्वनि थी नहीं । ये ध्वनि विशेषताएं जो पालि से प्राकृत को अलग करती है वह इस प्रकार हैं-
(क) उष्म व्यंजनों में पालि में केवल 'स' का प्रयोग होता था। प्राकृत में पश्चिमोत्तरी क्षेत्र में श, ष,स , तीनों ही कुछ काल तक थे। बाद में 'ष' ध्वनि 'श' में परिवर्तित हो गई।मागधी में केवल 'श' है। अर्द्धमागधी में केवल 'स' का प्रयोग हुआ है। पैशाची में 'श', 'ष' दोनों का प्रयोग हुआ है।
(ख) य, र, ल के प्रयोग के संबंध में भी कुछ विशेषताएं हैं। मागधी में ' र ' ध्वनि नहीं है। उसके स्थान पर ' ल ' मिलता है।कुछ अन्य में कभी- कभी ' र ' के स्थान पर ' ल ' और ' ल ' के स्थान पर ' र ' मिलता है।
(२) प्राकृतों में व्यंजनांत शब्द प्राय: नहीं हैं।
(३)आत्मनेपद पालि की तरह ही प्राकृतों में भी प्राय: नहीं के बराबर हैं ।
(४) द्विवचन के रूपों का प्रयोग ( संज्ञा ,क्रिया आदि में) प्राकृतों में नहीं मिलता।
(५) प्राकृतों में ' न 'का विकास प्राय: ' ण ' रूप में हुआ है।
(६) ध्वनियों में परिवर्तन और तेजी से होने लगा। ध्वनि परिवर्तन सबसे अधिक माहाराष्ट्री तथा मागधी में हुए ।
(७) प्राकृत काल में भाषा अयोगा- त्मकता या वियोगात्मकता की ओर तेजी से बढ़ने लगी ।
(८)प्राकृत काल में सादृश्य के कारण नाम और धातु दोनों ही रूपों में और भी कमी हुई, इसी प्रकार भाषा अधिक सरल हो गई।
(९) संस्कृत की तुलना में शब्दों में अर्थ की दृष्टि से भी परिवर्तन हुए। धातु के अर्थ शब्दों में पूर्णत: सुरक्षित न रह सके ।
(१०) प्राकृतों में अधिकांश शब्द तद्भव है। साथ ही इस काल में देशज शब्दों का भी विकास हो गया हैं । हेमचंद्र के 'देशी नाम माला' तथा धनपाल की 'पाइअलच्छी' में ऐसे शब्द देखने को मिलते हैं।
( ग ) तृतीय प्राकृत ( ५०० ई.से १००० ई. तक )
तृतीय प्राकृत में अपभ्रंश भाषा आती है।
अपभ्रंश भाषा का उदय तथा विकास
अपभ्रंश शब्द का प्राचीनतम प्रामा- णिक प्रयोग पतंजलि के' महाभाष्य' में मिलता है। अपभ्रंश का विकास प्राकृत कालीन बोलचाल की भाषा से हुआ है और इस रूप में उसे प्राकृत और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं के बीच की कड़ी कहा जाता है। अपभ्रंश को अवहंस, अव-हठ, ग्रामीण भाषा, देश भाषा,अप-भ्रष्ट,अवहत्थ आदि अन्य नामों से भी पुकारा जाता है।
अपभ्रंश शब्द का अर्थ और प्रयोग:
अपभ्रंश शब्द का अर्थ है- 'गिरा हुआ' या 'बिगड़ा हुआ।' अपभ्रंश शब्द का प्राचीनतम प्रयोग अब तक की जानकारी के आधार पर पतंजलि के 'महाभाष्य' में उपलब्ध होता है, जो भाषा के अर्थ में न होकर देशी शब्दों के लिए है। भरत, दंडी, भर्तृहरि आदि आचार्यों ने संस्कार हीन अपाणिनीय देशी शब्दों को अपभ्रंश कहा है।
अपभ्रंश की मूल भाषा तथा क्षेत्र- विस्तार
प्राकृत की मूलभाषा की भांति अपभ्रंश की मूलभाषा के संबंध में भी बड़ा विवाद है; किंतु प्रायः यह सर्वमान्य-सा है कि इसकी मूलभाषा महाराष्ट्री प्राकृत है, जिससे विकसित होकर इसने अपनी विशेषताओं के कारण एक स्वतंत्र रूप ग्रहण किया। ११वीं १२वीं शताब्दी तक यह समस्त पश्चिमी भारत और मध्य प्रदेश की साहित्यिक भाषा हो गई। १३वीं शताब्दी में इसका प्रसार साहित्यिक भाषा के रूप में संपूर्ण उत्तरी भारत में पंजाब से लेकर बंगाल तक हो गया ।
अपभ्रंश भाषा के उदाहरण:
अपभ्रंश भाषा के प्राचीनतम उदाहरण भरत के'नाट्यशास्त्र' में मिलते है। कालिदास के नाटक 'विक्रमोर्वशी' के चौथे अंक में अपभ्रंश के कुछ छंद मिलते हैं।
अपभ्रंश का विभाजन
अपभ्रंश के विभाजन को लेकर विद्वानों में बहुत विवाद है।
1. नमिसाधु ने अपभ्रंश के उपनागर आभीर और ग्राम्य तीन भेद माने हैं।
2. मार्कण्डेय ने 'प्राकृत सर्वस्व' में अपभ्रंश के तीन साहित्यिक रूप माने हैं- नागर,ब्राचड़ और उपनागर
3. डॉ. तगारे ने 'हिस्टोरिकल ग्रामर ऑफ़ अपभ्रंश ' में अपभ्रंश के तीन रूप माने हैं- दक्षिणी पश्चिमी और पूर्वी।
4. डॉ नामवर सिंहने 'हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग 'नामक पुस्तक में अपभ्रंश के केवल दो भेद माने हैं- पश्चिमी और पूर्वी।
अपभ्रंश साहित्य की रचना
अपभ्रंश साहित्य की रचना जिस भाषा में हुई है, उसमें भाषाभेद अधिक नहीं है वह भाषा प्राय: परिनिष्ठित है। अपभ्रंश प्राकृत और आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की बीच की कड़ी है। उत्तरी भारत में कम से कम 13 रूप पर्याप्त विकसित हो चुके थे। इसलिए भोलानाथ तिवारी का कहना है कि " प्राकृत के पांच रूपों-शौरसेनी, पैशाची, महाराष्ट्री,मागधी तथा अर्द्ध-मागधी को विद्वान मानते ही हैं, तो फिर पांच और तेरह के बीच को मिलाने वाली सीढ़ी दो-तीन तो नहीं हो सकती ।"
अपभ्रंश के भेद:
डॉ. भोलानाथ तिवारी ने तेरह में से ६ अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की उत्पत्ति इस प्रकार बतलाइ है-
क्रम |
अपभ्रंश |
उनसे
निकलने वाली आधुनिक भाषाएं |
1. |
शौरसैनी |
पश्चिमी
हिंदी, राजस्थानी, पहाड़ी, गुजराती |
2. |
पैशाची |
लहंदा, पंजाबी |
3. |
ब्राचड़ |
सिंधी |
4. |
महाराष्ट्री |
मराठी |
5. |
मागधी |
बिहारी, बंगाली, उड़िया, असमिया |
6. |
अर्द्धमागधी |
पूर्वी हिंदी |
अपभ्रंश की सामान्य विशेषताएं
(१) अपभ्रंश में वे ही ध्वनियां थी
जिनका प्रयोग प्राकृत में होता था।
(२) स्वरों का अनुनासिक रूप प्रयुक्त होने लगा था।
(३) ध्वनि परिवर्तन की दृष्टि से जो प्रवृत्तियां पालि में शुरू होकर प्राकृत में विकसित हुई थीं, उन्हीं का यहां आकर और विकास हो गया ।
(४) अपभ्रंश एक उकार- बहुला भाषा थी।
(५) भाषा में धातु और नाम दोनों के रूप कम हो गए। इस प्रकार भाषा अधिक सरल हो गई।
(६) नपुंसक लिंग समाप्त प्राय: हो गया।
(७) अपभ्रंश में स्वराघात प्राय: आद्यक्षर पर था, इसीलिए आद्यक्षर तथा उसका स्वर यहां प्राय: सुरक्षित मिलता है।जैसे माणिक्य माणिक्क; घोटक, घोड़ा आदि। (संस्कृत की तुलना में हैं।)
(८) वाक्यों में शब्दों के स्थान निश्चित हो गये।
(९) अपभ्रंश में तद्भव शब्दों का सर्वाधिक प्रयोग हुआ है। इसके अतिरिक्त तत्सम, देशज, विदेशी शब्दों का भी प्रयोग हुआ हैं।
[3] आधुनिक भारतीय आर्य भाषा ( १०००ई. से अब तक )
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का उद्भव 1000 ई. के लगभग हुआ है। इस वर्ग की भाषाओं का काल तब से अब तक माना गया है। इस काल में प्रयुक्त भाषाओं की गणना आधुनिक भारत आर्य भाषाओं में की जाती है। इस वर्ग की भाषाओं के विकास के कुछ समय पश्चात से सम्बंधित साहित्य प्राप्त होता है ।
आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं का विकास अपभ्रंश के विभिन्न रूपों से हुआ है। इस संदर्भ में अपभ्रंश के सात रूप उल्लेखनीय हैं।
क्रम |
अपभ्रंश |
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं |
1. |
शौरसैनी |
पश्चिमी हिंदी, गुजराती, राजस्थानी |
2. |
पैशाची |
लहंदा,पंजाबी |
3. |
ब्राचड़ |
सिंधी |
4. |
महाराष्ट्री |
मराठी |
5. |
मागधी |
बिहारी,बंगाली,उड़िया,असमिया |
6. |
अर्द्धमागधी |
पूर्वी हिंदी |
7. |
खस |
पहाड़ी |
(1) सिंधी
'सिंधी' शब्द का संबंध संस्कृत शब्द 'सिंधु' से है। सिंधु नदी के कारण ही सिंधु प्रदेश सिंधु कहलाया और वहां की भाषा 'सिंधी'कहलाई। सिंधी के अधिकांश बोलने वाले पाकिस्तान के सिंध प्रांत में हैं,किंतु कुछ भारत में भी है जो मुख्यतः बम्बई, अजमेर तथा दिल्ली आदि में हैं। सिंधी की उत्पत्ति ब्राचड़ अपभ्रंश से मानी जाती है ।अब सिंध में सिंधी बोलने वाले प्राय: मुसलमान ही रह गए हैं।
सिंधी साहित्य का सबसे प्राचीन ग्रंथ 'शाहजो रिशालो' है।
सिंधी भाषा की प्रमुख बोलियां छह इस प्रकार हैं-
१. बिचोली २. सिराइकी ३. थरेली४. दासी ५. लाडी ६.कच्छी
इनमें से बिचोली साहित्यिक भाषा है। सिंधी भाषा की अपनी लिपि 'लंडा' है , किंतु इसे गुरुमुखी और फारसी लिपियों में लिखा जाता है। भारत में अब इसके लिए नागरी का भी प्रयोग हो रहा है ।
( 2 ) लहंदा
लहंदा का शाब्दिक अर्थ है 'पश्चिम'।
पश्चिमी पंजाब में बोली जाने के कारण इसे 'लहंदा' अथवा 'लहंदी' कहते हैं। इसके अन्य नाम जटकी, उच्ची, डिलाही तथा हिन्दकी है ।यह मुख्यतः पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में बोली जाती है। इसका विकास मूलतः कैकेय प्राकृत से विकसित कैकेय अपभ्रंश से हुआ है।
इसकी मुख्य बोलियां चार हैं-
१.लहंदा २. मुल्तानी
३.पोठवारी ४. धन्नी
सिख धर्म की जनमसाखी तथा लोकगीतों के अतिरिक्त इसमें कोई साहित्य नहीं है । इसकी अपनी लिपि 'लंडा 'है , पर यह फारसी लिपि में भी लिखी जाती है।
(3) पंजाबी
"पंजाब" शब्द फारसी का है। जिसका अर्थ है 'पांच नदियों का देश।' मुख्यतः पंजाब में बोली जाने के कारण इसका नाम पंजाबी है वर्तमान काल में इसका क्षेत्र पूर्वी पंजाब तथा पाकिस्तान स्थित पंजाब है। पंजाबी के प्रमुख दो रूप हैं। एक तो आदर्श या परिनिष्ठित पंजाबी है , जिसका शुद्धतम रूप अमृतसर के आसपास माझ में है। इसे 'माझी 'भी कहते हैं। पंजाबी का दूसरा रूप 'डोगरा ' या 'डोगरी' है। यह जम्मू तथा पंजाब के कुछ भागों में बोली जाती है। लोकसाहित्य की दृष्टि से भी पंजाबी पर्याप्त संपन्न है। इसकी मुख्य लिपि 'लंडा' थी।
'लंडा' लिपि अत्यंत अस्पष्ट एवं दोषपूर्ण होने के कारण गुरु अंगददेव ने देवनागरी लिपि का आधार लेकर इसमें सुधार किया और गुरुमुखी लिपि का आविष्कार किया। इस लिपि का मुख्य उद्देश्य गुरुवाणी को शुद्ध रूप में प्रस्तुत करना था।अधिकांश सिक्खों ने इस लिपि को अपना लिया है।
(4) पश्चिमी हिंदी
इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। यह मुख्यत: मध्यदेश की वर्तमान भाषा कही जा सकती है। इसकी मुख्य रूप से पांच बोलियां हैं-
१. कन्नौजी २. बुंदेली ३. हरियाणी ४. खड़ीबोली ५. ब्रज
इनमें खड़ीबोली और ब्रजभाषा प्रमुख हैं। खड़ीबोली का आधुनिक साहित्य तथा ब्रजभाषा का प्राचीन साहित्य पर्याप्त धनी है ।
खड़ीबोली पर हिंदी तथा उर्दू ,दोनों का समान रूप से अधिकारी हैं। इसे 'हिंदुस्तानी' , 'नागरी हिंदी' अथवा 'सर हिंदी' भी कहा जाता है । खड़ीबोली ही भारत की राज्य भाषा है। अमीर खुसरो खड़ीबोली के आदि कवि माने जाते हैं। उनकी पहेलियों तथा मुकरियों में खड़ी- बोली का प्रयोग हुआ है।
सूरदास नन्ददास, कृष्णदास आदि कवियों का कृष्ण काव्य, सम्पूर्ण रीतिकाव्य तथा भारतेंदु की कविताएं ब्रजभाषा में ही मिलती हैं। सूरदास का 'सूरसागर' तथा' सूरसारावली' ब्रजभाषा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
( 5 ) गुजराती
'गुजरात' नाम का संबंध 'गुर्जर' जाति से है। गुर्जर+त्रा=गज्जरत्रा=गुजरात। गुजरात की भाषा गुजराती है।इसका प्रथम प्रयोग प्रेमानंद के 'दशम स्कंध' में हुआहै।गुजराती विद्वान उमाशंकर जोशी इसे 'मारू गुर्जर 'तथा कन्हैया- लाल माणिकलाल मुंशी 'गुर्जर ' अपभ्रंश कहते हैं । गुजराती साहित्य का प्रारंभ कुछ लोग 12 वीं सदी से ही मानते हैं। प्राचीन गुजराती के प्रमुख साहित्यकार राजशेखर और नरसी मेहता आदि हैं।
गुजराती की प्रमुख बोलियां इस प्रकार हैं-
१. काठियावाड़ी २. पट्टनी ३. सुरती
४. वडोदरी ५. चरोतरी ६. बंबइया
७. गामडियाढ
इसकी लिपि पुरानी नागरी से विक- सित हुई है। इसकी अपनी लिपि गुजराती है, जो देवनागरी से मिलती- जुलती है।
(6) मराठी
मराठी महाराष्ट्र की भाषा है। वह बंबई प्रांत में पूना के चारों ओर तथा बरार प्रांत और मध्य प्रांत के दक्षिण के नागपुर आदि चार जिलों में बोली जाती है। मराठी नाम ' महाराष्ट्री ' से सम्बद्ध है। इसकी मुख्य बोलियां इस प्रकार हैं -
१ कोंकणी २. नागपुरी ३. कोष्टी
४. माहारी ५.गोवारी ६. नतिया
इसकी की लिपि देवनागरी है। मराठी का अपना उत्कृष्ट साहित्य है।
संत ज्ञानेश्वर की 'ज्ञानेश्वरी 'मराठी के प्राचीन साहित्य का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है।
(7) बंगाली
यह मागधी अपभ्रंश के पूर्वी रूप से उत्पन्न है। 'बंगाली' शब्द का संबंध बंगाल के प्राचीन नाम 'वंग' से है।
बंगाल की भाषा बंगाली है। अब बंगाली पश्चिमी बंगाल तथा बांग्ला-देश में बोली जाती है। इसकी मुख्य बोलियां इस प्रकार हैं-
१. पश्चिमी बंगाली
२. उत्तरी बंगाली
३. दक्षिण -पश्चिमी बंगाली
४. राजबंगशी
५. पूर्वी बंगाली
इसका प्राचीन और आधुनिक साहित्य बहुत धनी है। रवींद्रनाथ टैगोर बंगाली के उत्कृष्ट कवि हैं। प्राचीन बंगाली साहित्य में 'कृत्ति- वासी रामायण', चंडीदास की 'पदावली' आदि प्रमुख हैं।
(8) उड़िया
यह उड़ीसा ( उत्कल )की प्रमुख भाषा है। इसका संबंध मागधी अपभ्रंश के दक्षिणी भाग से हैं। उड़िया -भाषी उड़िया को ओडिया' कहते हैं । उड़िया भाषा के प्राचीन-तम नमूने १०५१ई. के अनंत वर्मा के उरजम शिलालेख में मिलते हैं। उड़िया की प्रमुख बोलियां इस प्रकार हैं-
१. गंजामी २. संभलपुरी ३.भत्री
आदिकाल के कवियों में लुइपा, शवरीपा आदि 'बौद्ध गान ओ दोहा' के कवि प्रमुख हैं। इसकी लिपि अपनी है जिसे बंगला ही कहते हैं।
यह भाषा बड़ी श्रुतिमधुर है।
(9) असमी
असमी भाषा का संबंध पूर्वोत्तरी मागधी अपभ्रंश से है। यह आसाम की घाटी तथा उसके आस-पास बोली जाती है। असमी का लिखित प्राचीनतम रूप हेम सरस्वती द्वारा लिखित ' प्रहलाद चरित्र 'नामक काव्य ग्रंथ में मिलता है।ये ही असमी के पहले कवि हैं। इसकी मुख्य बोली मयांग( विश्नुपुरिया ) है । प्राचीन असमी साहित्यकारों में पितांबर, शंकरदेव, माधवदेव आदि प्रमुख हैं।
इसकी लिपि भी प्राय: बंगला ही है।
(10) राजस्थानी
राजस्थानी राजस्थान की भाषा है। इसकी उत्पत्ति उपनागर अपभ्रंश से हुई। गुजराती और राजस्थानी का घनिष्ठ संबंध है। इस पर भी मध्य - देशीय शौरसेनी का प्रभाव है।
राजस्थानी की मुख्य बोलियां इस प्रकार हैं-
१. मारवाड़ी २. मेवाती ३.मालवी
४.शेखावटी ५. गूजरी ६. भीली
७. जयपुरी
इसमें डिंगल साहित्य अच्छा है। मेवाती और जयपुरी में केवल लोक- साहित्य है। इसकी लिपि नागरी तथा महाजनी है ।
(11) पहाड़ी
शौरसेनी अपभ्रंश से पहाड़ी भाषाएं निकली है। इसके अन्य नाम पर्वतिया या पर्वतीय हैं। इसके अंतर्गत तीनवर्ग हैं-
१. पूर्वी पहाड़ी
२. मध्य पहाड़ी
३. पश्चिमी पहाड़ी
पूर्वी पहाड़ी की मुख्य बोली नेपाली है। नेपाली को 'खसखुरा ' या 'गुरुखाली ' भी कहते हैं । यह नेपाल की राजभाषा है। इसके प्राचीनतम प्रसिद्ध साहित्यकार प्रमनिधि पंत कहे जाते हैं ।
मध्य पहाड़ी का क्षेत्र गढ़वाल,कुमाऊं तथा आसपास का क्षेत्र है। मध्य पहाड़ी के गढ़वाली और कुमाऊनी दो रूप हैं। इनमें लोक साहित्य के साथ ही कुछ अन्य साहित्य भी उपलब्ध है।
पश्चिमी पहाड़ी में लगभग बीस बोलिया हैं। जिनमें चंबाली, जौनसारी, सिरमौरी आदि प्रमुख हैं।
सभी पहाड़ी बोलियो पर राजस्थानी का ऐतिहासिक कारणों से यथेष्ट प्रभाव है। ये हिमालय के निचले भाग में बोली जाती हैं।
(12) बिहारी
यह मागधी अपभ्रंश के पश्चिमी रूप से उत्पन्न है । इसका क्षेत्र उत्तर प्रदेश तथा बिहार दोनों में है । इसकी मुख्य बोलियां इस प्रकार हैं-
१ .मैथिली २. मगही ३. भोजपुरी
मैथिली में पर्याप्त साहित्य उपलब्ध है। विद्यापति इसके सिरमौर हैं।
मैथिली की अपनी लिपि है जो बंगला से मिलती जुलती है। भोजपुरी और मगही की लिपि कैथी है। इसका प्रकाशित साहित्य देवनागरी में मिलता है ।
(13) पूर्वी हिंदी
इसका विकास अर्द्ध मागधी अपभ्रंश से हुआ है। पूर्वी हिंदी कुछ बातों में पश्चिमी हिंदी से मिलती है तथा कुछ बातों में बिहारी से। इसका क्षेत्र महाकोशल, बघेलखण्ड तथा छत्तीसगढ़ है । इसका अन्य नाम 'कोशली' हैं। इसकी मुख्य बोलियां तीन हैं-
१. अवधी २. बघेली ३. छत्तीसगढ़ी
प्राचीन साहित्य की दृष्टि से अवधी संपन्न भाषा है। इसमें महाकवि जायसी और तुलसीदास ने उत्कृष्ट काव्यों की रचना की है। तुलसीदास का 'रामचरितमानस' और जायसी का' पद्मावत' अवधी भाषा की उत्कृष्ट रचनाएं हैं। तीनों में नागरी (देवनागरी )लिपि का प्रयोग हुआ है।
आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की कुछ प्रमुख विशेषताएं-
(१)आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में प्रमुखत: वही ध्वनियां हैं जो प्राकृत ,अपभ्रंश आदि में थी। किंतु कुछ विशेषताएं भी देखने को मिलती हैं-
(क) कई नये स्वर विकसित हो गए हैं। जैसे हिंदी में ही बोलियों को मिलाकर १७-१८ मूल स्वरों का प्रयोग हो रहा है। पंजाबी आदि में उदासीन स्वर 'अ'भी प्रयुक्त होने लगा है गुजराती में मर्मर स्वर का विकास हो गया है। कुछ बोलियों में कुछ विद्वानों के अनुसार केवल मूल स्वरों का प्रयोग हो रहा हैं, संयुक्त स्वरों का नहीं।
(ख) 'ऋ' का प्रयोग तत्सम शब्दों में लिखने में चल रहा है किंतु बोलने में यह स्वर न रहकर 'र' के साथ इ या उ स्वर का योग रह गया हैं।
(ग) व्यंजनों में ,जहां तक उष्म व्यंजनों का प्रश्न है, लिखने में तो प्रयोग स, ष, श तीनों का हो रहा है, किंतु उच्चारण में स, श दो ही है। 'ष' भी 'श 'रूप में उच्चारित होता है।
(घ) हिंदी में 'ड़', 'ढ़' आदि कुछ नये व्यंजन विकसित हो गए हैं। चवर्ग के उच्चारण में आधुनिक काल में एकरूपता नहीं है।
(ङ) विदेशी भाषाओं के प्रभाव- स्वरूप आधुनिक भाषाओं में नवीन ध्वनियां आ गई हैं ।जैसे-क़, ख़, ग़, ज़, फ़,ऑ आदि।
(२) प्रमुखत: बलात्मक स्वराघात है।
विशेषत: बिहारी, बंगाली आदि में, किंतु सामान्यतः अन्यों में भी (वाक्य के स्तर पर) संगीतात्मक भी है।
(३) अनुकरणात्मक शब्दों का प्रयोग अपेक्षया बहुत बढ़ गया है।
(४)आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में अपभ्रंश की तुलना में भी रूप कम हो गए हैं। इस प्रकार भाषा सरल हो गई है।
(५) संस्कृत में लिंग ३ थे। मध्ययुगीन भाषाओं में भी ३ ही लिंग थे। आधु- निक में हिंदी ,सिंधी, पंजाबी तथा राजस्थानी में २ लिंग हैं(पुल्लिंग, स्त्रीलिंग)। तीन लिंग केवल गुजराती, मराठी मैं हैं।
(६) आधुनिक भारतीय आर्य भाषाएं ( नाम और धातु दोनों टृष्टियों से) पूर्णत: अयोगात्मक या वियोगात्मक हो गई हैं। कुछ रूप योगात्मक है भी तो अपवाद स्वरूप ।
( ७ ) आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं की शब्द भंडार की दृष्टि से सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इनमें,तुर्की,अरबी, अंग्रेजी, फारसी तथा पुर्तगाली आदि से लगभग ८-१० हजार नए विदेशी शब्द प्रत्येक भाषा में लिए गए हैं।
( ८ ) संस्कृत में वचन 3 थे ।मध्य- कालीन आर्य भाषाओं में द्विवचन समाप्त हो गया था। आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में केवल दो वचन का प्रयोग होता हैं- एकवचन, बहुवचन।
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