शब्द शक्ति | Shabd Shakti Kise Kahte Hain?
किसी भी उक्ति में शब्द और अर्थ दोनों का होना अनिवार्य है। शब्द विहीन और अर्थ हीन उक्ति की कल्पना ही नहीं की जा सकती। शब्द और अर्थ एक दूसरे से मिले -जुले रहते हैं। जैसे-काव्य के लिए सुंदर शब्दों की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार उनसे व्यक्त होने वाले सुंदर अर्थ की भी।
'शब्द की शक्ति उसके अंतर्निहित अर्थ को व्यक्त करने का व्यापार है।' कारण जिसके द्वारा कार्य संपादन करता है, उसे 'व्यापार' कहा जाता है।'
उदाहरण के लिए -
जिस प्रकार घड़ा बनाने के लिए 'मिट्टी', 'चाक', 'दण्ड' तथा 'कुम्हार' आदि कारण हैं और चाक का घूमना वह 'व्यापार' हैं, जिससे घड़ा बनता है। इसी तरह अर्थ का बोध कराने में 'शब्द' कारण है और 'अर्थ' का बोध कराने वाले व्यापार - अभिधा ,लक्षणा तथा व्यंजना है। आचार्यों ने इन्हीं को 'शक्ति 'तथा 'वृत्ति' नाम दिया है। आचार्य मम्मट ने 'व्यापार' शब्द का प्रयोग किया है तो आचार्य विश्वनाथ ने 'शक्ति 'का ।
शब्द शक्ति की परिभाषा:-
शब्दों के अर्थों का बोध कराने वाले अर्थव्यापारों को 'शब्द शक्ति' कहते हैं।
प्रसंग के अनुसार शब्द का अर्थ:-
शब्द का अर्थ प्रसंग के अनुसार लिया जाता है। पशुओं के मध्य एक विशेष प्रकार के पशु के लिए' बैल' शब्द का प्रयोग होता है, परंतु किसी मूर्ख और विवेक शून्य व्यक्ति को कोई बात समझाते- समझाते जब ऊबकर और खीजकर कोई यह कह बैठता है कि 'तुम तो निरे बैल' हो, तब बैल का आशय 'मूर्ख 'होता है।
बहुत दिनों से मूर्ख को 'बैल' कहने की एक रूढि - परंपरा हो गई है। इस प्रकार इस वाक्य में 'बैल' का साधारण तथा प्रचलित अर्थ ( दो सिंग, एक पूंछ, दो कान और चार पैरवाला पशु ) न लेकर दूसरा ही अर्थ- अर्थात् 'अत्यंत मूर्ख' लिया जाएगा। अतः वाक्य में प्रसंग के अनुसार 'बैल' शब्द का अर्थ 'मूर्ख' लिया जाएगा ।
केवल सार्थक शब्दों में ही किसी व्यक्ति, पदार्थ, वस्तु, क्रिया आदि का ज्ञान कराने की शक्ति होती है। ऐसे शब्दों का ठीक अर्थ वाक्य के शब्दों के बीच उसके स्थान और प्रयोग से ही निश्चित होता है। जैसे- 'उल्लू ' शब्द का स्वतंत्र रूप में प्रयोग करने पर उस विशेष प्रकार के पक्षी का बोध करायेगा, जो रात में ही घोंसले से बाहर निकलता है ,दिन में नहीं । जैसे- 'उल्लू सूर्य के प्रकाश में भी अंधा रहता है ।'
इस वाक्य में 'उल्लू' का अर्थ 'पक्षी विशेष' ही लिया जायेगा, परंतु किसी व्यक्ति को बार-बार कोई विषय समझाने पर भी समझ में नहीं आता तो क्रुद्ध होकर कह दिया जाता है- "ऐसे उल्लुओं को तो बृहस्पति भी नहीं समझा सकते।"
इस वाक्य में 'उल्लू 'का अर्थ पक्षी विशेष नहीं ,परंतु 'अत्यंत मूर्ख ' समझा जाएगा।
शब्द के प्रकार
शब्द मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं-
1. वाचक शब्द
2. लक्षक शब्द
3. व्यंजक शब्द
वाचक शब्द से जो अर्थ ग्रहण किया जाता है उसे वाच्यार्थ, लक्षक शब्द से जो अर्थ ग्रहण किया जाता है उसे लक्ष्यार्थ, तथा व्यंजक शब्द से जो अर्थ ग्रहण किया जाता है उसे व्यंग्यार्थ कहा जाता है।
शब्द शक्तियां-
वाचक शब्द लक्षक शब्द व्यंजक शब्द
वाच्यार्थ लक्ष्यार्थ व्यंग्यार्थ
अभिधा लक्षणा व्यंजना
"वाच्यश्च लक्ष्यश्च व्यंग्यश्चेति" (साहित्य दर्पण)
इस आधार पर तीन प्रकार की शब्द शक्तियां मानी गयी है:-
(1) अभिधा शब्द शक्ति
(2) लक्षणा शब्द शक्ति
(3) व्यंजना शब्द शक्ति
(1) अभिधा शब्द शक्ति
किसी शब्द को सुनते ही तत्काल उसके साधारण या प्रचलित( या संकेतित) अर्थ का ही बोध हुआ करता है। इस कार्य को अभिधा कहते हैं।
अर्थात् शब्द की जिस शक्ति के कारण किसी शब्द का साधारण या प्रचलित, मुख्य ( या संकेतित) अर्थ समझा जाता है उसे 'अभिधा शक्ति' कहते हैं।
आचार्य मम्मट के अनुसार -
"स मुख्योडर्थस्तत्र मुख्यो
व्यापारोडस्याभिधोच्यते ।। "
अर्थात् " साक्षात् संकेतिता ( गुण, जाति, द्रव्य तथा क्रियावाचक) अर्थ जिसे मुख्य अर्थ कहा जाता है, उसका बोध कराने वाले व्यापार को अमिधा व्यापार या शक्ति कहते हैं।"
जैसे-
1. राकेश पढ़ता है।
2. गाय दूध देती है।
अभिधा को 'शब्द की प्रथमा शक्ति' भी कहा जाता है।
बहुत से ऐसे शब्द होते हैं जिनके कई अर्थ होते हैं। यह शब्द-कोशों से जाना जाता है। वाक्य में प्रयुक्त किसी शब्द का (उन अर्थों में से) कौन सा अर्थ लिया जायेगा; इसे वाक्य के अंतर्गत अन्य शब्दों के (1) सानिध्य (निकटता) (2) संयोग या साहचर्य (3) प्रसंग (4) स्थल या समय के अनुसार या सुनने वाले की दृष्टि ,चेष्टा, ध्वनि आदि अनेक बातों से किसी शब्द का अर्थ समझा जाता है।
उदाहरणार्थ
(1) "राम लक्ष्मण वन जा रहे हैं।"
इस वाक्य में लक्ष्मण के साथ होने अथवा संयोग के कारण राम का अर्थ 'दशरथ कुमार श्री रामचंद्र' होगा।
(2) "मोती बड़ा नटखट लड़का है।" और "आजकल मोती बड़े महंगे हो गए हैं।"
इन दो वाक्यों में पहले वाक्य में 'मोती' शब्द किसी व्यक्ति का नाम है और दूसरे वाक्य में 'मोती 'शब्द बहुमूल्य पदार्थ विशेष का निर्देश करता है।' मोती' शब्द के दोनों अर्थ वाक्य में उसके निकट प्रयुक्त अन्य शब्दों के संसर्ग या संयोग से जाने गये हैं।
(3) *दलदल में फंस जाने पर उससे निकलना कठिन है।
*राम तथा रावण के दल भिड़ गये।
उपर्युक्त वाक्य में 'दल'के मुख्यार्थ क्रमश: कीचड़ और सेना का बोध प्रसंग का वर्णन के प्रकरण से होता है ।
(4)' प्रभाकर' सूर्य और चंद्रमा -दोनों का पर्यायवाची शब्द है। दिन से सम्बद्ध (प्रकरण या प्रसंग ) में 'प्रभाकर 'का उल्लेख होने पर इसका अर्थ 'सूर्य' लिया जाएगा और रात का होने पर 'चंद्रमा '। ये अर्थ समय के संबंध में जाने जाते हैं ।
अभिधा शक्ति द्वारा तीन प्रकार के शब्दों का अर्थ बोध होता है-
(क) रूढ़ शब्द
(ख) यौगिक शब्द
(ग) योगरूढ़ शब्द
(क) रूढ़ शब्द
जिन शब्दों के खंड न हो, संपूर्ण शब्दों का एक ही अर्थ प्रकट हो ,उन्हें रूढ़ शब्द कहते हैं। जैसे- वृक्ष, लता, घोड़ा, नदी, पर्वत, तोता, कबूतर, लोटा आदि रूढ़ शब्द है ।
(ख) यौगिक शब्द
जिन शब्दों का अर्थबोध अवयवों (प्रकृति और प्रत्ययों )की शक्ति द्वारा होता है और खंडों के आधार पर ही संकेत माना जाता है ,वे यौगिक शब्द कहे जाते हैं।जैसे- पाठशाला, पाचक, दिवाकर आदि।
उदाहरणार्थ
'पाठशाला' का अर्थ स्थान विशेष से
है, जहां बालक पढ़ते हैं । यह अर्थ 'पाठशाला 'के खंडों में भी वर्तमान है। 'पाठ 'का अर्थ पढ़ाई से है और 'शाला' का अर्थ घर है । इस प्रकार पाठ से संबंधित घर 'पाठशाला 'है।
'पाचक 'शब्द के दो खंड हैं-
पच्+अक
'पच् 'का अर्थ है 'पकाना 'और 'अक' का अर्थ है 'वाला' । अर्थ हुआ -वह जो पकाने का काम करता है 'पाचक 'है ।
(ग) योगरूढ़ शब्द
जब कोई यौगिक शब्द किसी एक विशेष अर्थ में रूढ हो जाता है तब वह 'योगरूढ़ 'शब्द कहा जाता है। योगरूढ़ शब्द, यौगिक और रूढ - दोनों को मिलाकर बने हैं। इनमें भी सार्थक खंडों का योग होता है, परंतु सार्थक खंडों के योग से जो अर्थ निकलना चाहिए ,वह अर्थ न निकलकर एक रूढ अर्थ अर्थात् परंपरा से प्रसिद्ध अर्थ ही ग्रहण किया जाता है।
उदाहरणार्थ
'पंकज' शब्द को कमल के लिए योगरूढ़ है। 'पंकज' के दो खंड हैं- पंक + ज। 'पंक' का अर्थ है 'कीचड़' और 'ज' का अर्थ है 'उत्पन्न '। अतः इसका अर्थ होगा 'कीचड में उत्पन्न होने वाला।' तो कीचड़ में तो बहुत कुछ उत्पन्न होता है किंतु पंकज शब्द 'कमल' के लिए रूढ हो गया है ।इस प्रकार यह योगरूढ़ शब्द है।
अन्य उदाहरण- लंबोदर, नीलकंठ, चतुर्भुज, घनश्याम, जलज आदि ।
(2) लक्षणा शब्द शक्ति
जहां मुख्य अर्थ में बाधा उपस्थित होने पर रूढि अथवा प्रयोजन के आधार पर मुख्य अर्थ से संबंधित अन्य अर्थ को लक्ष्य किया जाता है, वहां लक्षणा शब्द शक्ति होती है।
आचार्य मम्मट के अनुसार-
"मुख्यार्थबाधे तद्योगे रूढ़ितोडथ
प्रयोजनात् ।
अन्योडर्थो लक्ष्यते यत् सा लक्षणा-
रोपिता क्रिया ।। "
(काव्यप्रकाश )
अर्थात् मुख्य अर्थ के बाधित होने पर किसी रूढ़ि अथवा प्रयोजन के कारण जिस क्रिया (शक्ति) द्वारा मुख्य अर्थ से संबंध रखनेवाला अन्य अर्थ लक्षित हो, उसे लक्षणा व्यापार (शक्ति) कहते हैं।
तात्पर्य यह है कि जब किसी पद (शब्द) या पद- समूह का साक्षात् संकेतित अर्थ 'अभिधा 'नामक शब्द शक्ति द्वारा स्पष्ट नहीं हो पाता है, तब वहां मुख्य अर्थ से संबंधित किसी दूसरे अर्थ को ढूंढ निकाला जाता है। यह अभिप्रेत अर्थ रूढ़ि या प्रयोजन के कारण अंतर्निहित होता है और जिस शब्द शक्ति के द्वारा यह लक्षित होता है उसे ' लक्षणा' कहते हैं । इस प्रकार लक्षणा व्यापार की तीन स्थितियां हैं-
1. मुख्यार्थ का बाधित होना
2. मुख्यार्थ का अमुख्यार्थ (लक्ष्यार्थ) के साथ योग (संबंध)
3. रूढ़ि अथवा प्रयोजन हो
जैसे-
"तुम तो निरे गधे हो ।"
यहां 'गधे' का वाच्यार्थ - दो लंबे कान वाला, एक लंबी पूॅछवाला, चार पैर वाला पशु विशेष है, परंतु स्वरूप से 'वह व्यक्ति' गधा तो है नहीं। इसलिए यहां मुख्यार्थ बाधित होता है। अभिप्रेत अर्थ जिसे कहने के अभिप्राय से 'गधे' शब्द का प्रयोग हुआ है- 'वह मूर्ख' है।
मूर्खता जो अभिप्रेत अर्थ है से मुख्यार्थ- 'गधा ' (पशु विशेष) का संबंध है। यहां मूर्खता के लिए 'गधे 'से संबंध जोड़ने में यह प्रयोजन छिपा हुआ है कि कहने वाला साधारण ढंग से मूर्ख कहकर संतुष्ट नहीं होता, इसलिए वह गधा शब्द का सहारा लेता है और उसका प्रयोजन सिद्ध हो जाता है। इस तीसरी विशेषता से ही लक्षणा के विभिन्न भेद हो जाते हैं।
लक्षणा के भेद
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1.रूढ़ि लक्षणा 2. प्रयोजनवती लक्षणा
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गौणी लक्षणा शुद्धा लक्षणा
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सारोपा साध्य- लक्षण उपादान
लक्षणा वसाना लक्षणा लक्षणा
लक्षणा
लक्षणा के मुख्य दो भेद हैं-
(1) रूढ़ि लक्षणा
(2) प्रयोजनवती लक्षणा
(1) रूढ़ि लक्षणा
जहां मुख्यार्थ में बाधा होने पर रूढ़ि या लोक प्रचलन के आधार पर अन्य अर्थ (लक्ष्यार्थ ) ग्रहण किया जाता है ,वहां ब रूढ़ि लक्षणा होती है। जैसे-
1. "इन दोनों घरों में झगड़ा है।"
इस वाक्य में 'घरों' का अर्थ 'घरों के लोग हैं' ना कि घरों की इमारतें या अन्य वस्तुएं। ऐसा कहने की परंपरागत रूढ़ि चली आई है।
2. "राजस्थान युद्ध में उतरा है, उसके सामने कौन टिकेगा ।"
यहां मुख्यार्थ की बाधा होती है और अभिप्रेत अर्थ यह निकलता है कि 'राजस्थान के वीर -बाॅकुरे 'जो वीरता के लिए युगों से प्रसिद्ध रहे हैं, वे युद्ध में उतरे हैं। यह प्रसिद्धि रूढ़ हो गई है। इस प्रकार यह रूढ़ि लक्षणा है ।
(2) प्रयोजनवती लक्षणा
प्रयोजनवती लक्षणा वहां होती है, जहां किसी शब्द का नियत अर्थ न लेकर उससे भिन्न अर्थ या लक्ष्यार्थ - किसी विशेष प्रयोजन से लिया जाता है।
अर्थात् जो अर्थ लिया जाता है वह किसी प्रयोजन या अभिप्राय को व्यंजित करता है।
जैसे-
"गंगायां घोष:"
यहां गंगा शब्द का मुख्यार्थ ' गंगा का प्रवाह ' बाधित है, क्योंकि गंगा की धारा पर गांव का होना संभव नहीं है। अत: गंगा के संबंध से इसका अन्य अर्थ 'गंगा का तट' ग्रहण किया जाता है। लक्ष्यार्थ 'तट' का मुख्य अर्थ प्रवाह के साथ समीप्य- संबंध है और साथ ही यहां इस अर्थ ग्रहण का कारण रूढ़ि न होकर प्रयोजन है। 'गंगा पर बस्ती' कहने का तात्पर्य गांव की पवित्रता तथा शीतलता आदि की विशेषता की सूचना देना भी है।
इसी प्रकार किसी आदमी को गधा, बैल, उल्लू कहने का प्रयोजन यह होता है कि उसकी मूर्खता की अधिकता व्यंजित की जाए।
हिंदी के सब मुहावरे लक्ष्यार्थ के उदाहरण हैं। उन सबमें लक्षणा मानी जाएगी ,परंतु वे सदैव विशेष अर्थ की व्यंजना करने के उद्देश्य से ही प्रयुक्त होते हैं ,इससे उनमें प्रयोजनवती लक्षणा भी कही जा सकती है।
जैसे-
"सिर पर क्यों खड़े हो ।"
इसमें 'सिर पर ' का लक्ष्यार्थ 'निकट' है,
परंतु निकट न कहकर' सिर पर' कहने का प्रयोजन 'निकटता का आधिक्य' व्यंजित करना है । इस अर्थ में ही इसके प्रयुक्त होने की रूढ़ि हो गई है।
प्रयोजनवती लक्षणा के भेद:-
प्रयोजनवती लक्षणा के दो भेद हैं -
(1) गौणी लक्षणा
(2) शुद्धा लक्षणा
(1) गौणी लक्षणा
जहां मुख्यार्थ में बाधा होने पर सादृश्य संबंध के आधार पर यानि समान गुण, रूप, धर्म के द्वारा अन्य अर्थ (लक्ष्यार्थ) ग्रहण किया जाए वहां गौणी लक्षणा होती है ।
जैसे-
" वह पुरुष सिंह है ।"
इसमें पुरुष को सिंह कहने में मुख्यार्थ की बाधा होती है क्योंकि मनुष्य 'सिंह' नहीं हो सकता। अतएव सिंह के समान पराक्रम, शौर्य आदि गुण ( धर्म) द्वारा लक्ष्यार्थ अर्थात् 'सिंह के समान शक्तिशाली पुरुष 'का बोध होता है। अत: यहां गौणी लक्षणा है ।
(2) शुद्धा लक्षणा
जहां गुण सादृश्य को छोड़कर अन्य किसी आधार जैसे - समीपता, साहचर्य , आधार -आधेय , कार्य- कारण संबंध के आधार पर लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है वहां शुद्धा लक्षणा होती है।
जैसे-
"गंगा पर घर है।"- प्रयोग में गंगा और तट का निकट होने का संबंध है। इसलिए यहां शुद्धा लक्षणा है ।
प्रयोजनवती गौणी लक्षणा के दो भेद हैं -
(क) सारोपा लक्षणा
(ख) साध्यवसाना लक्षणा
(क) सारोपा लक्षणा
जब किसी पद में उपमेय और उपमान दोनों का शब्द द्वारा निर्देश करते हुए अभेद बतलाया जाता है, वहां सारोपा लक्षणा होती है। जैसे-
"उदित उदयगिरि मंच पर रघुवर बाल पतंग।"
यहां उदयगिरि रूपी मंच पर राम
रूपी प्रभातकालीन सूर्य का उदय दिखाकर उपमेय का उपमान पर अभेद आरोप किया गया है। अंत: यहां सारोपा लक्षणा है।
रूपक अलंकार में सारोपा लक्षणा होती है।
(ख) साध्यवसाना लक्षणा
इसमें उपमेय का कथन नहीं होता केवल उपमान का ही कथन होता है। लक्ष्यार्थ की प्रतीति हेतु उपमेय पूरी तरह से छुप जाता है।
"अब सिंह अखाड़े में उतरा ।
इसमें उपमेय( पहलवान ) का कथन नहीं हुआ,केवल उपमान ( सिंह ) का ही कथन किया गया है । इससे ही उपमेय का बोध होता है ।
प्रयोजनवती शुद्धा लक्षणा के दो भेद होते हैं -
(क) लक्षण लक्षणा
(ख) उपादान लक्षण
(क) लक्षण लक्षणा
लक्षण लक्षणा में लक्ष्यार्थ के साथ
वाच्यार्थ का कुछ भी लगाव नहीं होता । अर्थात् इसमें वाच्यार्थ पूर्णतया छूट जाता है और वह केवल लक्ष्यार्थ की सूचना देता है।
इसे "जहत स्वार्था" लक्षणावृत्ति भी कहते हैं।
जैसे-
गंगायाम् घोष: ।
अर्थात् गंगा पर बस्ती है।
यहां मुख्य अर्थ का परित्याग इसलिए है कि अपने अमुख्य अर्थ(लक्ष्यार्थ)' तटस्थ' के संकेत को ग्रहण कर सकें । गंगा शब्द की लक्षणावृत्ति अपने अर्थ के बिल्कुल त्याग देने के कारण है ।
(ख) उपादान लक्षणा
उपादान लक्षणा में लक्ष्यार्थ के साथ वाच्यार्थ अंग रूप में लगा रहता है । वस्तुतः इस लक्षणा के प्रयोग में मुख्यार्थ का सर्वथा त्याग नहीं किया जाता, परंतु लक्ष्यार्थ के साथ मुख्यार्थ संलग्न रहता है।
इसे "अजहवत स्वार्था" भी कहते हैं।
जैसे-
“चक्र सुदर्शन करत सदा जन की रखवारी।"
'सुदर्शन चक्र ' स्वयं रक्षा नहीं कर सकता। अत: वाच्यार्थ को छोड़कर इसका लक्ष्यार्थ लेना होगा । लक्षणा से इसका अर्थ 'विष्णु भगवान ' है।
विष्णु के साथ सुदर्शन चक्र अंग रूप से रहता है । इससे इसमें उपादान लक्षणा होगी।
(3) व्यंजना शब्द शक्ति
'अंजन ' शब्द में ' वि ' उपसर्ग लगाने से 'व्यंजना' शब्द का निर्माण होता है।अंत: व्यंजना का अर्थ हुआ-
" विशेष प्रकार का अंजन।"
आंख में लगा हुआ अंजन जिस प्रकार दृष्टि दोष को दूर कर उसे निर्मल बना देता है, उसी प्रकार व्यंजना शक्ति शब्द के मुख्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ को पीछे छोड़ती हुई उसके मूल में छिपे हुए अकथित अर्थ को व्यक्त कराती है ।
परिभाषा:-
जब किसी शब्द के अभिप्रेत अर्थ का बोध न तो मुख्यार्थ से होता है और न ही लक्ष्यार्थ से, अपितु कथन के संदर्भ के अनुसार अलग-अलग अर्थ से या व्यंग्यार्थ से हो, वहां व्यंजना शब्द शक्ति होती है।
'व्यंजना 'का अर्थ है ध्वनित करना।
इस प्रकार शब्द या वाक्य का अर्थ ध्वनित करने वाली शक्ति व्यंजना शक्ति है।
जैसे-
"संध्या हो गई "
इस वाक्य को माता पुत्री से कहे तो
अर्थ होगा - 'घर में दीपक जला दो ।'
अगर पुजारी है तो कहेगा-
'पूजा आरती का समय हो गया। '
अगर गृहिणी है तो कहेगी -
'खाना बनाने का समय हो गया ।'
अभिधा और लक्षणा का संबंध केवल शब्द से ही होता है किंतु व्यंजना शब्द पर ही नहीं , परंतु अर्थ पर भी आधारित रहती है। अर्थात्
वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ तथा व्यंग्यार्थ भी व्यंजना कराया करते हैं । व्यंजना व्यापार की इसी विशेषता को देखते हुए उसके दो भेद प्रधान भेद किए गए हैं-
(1) शाब्दी व्यंजना
(2) आर्थी व्यंजना
(1) शाब्दी व्यंजना
जहां व्यंग्यार्थ किसी विशेष शब्द के प्रयोग पर ही निर्भर रहता है वहां शादी व्यंजना होती है। उस शब्द के स्थान पर उसका समानार्थी शब्द रख देने से व्यंजना नहीं रह जाती। शाब्दी व्यंजना केवल अनेकार्थक शब्दों में होती है।
जैसे-
"चिर जीवो जोरी जुरै क्यों न स्नेह गंभीर ।
को घटि? ये वृषभानुजा वे हलधर के वीर ।। "
इसमें वास्तवमें कोई गोपी श्री कृष्ण और राधा के संबंध की उपयुक्तता व्यंग से सूचित करती है, पर 'वृषभानुजा' और 'हलधर के वीर'- इनके क्रमशः वृषभ अनुजा (बैल की बहन अर्थात् गाय)और हलधर (बैल) के वीर (भाई अर्थात् बैल)- इन दो अर्थों की ओर ध्यान जाने से सखी का छिपा हुआ परिहास भी व्यंजित होता है ।
शाब्दी व्यंजना के भेद:-
शाब्दी व्यंजना के दो भेद हैं-
(क) अमिधामूला शाब्दी व्यंजना
(ख) लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना
(क) अभिधामूला शाब्दी व्यंजना
अनेकार्थी शब्दों के एक अर्थ में नियंत्रित हो जाने के बाद जिस शक्ति द्वारा उन शब्दों से दूसरा अर्थ ध्वनित होता है उसे अभिधामूला शाब्दी व्यंजना कहते हैं।
यह व्यंजना शब्दों पर आधारित है।
अनेकार्थी शब्दों को एक अर्थ में नियंत्रित करने के 14 कारण बताए गए हैं- संयोग ,वियोग या विप्रयोग, साहचर्य ,विरोध ,अर्थ, प्रकरण, लिंग, अन्यसन्निधि ,सामर्थ्य ,औचित्य ,देश, काल,व्यक्ति तथा स्वर।
जैसे-
"मालिनि आज कहै न क्यों,
वा रसाल को हाल।"
'रसाल' शब्द अनेकार्थी है और 'आम' तथा 'प्रिय व्यक्ति' का अर्थ देता है। मालिनि के साहचर्य से उसका वाच्यार्थ 'आम ' निर्धारित हुआ। पर
'रसाल' प्रिय व्यक्ति के लिए भी प्रयुक्त होता है। अत: इस पंक्ति से यह व्यंग्यार्थ ज्ञात हुआ कि -'हे सखी, मेरे प्रिय का समाचार क्यों नहीं देती ?" वाच्यार्थ से व्यंग्यार्थ ज्ञात होने के कारण इस उदाहरण में अभिधामूली व्यंजना है और शाब्दी इसलिए है कि 'रसाल' के स्थान पर 'आम' रख देने से व्यंजना समाप्त हो जाती हैं।
(ख) लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना-
जिस व्यंजना में लक्ष्यार्थ के परांत व्यंग्यार्थ पर पहुंचा जाता है वह लक्षणामूला कहलाती है। जैसे -
" यह मनुष्य नहीं है, बैल है ।"
इसमें 'बैल' शब्द के लक्ष्यार्थ अर्थात मूर्ख स्पष्ट करके फिर इसके व्यंग्यार्थ अर्थात् मूर्खता के आधिक्य पर ध्यान दिया जायेगा ।
अन्य उदाहरण देखिए-
"कैसा भरा हुआ सरोवर है कि लोग लोट लोट कर नहा रहे हैं।"
इसमें 'सरोवर का छिछला होना'
इस व्यंग्यार्थ पर लक्ष्यार्थ के पश्चात पहुंचा जाएगा ।
(2) आर्थी व्यंजना
जहां व्यंग्यार्थ किसी शब्द पर आधारित न हो, परंतु उस शब्द के अर्थ द्वारा ध्वनित होता हो ,वहां आर्थी व्यंजना होती है। इसलिए इस व्यंजना में शब्द बदल देने पर भी अर्थात् उसका पर्याय रख देने पर भी बनी रहती है ।जैसे-
"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी।
आंचल में है दूध और आंखों में पानी ।।"
यहां नीचे वाली पंक्ति से नारी के दो गुणों की व्यंजना होती है- उनका ममत्व भाव एवं कष्ट सहने की क्षमता। यहां व्यंग्यार्थ शब्द से नहीं अपितु अर्थ से है ।
आर्थी व्यंजना में अर्थ-बोध कई कारणों से होता है, जिसका उल्लेख आचार्य मम्मट ने 'साहित्य दर्पण 'में किया है।जैसे-यह वक्ता की विशेषता से,(संबोध्य)बोधव्य(श्रोता) की विशेषता से, काकु की विशेषता से, वाक्य रचना की विशेषता से,वाच्यार्थ की विशेषता से, प्रस्ताव या प्रकरण की विशेषता से, देश,काल, चेष्टा के संबंध की विशेषता से प्रकट होती है।
एक -दो उदाहरण देखिए-
(1) वक्ता द्वारा
जहां कवि या कवि कल्पित व्यक्ति के कथन की विशेषता के कारण व्यंगयार्थ की प्रतीति हो ,वहां वक्ता की विशेषता के कारण उत्पन्न हुई आर्थी व्यंजना होती है।
जैसे-
" कनक कनक ते सौ गुनी,
मादकता अधिकाय।
वा खाए बौराय नर,
या पाए बौराय ।।"
यहां व्यंग्यार्थ हैं- "धन पाते ही मनुष्य पागल हो जाता है।"
इसकी उपलब्धि वक्ता के कथन की विशेषता के कारण ही होती है ।
(2) काकु द्वारा
जहां व्यंग्यार्थ की प्रतीति कण्ठ ध्वनि की भिन्नता के कारण होती हो,वहां
काकु की विशेषता के कारण उत्पन्न हुई अर्थी व्यंजना होती है।जैसे-
"मानस- सलिल सुधा प्रतिपाली ।
जिअइ कि लवन पयोधि मराली ।।"
कौशल्या राम से सीता के संबंध में कह रही हैं। यहां व्यंग्य है-
" सीता को वन में कष्ट होगा ,वह जी नहीं सकेंगी ।
Written By:
Example show
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